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संसद में शर्मसार होता लोकतंत्र: स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के ठीक पहले संसद की कार्यवाही में बाधा डालने वाली घटनाओं से राष्ट्र सन्न
भूपेंद्र सिंह| राष्ट्र ने रविवार को 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। स्वाधीनता प्रसाद है और पराधीनता दुखों से भरपूर विषाद। भारत स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की उमंग में है। इस बीच भारत ने राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में छलांग लगाई है। यहां अपने संविधान की सत्ता है। अनेक संवैधानिक संस्थाएं है। प्रतिष्ठित न्यायपालिका है, कार्यपालिका है। कार्यपालिका को जवाबदेह बनाए रखने वाली विधायिका है। विधायिका में केंद्रीय स्तर पर संसद व राज्यों में विधानमंडल हैं। संसद के पास कानून बनाने व संविधान में संशोधन करने की भी शक्ति है, लेकिन हाल के कुछ वर्षों से संसद ने निराश किया है। अमृत महोत्सव के ठीक पहले संसद की कार्यवाही में बाधा डालने वाली घटनाओं से राष्ट्र सन्न है और संसद बाधित करने वाले महानुभाव प्रसन्न।
संविधान निर्माताओं ने लंबी बहस के बाद संसदीय प्रणाली अंगीकृत की थी। संविधान सभा की कार्यवाही भी संसदीय प्रणाली से ही चली थी। सभा 165 दिन चली थी। अल्पसंख्यक आरक्षण पर हुई बहस में उत्ताप था, लेकिन कागज छीनने, अध्यक्ष के आसन पर चढ़ाई करने और अधिकारियों से धक्का-मुक्की करने जैसी घटनाएं नहीं हुईं। सामान्यतया 1968 तक सदन में व्यवधान नहीं थे। संसद पवित्र मानी जाती थी। आरंभिक दौर में संसद ने बहुत उत्पादक कार्य किया। शालीनता और मर्यादा स्वाभाविक आचरण थी। लोकसभा में अध्यक्षीय आसन के पीछे 'धर्मचक्र प्रवर्तनाय' लिखा हुआ है। धर्म भारत के मन, आचरण और प्रज्ञा की आचार संहिता है। इसी सभा में पहले दिन प्रवेश करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीढ़ियों पर साष्टांग प्रणाम किया था। डा. राममनोहर लोहिया संसदीय मर्यादा का पालन करते हुए आक्रमक रहते थे। अटल बिहारी वाजपेयी संसदीय शिष्टाचार के शिखर पुरुष थे। उनकी आक्रमकता में भी विनम्रता का मधुरस था। पहली लोकसभा में पं. नेहरू, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि महानुभाव थे, लेकिन अब उसी सभा भवन में अध्यक्षीय आसन पर भी हमला है।
अध्यक्ष/सभापति का आसन आदरणीय होता है। संसदीय नियमों के अनुसार अध्यक्ष/सभापति के विनिश्चय पर आपत्ति नहीं की जा सकती, लेकिन ताजे विवाद में विपक्ष ने इस मर्यादा का उल्लंघन किया। पीठ पर भी आरोप लगाए गए। संसदीय इतिहास में संभवत: पहली बार मार्शल के साथ दुव्र्यवहार हुआ। प्रक्रिया नियमावली तार-तार हो गई। माननीयों के ऐसे आचरण के विरुद्ध नियमावली में कार्रवाई के विधान हैं, लेकिन ऐसे कठोर नियमों से उदारता बरती गई। राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू आहत हैं। उन्होंने ऐसे आचरण का संज्ञान लिया है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने अभद्र आचरण को गंभीरता से लिया है। कई दिन चले सुनियोजित हंगामे से सारी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है। यह सब किसी तात्कालिक घटना का विस्तार नहीं है। सदन में कभी-कभी गहमागहमी बढ़ती है, लेकिन मानसूत्र सत्र का धाराप्रवाह हंगामा विपक्ष का सचेत और सुनियोजित कृत्य है। यह संसदीय व्यवस्था पर सीधा हमला है।
सर्वोच्च न्यायपीठ ने संसदीय प्रणाली को संविधान का मूल ढांचा बताया था। यही संसदीय प्रणाली निशाने पर है। राष्ट्र जीवन प्रश्न बेचैन है। अनेक मूलभूत प्रश्न हैं। क्या हमारे जनप्रतिनिधि संवैधानिक शपथ के प्रति निष्ठावान नहीं हैं? क्या वे संसद और सड़क में फर्क नहीं करते? क्या वे संसदीय कार्यवाही को राष्ट्रहित का साधन नहीं मानते? क्या वे सदन के भीतर हुड़दंग को ही सभी समस्याओं का उपचार मानते हैं? क्या वे सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए संसद के सदुपयोग पर विचार नहीं करते? अंतिम प्रश्न यह है कि क्या वे हुड़दंग को ही विपक्ष का कर्तव्य मानते हैं? आखिरकार संसदीय मंच के सार्थक वाद-विवाद के संबंध में उनका दृष्टिकोण क्या है? सत्ता और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। दोनों जनादेश की कोख से ही निकलते हैं। सत्ता पक्ष सरकार के माध्यम से अपने नीति कार्यक्रम लागू करता है। विपक्ष निगरानी करता है। सत्ता व विपक्ष संसद के ही भाग हैं। संसद का पोषण दोनों की जिम्मेदारी है। संसद चलाने और कार्यवाही को उत्पादक बनाने की जिम्मेदारी भी दोनों की है, लेकिन यहां विपक्ष ही संसद संचालन में बाधक है।
प्रकृति के सभी अंग विधि नियम बंधन में हैं। जल नियमानुसार नीचे की ओर प्रवाहमान हैं। अग्नि ताप लेकर ऊध्र्वगामी हैं। वैदिक दर्शन में देवता भी नियम बंधन में हैं। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मजेदार टिप्पणी है कि ईश्वर भी इन नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता। ईश्वर और देवता भी विधि विधान के अधीन हैं, लेकिन इसी भारत में विधि निर्मात्री संसद में घोर नियमविहीनता है। विधि निर्माता अपनी बनाई कार्य संचालन नियमावली व परंपरा पर आक्रामक हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में संसदीय व्यवस्था का चीरहरण दुर्भाग्यपूर्ण है। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा में संसदीय प्रणाली को उचित बताते हुए कहा था कि 'भारत में पहले भी लोकतंत्र था, लेकिन भारत से यह लोकतांत्रिक व्यवस्था मिट गई। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए हम सामाजिक और र्आिथक लक्ष्यों की र्पूित के लिए संवैधानिक रीतियों को दृढ़तापूर्वक अपनाएं।' इसके विपरीत यहां संसद जैसी संस्थाओं को ही तहस-नहस किया जा रहा है। देश आहत और असहाय है। सदन की शक्ति में राष्ट्र की शक्ति अंतर्निहित है। सभा महाभारत काल में भी थी। उसमें एक खंड का नाम ही 'सभा पर्व' है। सभा की शक्ति घटी। विमर्श घटा। तब महाभारत हो गया।
प्राचीन भारत के लोग सभा की शक्ति और सौंदर्य पर मोहित थे। ऋग्वैदिक काल में भी सभा थी। ऋषि की प्रार्थना है 'हम वाणी भद्र बनाएं। सभा में भद्र बोले-उच्यते सभासु। सभा में भाग लेने वाले सभ्य थे।' वहीं इसी भारत की संसद में सारे नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और राष्ट्र लाचार है। यूरोपीय विद्वान अर्सकिन मे ने 'पार्लियामेंट्री प्रोसीजर एंड प्रेक्टिस' में 'भ्रष्टाचार के साथ अशोभनीय व्यवहार के कारण भी सदस्यों की बर्खास्तगी की परंपरा बताई है।' कुछ न कुछ तो करना ही चाहिए। संसदीय बाधा और हंगामों पर सदन का विशेष सत्र भी उपयोगी हो सकता है। सदस्यगण हंगामा और धक्कामुक्की के औचित्य पर अपना मंतव्य दें। संभव है कि कुछ माननीय अध्यक्षीय आसन व मार्शल से भिड़ने को भी उत्कृष्ट संसदीय व्यवहार मानते हों। दंडात्मक कार्रवाई भी एक विकल्प है। चुनौती बड़ी है। संसदीय संवाद का कोई विकल्प नहीं है। संसदीय प्रणाली को अग्नि स्नान करना ही होगा। इसी में राष्ट्र की रिद्धि-सिद्धि और समृद्धि है।