सम्पादकीय

न्याय का तकाजा

Gulabi
29 Jan 2021 1:36 PM GMT
न्याय का तकाजा
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जाहिर है, ऐसे अपराधों की रोकथाम में कानूनों की सबसे अहम भूमिका होती है, लेकिन

कानूनी सख्ती के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर चले जागरूकता कार्यक्रमों की वजह से यौन हिंसा के प्रति काफी लोगों के रूढ़ दृष्टिकोण में बदलाव आया है और ऐसे मामलों को बेहद संवेदनशील माना जाता है। जाहिर है, ऐसे अपराधों की रोकथाम में कानूनों की सबसे अहम भूमिका होती है, लेकिन यह आखिरी तौर पर अदालत पर निर्भर करता है, जहां किसी मुकदमे का फैसला सुनाया जाता है।



अफसोस की बात यह है कि कई बार अदालतों में यौन हिंसा से संबंधित कानूनों की व्याख्या इस तरह की जाती है, जो आखिरकार अपराधी के हक में चली जाती है। हालांकि अच्छा यह है कि न्याय तंत्र में सुनवाई की बहुस्तरीय व्यवस्था है और किसी खास मामले में निचली अदालत या उच्च न्यायालयों के फैसले से उपजे विवाद की स्थिति में इस तरह की असावधानी या गलत व्याख्याओं को समय रहते दुरुस्त भी कर लिया जाता है।


हाल में बंबई उच्च न्यायालय के नागपुर पीठ का एक फैसला सुर्खियों में आया, जिसमें एक बच्ची के खिलाफ यौन हिंसा के मुकदमे में न्यायाधीश ने ऐसी व्यवस्था दी, जिससे ऐसे मामलों के प्रति दृष्टिकोण पर तीखा सवाल उठा। इस फैसले में यह कहा गया था कि अगर एक वयस्क पुरुष ने बारह साल की लड़की के वस्त्रों के ऊपर से छेड़छाड़ की है या चमड़ी से चमड़ी का संपर्क नहीं हुआ है तो वह पॉक्सो यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण कानून के तहत अपराध के तौर पर नहीं देखा जाएगा; यह मामला यौन हिंसा नहीं, यौन उत्पीड़न के अंतर्गत आएगा।

जबकि निचली अदालत ने इस मामले में अभियुक्त को पॉक्सो के तहत दोषी माना था। बंबई हाई कोर्ट की व्याख्या किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के साथ-साथ खुद न्याय-व्यवस्था के लिए भी एक परेशान करने वाली बात थी। स्वाभाविक ही इस फैसले को लेकर हर स्तर पर चिंता जताई गई। राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने बिना देर किए इस मामले में नागपुर पीठ के फैसले पर रोक लगा दी।

गौरतलब है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों और खासतौर पर यौन हिंसा को लेकर बने कानूनों में 'चमड़ी से चमड़ी के स्पर्श' जैसी शर्त का उल्लेख नहीं है। यों भी, महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की जो प्रकृति रही है, उसके व्यापक दायरे और जटिलता के मद्देनजर यह अपने आप में एक उथली समझ है कि यौन हिंसा केवल चमड़ी से चमड़ी के संपर्क को माना जाए।

आए दिन महिलाओं या फिर लड़कियों और यहां तक कि छोटी बच्चियों से यौन दुर्व्यवहार के जिस तरह के मामले सामने आते हैं, उसमें ऐसी शर्त को फैसले का आधार बनाने के नतीजों का अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल है कि एक जघन्य अपराध के रूप में बलात्कार आखिर किन प्रवृत्तियों का अंजाम होता है? समाज के सभ्य और आधुनिक होने के साथ-साथ यौन हिंसा की परिभाषा भी ज्यादा संवेदनशील और व्यापक हुई है और न केवल छेड़छाड़, बल्कि किसी महिला के खिलाफ प्रत्यक्ष या परोक्ष भाषिक अश्लील टिप्पणियों को भी इसके दायरे में माना जाता है।

महिलाओं और पुरुषों के जीवन और सामाजिक स्थितियों में जो परतें हैं, उसमें पितृसत्तात्मक नजरिया और सोच ज्यादातर भावों और व्यवहारों को संचालित करती है। इसमें स्वाभाविक तौर पर महिलाओं को अलग-अलग तरह की वंचना, मानसिक और शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। एक बराबरी आधारित समाज में अदालतों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे महिलाओं के लिए न्याय सुनिश्चित करें। इसके लिए पितृसत्तात्मक सोच की बुनियाद पर खड़ी स्त्री-विरोधी धारणाओं पर चोट सबसे पहली जरूरत है।


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