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सुधीश पचौरी: 'कौन बनेगा अध्यक्ष' वाली 'अतिनाटकीयता' ने टीवी समाचारों में जितनी जगह घेरी, उतनी तो राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' ने भी नहीं घेरी। भाजपा प्रवक्ता चुटकी लेते रहे कि वहां 'जोड़ो जोड़ो' हो रहा है, यहां 'तोड़ो तोड़ो' हो रहा है! इस 'कामेडी' से कुछ पहले केंद्र सरकार ने 'आतंकवादी जिहादी संगठन' पीएफआइ के छह अनुषंगों पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा कर जता दिया कि आतंकवाद के प्रति 'जीरो टालरेंस' है! पूरी तैयारी की गई! पीएफआइ के पांच सौ से अधिक नेता और सदस्य गिरफ्तार किए गए।
विरोध में पीएफआइ ने एक दिन का 'केरल बंद' का आह्वान कर फिर अपनी हिंसक ताकत दिखाई! चैनल बताते रहे कि पीएफआइ का खेल 'अखिल भारतीय' स्तर का है। वह 'गजवा-ए-हिंद' करना चाहता है। भारत में इस्लामी शासन की स्थापना करना चाहता है। वह सन 2047 तक भारत को 'इस्लामिक राज्य' बनाने की तैयारी में लगा था… एक पीएफआइ वाले ने कहा कि 'संघ' को हम दस सेकेंड में निपटा सकते हैं… एक अन्य पीएफआइ वाले का कहना रहा कि आप कितने भी प्रतिबंध लगाओ, हम और बढ़ेंगे…
चैनलों की बहसों में कुछ विपक्षी नेता कहते रहे कि संघ पर भी प्रतिबंध लगे! कुछ कहते कि अभी क्यों लगाया, पहले क्यों नहीं लगाया… एक ने कहा कि पीएफआइ के एक राजनीतिक अनुषंग एसडीपीआइ को क्यों छोड़ दिया? मगर इससे भी पहले सर्वाेच्च अदालत ने अदालती सुनवाई को सीधे प्रसारित करने का प्रस्ताव देकर कई वकीलों समेत एंकरों तक को चौंका दिया।
एक बहस में एक एंकर चिंता जाहिर करता रहा कि जैसे संसद में कुछ सांसद अपने 'निर्वाचन क्षेत्र' के लिए 'शो मैन' जैसे बन जाते हैं, उसी तरह अदालतों में वकील लोग भी 'शो मैन' बनने लगेंगे… अगर अदालत की कार्रवाई को लेकर 'फर्जी' खबर बनाए या दृश्यों की 'मार्फिंग' करने लगे तो क्या होगा? कई बार कुछ फैसले जजों को भी जोखिम में डाल सकते हैं, तब क्या हो?
कुछ बड़े वकीलों ने चैनलों पर साफ किया कि अदालत संसद की तरह नहीं होती। वहां का 'अनुशासन' जजों के हाथ में होता है। वे ऐसे तत्त्वों को नियंत्रित कर सकते हैं… ऐसा प्रसारण करने से जनता को फायदा होगा… कानून कहता है कि कानून की कार्रवाई एकदम पारदर्शी और जनता के बीच होनी चाहिए… इससे अदालत और कानून में लोगों की आस्था बढ़ेगी! इसका स्वागत किया जाना चाहिए!
इसी बीच उत्तराखंड की अंकिता की हत्या की लोमहर्षक खबर पूरे दो दिन चैनलों में छाई रही। लोग अंकिता के लिए 'न्याय' की मांग करते रहे। कुछ दिन पहले ही रिजार्ट में काम शुरू करने वाली अंकिता का कसूर सिर्फ इतना रहा कि जैसे ही रिजार्ट के मालिक ने उस पर 'मेहमानों को विशेष सेवा देने के लिए' दबाव डाला, तो उसने तुरंत मना कर दिया और इसी बात पर उसे निर्मम तरीके से डुबो कर मार दिया गया।
आरोपी 'हत्यारे' के खिलाफ एफआइआर करने और गिरफ्तार करने में पुलिस को कई दिन लग गए। लोग नाराज होकर धरने देते रहे। कइयों का कहना रहा कि अगर मीडिया न उठाता तो यह मामला भी दब जाता। विपक्ष का आरोप रहा कि चूंकि रिजार्ट के मालिक भाजपा के नेता थे, इसलिए ऐसी ढिलाई हुई! उत्तराखंड की भाजपा सरकार को लोगों और मीडिया की आलोचना का निशाना बनना पड़ा!
मगर जैसे 'जिहादी हिंसक दृश्य' इंग्लैंड के 'लीसेस्टर' और 'बर्मिंघम' जैसे शहरों में दिखे, वैसे कभी न दिखे। मास्क लगाए जिहादियों की भीड़ आती, पुलिस के होते हुए वह हिंदू मंदिरों को तोड़ती और पुलिस से कहती 'स्टाप' और पुलिस 'स्टापू' मुद्रा में आ जाती! वे हिंदुओं से कहते कि गोमूत्र पीने… गोबर खाने वालों, हम तुम्हारे टुकड़े कर देंगे।
वे गरबा करती लड़कियों पर हमले करते दिखते और कहते कि गाय का पेशाब पीने वाले हिंदुओं… और, अपने चैनलों पर इनके पक्षधर भी कहने लगते कि यह यहां के 'एक्शन का रिएक्शन' है! हाय! कइयों के लिए जिहादी हिंसा हिंसा न भवति! चलते चलते: अंत में अध्यक्ष के लिए दो रणबांकुरे रह गए: एक थरूर जी, दूसरे खड़गे जी। एक 'अनधिकारिक' दूसरे 'आधिकारिक'! सच, जनतंत्र जिंदा है!