सम्पादकीय

एमएसपी बढ़ाने की मांग: सही नीतियों से ही बचेंगे गन्ना किसान

Neha Dani
4 Oct 2021 3:18 AM GMT
एमएसपी बढ़ाने की मांग: सही नीतियों से ही बचेंगे गन्ना किसान
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लिहाजा सरकार को गन्ना किसानों पर अतिरिक्त बोझ डालने से बचना चाहिए।

अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से गन्ना पेराई का सीजन शुरू होता है। हर साल पेराई सत्र शुरू होने से पहले ही केंद्र सरकार गन्ने का मूल्य घोषित करती है, जिसे एफआरपी कहा जाता है। इसके बाद राज्य सरकारें राज्य परामर्श मूल्य यानी एसएपी घोषित करती हैं, जो केंद्र द्वारा घोषित मूल्य से अतिरिक्त होता है। चीनी मिलें किसानों से इसी मूल्य पर गन्ना खरीदती हैं।

इस वर्ष केंद्र सरकार द्वारा मूल्य में मात्र पांच रुपये की बढ़ोतरी की गई है, जिसे लेकर किसानों में आक्रोश है। राज्य के किसान संगठनों द्वारा आंदोलन का एलान किया गया है। राष्ट्रीय राजधानी के चारों तरफ किसान अपनी मांगों को लेकर दस महीने से धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। तीनों कृषि कानूनों के अलावा उनकी सबसे महत्वपूर्ण मांग एमएसपी पर सरकारी गारंटी प्राप्त करना है। वे सरकार द्वारा घोषित एमएसपी के पुराने फार्मूले में भी आमूल-चूल परिवर्तन चाहते हैं और अब उन्होंने लाभकारी मूल्य अथवा समता मूल्य दिलाने की मांग की है। शांता कुमार कमेटी के मुताबिक, एमएसपी खरीद का लाभ मात्र आठ से 10 फीसदी किसानों को ही मिल पा रहा है। किसान अब इस मांग पर अड़े हैं कि सरकारी खरीद के अलावा बाजार में बिक्री की पहली बोली एमएसपी से कम पर नहीं होनी चाहिए, हालांकि दाम तय करने की प्रक्रिया को भी वे दोषपूर्ण मानते हैं।
पेट्रोल, डीजल, खाद, मजदूरी, बीज, कीटनाशक समेत किसानों के इस्तेमाल की सभी चीजों के दाम बढ़े हैं, जिसके चलते न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग भी जोरों से उठती है। बजट सत्र में कृषि मंत्री ने स्वीकार किया है कि किसान परिवार की मासिक आमदनी 6,426 रुपये और मासिक खर्च 6,223 रुपये है। किसी भी सूरत में कृषि अब मुनाफे का सौदा नहीं बची है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पिछले चार वर्षों से एसएपी में नाममात्र बढ़ोतरी की गई है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लगभग 250 रुपये क्विंटल गन्ने की अगैती फसल का दाम तय किया गया है। गन्ना-चीनी उद्योग देश का दूसरे नंबर का कृषि-उद्योग है। लगभग पांच करोड़ किसानों की जिंदगी और पालन-पोषण का यह मुख्य व्यवसाय है। पिछले दिनों नीति आयोग के एक कार्यबल की रिपोर्ट आई है। सरकार द्वारा अगर इन अनुशंसाओं पर अमल हुआ, तो संकट पैदा होने की आशंका है। किसानों द्वारा गन्ने के अतिरिक्त उत्पादन को भी आयोग ने बढ़े हुए दामों में जोड़कर देखना शुरू किया है।
सच है कि कई वर्षों से चीनी का अतिरिक्त उत्पादन एफआरपी द्वारा बढ़े दामों के कारण नहीं, बल्कि कृषि वैज्ञानिकों के नूतन अविष्कारों एवं किसानों की मेहनत का नतीजा अधिक है। आयोग का मानना है कि पिछले दस वर्षों में एफआरपी में 111 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, लिहाजा भविष्य में किसानों को एफआरपी देना बंद किया जाए। ऐसी ही मांग से संबंधित एक प्रस्ताव चीनी मिल मालिकों की संस्था एसमा के राष्ट्रीय अधिवेशन में पास किया गया है। नीति आयोग ने चीनी मिलों को राहत देने की योजना का प्रारूप बनाते हुए गन्ने का भुगतान कई किस्तों में करने की सिफारिश की है। जबकि शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर, 1991 के अनुसार, गन्ना उत्पादक किसान जिस दिन गन्ना मिल के गेट पर पहुंचा देता है, उसके 14 दिन के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए, इसके बाद लंबित भुगतान पर 15 फीसदी वार्षिक ब्याज लगने का प्रावधान है।
इस संबंध में इलाहाबाद एवं लखनऊ की हाई कोर्ट भुगतान की तारीख तय कर चुकी है और गन्ना आयुक्त द्वारा कई मिलों की कुर्की के आदेश भी दिए जा चुके हैं, लेकिन जिलों के अधिकारियों और मिल मालिकों की मिलीभगत से यह संभव नहीं हो पाता है। नीति आयोग की रिपोर्ट में इसका भी उल्लेख है कि गन्ने के दाम चीनी के दाम तय होने के आधार पर घोषित होने चाहिए। लेकिन किसानों और ग्रामीण भारत के असंतोष को कम करके आंकना शासक दलों के लिए मुसीबत का कारण न बने, लिहाजा सरकार को गन्ना किसानों पर अतिरिक्त बोझ डालने से बचना चाहिए।

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