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इन सभी कानूनों पर भी व्यापक विमर्श हो और व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर कदम उठाए जाएं।
ऐसे अनेक कानून इस समय संशोधन और बदलाव के दौर में हैं, जिनका जन-जीवन से नजदीकी संबंध है। समय और स्थितियों में बदलाव के साथ कुछ कानूनों में बदलाव की जरूरत हो सकती है, पर इस ओर ध्यान देना जरूरी है कि ये सही दिशा में हैं और कानून को बेहतर बनाते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि केवल वही बदलाव किए जाएं, जो व्यापक जनहित में हैं। इसके लिए व्यापक विमर्श की जरूरत है।
संसद में तथा संसद के बाहर मीडिया में इस विमर्श से विभिन्न तथ्य व सुझाव सामने आते हैं। संसदीय समितियों के माध्यम से कानून के संशोधन पर विमर्श के लिए अधिक समय मिलता है व संभावित गलतियों से बचने का अवसर भी। हाल ही में वन संरक्षण कानून के नए नियम (2022) बनाए गए हैं, जिन पर तीखी बहस हो रही है। चूंकि पहले ही प्राकृतिक वन बहुत उजड़ चुके हैं, अतः यह चिंता प्रकट की गई है कि विभिन्न परियोजनाओं के लिए इससे वनों का कटान व्यापक स्तर पर होने लगेगा।
एक अन्य चिंता यह है कि वर्ष 2006 में वन-अधिकार कानून के अंतर्गत जो प्रयास आदिवासियों-वनवासियों के भूमि-अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए थे, वे भी इससे कमजोर हो जाएंगे। इन सभी चिंताओं को ध्यान में रखकर ऐसा फैसला लेना होगा, जो वनों की रक्षा व आदिवासियों-वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के अनुकूल हो। इसी तरह जैव-संसाधन विविधता के वर्ष 2002 के कानून में प्रस्तावित संशोधन के बारे में अनेक विशेषज्ञों ने यह कहा है कि इससे जैव-संसाधनों की रक्षा की व्यवस्था कमजोर होगी और स्थानीय समुदायों की अपने यहां के जैविक संसाधनों पर जो हकदारी है, वह भी कमजोर होगी।
वर्ष 2003 के विद्युत अधिनियम में भी संशोधन की प्रक्रिया चल रही है। इसके बारे में अखिल भारतीय बिजली इंजीनियर फेडरेशन जैसे संगठनों ने कहा है कि इससे सरकारी बिजली वितरण कंपनियों के नेटवर्क को उपयोग करने के अवसर निजी कंपनियों को अधिक मिलेंगे। इसका उपयोग निजी कंपनियां अधिक लाभ देने वाले औद्योगिक व व्यावसायिक ग्राहकों को बिजली आपूर्ति के लिए करेंगी। अधिक लाभ देने वाले ग्राहकों के छिन जाने से सरकारी कंपनियां घाटे में चली जाएंगी।
राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ जाएगा और आम लोगों को कम दर पर बिजली उपलब्ध करवाने में कठिनाई बढ़ती जाएगी। यही वजह है कि किसान संगठन भी इस संशोधन का विरोध कर रहे हैं। काफी समय से श्रम संहिता की प्रक्रिया चल रही है, जिसके अंतर्गत बहुत से कानूनों को केवल चार श्रम संहिता में समाहित कर दिया गया है। पर अधिकांश मजदूर संगठनों का मानना है कि इस प्रक्रिया में मजदूरों व ट्रेड यूनियनों के कई अधिकारों को पहले से कम कर दिया गया है।
वैसे इससे संबंधित कानून तो वर्ष 2020 में ही संसद में पास किया गया, पर इसके नियम बनाने की प्रक्रिया अभी तक कुछ राज्यों में चल रही है। अभी तक यह अवसर उपलब्ध है कि मजदूर संगठनों की मांगों के आधार पर कुछ जरूरी सुधार हो सकें। ब्रिटिश राज के समय में वर्ष 1897 में जो महामारी कानून था, उसके स्थान पर नया कानून बनाने की जरूरत काफी समय से व्यक्त की जा रही थी। यह प्रयास वर्ष 2017 में सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिनियम द्वारा किया गया था, पर उस समय जो विधेयक तैयार किया गया था, उसकी आलोचना इस आधार पर हुई थी कि यह लोकतांत्रिक नहीं है व इससे नागरिक-स्वतंत्रता पर बहुत अधिक प्रतिबंधों का प्रावधान है।
मनमानी की अधिक गुंजाइश है। अतः अब एक नया प्रयास चल रहा है व इसके लिए सरकारी समिति प्रयासरत है। उम्मीद है कि वर्ष 2017 के विधेयक में जो कमियां पाई गईं, उन्हें दूर किया जाएगा। इन विभिन्न कानूनों के संशोधन पर चल रही बहस के संदर्भ में एक व्यापक विचार यह प्रकट किया गया है कि इनमें जल्दबाजी न कर सभी संबंधित पक्षों की राय को बेहतर ढंग से जानने का प्रयास करना चाहिए। उचित यही होगा कि जन-जीवन को गहराई से प्रभावित करने वाले इन सभी कानूनों पर भी व्यापक विमर्श हो और व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर कदम उठाए जाएं।
सोर्स: अमर उजाला
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