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स्मार्टफोन ने हमारे कामकाज का तरीका काफी हद तक आसान कर दिया है
कन्हैया झा। लगभग हर हाथ में स्मार्टफोन आने के बाद से हमारी जीवन शैली में व्यापक परिवर्तन हुआ है। स्मार्टफोन ने हमारे कामकाज का तरीका काफी हद तक आसान कर दिया है, परंतु अनेक कारणों से हमारी जीवन शैली दिनों-दिन अधिक व्यस्त होती जा रही है। इस कारण खरीदारी के स्वरूप में भी आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। कपड़ों और इलेक्ट्रानिक वस्तुओं से लेकर तमाम उपभोक्ता वस्तुओं की खरीदारी अब घर बैठे ही कर पाना संभव है। तमाम कंपनियां उपभोक्ताओं को ये सारे सामान उनके घरों तक पहुंचाने में जुट गई हैं। दुनिया की बड़ी कंपनियों में शामिल अमेजन का तो मुख्य काम ही यही है, लोगों तक सामान की डिलीवरी करना।
खरीदारी के इस स्वरूप का निरंतर विस्तार होता गया और आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि कच्चा राशन से लेकर पका हुआ खाना तक, सबकुछ आप घर बैठे एक न्यूनतम समय-सीमा के भीतर मंगवा सकते हैं। आज देश के हर बड़े शहर में ऐसी अनेक कंपनियां अस्तित्व में आ चुकी हैं, जो आपकी रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं से लेकर दवाओं तक को कुछ घंटों या कई बार महज 10 मिनट में आपके घर तक पहुंचाने का दावा करती हैं और ऐसा करने का पूरा प्रयास भी करती हैं।
बेशक आनलाइन खरीदारी ने हमारी जिंदगी को काफी हद तक आसान बना दिया है, परंतु इसके साथ ही एक नई समस्या भी पैदा हुई है, जिस ओर अभी समाज और सरकार का ध्यान नहीं गया है। दरअसल खानपान की वस्तुओं को डिलीवर करने वाली बहुत सी कंपनियों के बाजार में आने से इनके बीच आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। ऐसे में ये कंपनियां अब उपभोक्ताओं तक कम से कम समय में सामान पहुंचाने की पेशकश करती हैं। कारोबार को बढ़ाने के लिए इस प्रकार के व्यवहार को अपनाने में कोई बुराई भी नहीं है। परंतु इस कवायद में एक महत्वपूर्ण मानवीय पहलू की अनदेखी की जा रही है, जिसका खामियाजा सामान पहुंचाने वालों को भुगतना पड़ रहा है।
कुछ दिनों पहले एक फूड डिलीवरी कंपनी के कर्मचारी सलिल त्रिपाठी का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया। वैसे अब तक की जांच से यही सामने आया है कि दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने सलिल त्रिपाठी की बाइक में कार से ठोकर मारी थी। परंतु दुर्घटना के इस मामले को इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए कि संबंधित फूड डिलीवरी कंपनी की नीतियां भी कहीं न कहीं इनके कर्मचारियों के लिए जोखिम बढ़ा रही हैं।
दरअसल इन कंपनियों की ओर से उपभोक्ताओं के बीच यह दावा किया जाता है कि आपके द्वारा आर्डर किया गया सामान आपके घर या इच्छित स्थान तक महज 10 मिनट में ही पहुंचा दिया जाएगा। ऐसे में संबंधित डिलीवरी कर्मचारी के स्टोर या रेस्टोरेंट से सामान लेकर निकलने के बाद उसके गंतव्य स्थल तक पहुंचने के समय का काउंटडाउन शुरू हो जाता है। वहां से निकलने के बाद उस कर्मचारी के दिमाग में एक ही चीज चलती रहती है कि उपभोक्ता के घर तक तय समय-सीमा के भीतर सामान पहुंचाना, क्योंकि कई बार सेवाशर्त में यह उल्लेखित होता है कि यदि उपभोक्ता तक सामान तय समय-सीमा के भीतर पहुंचाने में कंपनी असफल रहती है तो ग्राहक से पहुंचाने का शुल्क नहीं लिया जाएगा।
ऐसे में यह भी स्पष्ट है कि कोई कंपनी वह नुकसान स्वयं नहीं उठाएगी, निश्चित तौर पर उस नुकसान में वह डिलीवरी कर्मचारी को भी भागीदार बनाएगी। कई बार ग्राहक से इस तरह के शुल्क की वसूली न हो पाने की दशा में डिलीवरी कर्मचारी को कुछ हद तक नुकसान भी ङोलना पड़ता है। भले ही कंपनी इस बात से इन्कार करे कि अपने कर्मचारियों को वह इस प्रकार का कोई नुकसान नहीं होने देती है, परंतु यह भी सत्य है कि किसी न किसी रूप में कर्मचारी को इसकी भरपाई करनी पड़ती है, चाहे वह इनसेंटिव के नुकसान के रूप में ही क्यों न हो।
लिहाजा इस पूरे प्रकरण को हमें मानवीय पहलू के तौर पर भी देखना चाहिए। क्या उपभोक्ता को वाकई में तत्काल किसी ऐसी चीज की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है जिसे उसके लिए 10 मिनट में ही पाना अनिवार्य हो जाता है? यदि सड़क यातायात से संबंधित समस्याओं को ग्राहक समझ रहा है तो क्या वह चाहेगा कि डिलीवरी कर्मचारी जोखिम लेकर किसी भी तरह से न्यूनतम समय में उसके घर तक सामान पहुंचा दे, खासकर दिल्ली जैसे महानगर में तो यह बहुत ही मुश्किल काम है। इस प्रकार के व्यावहारिक तथ्यों को समझने के बाद ही इस समस्या का समाधान संभव हो सकता है।
इस संदर्भ में ग्राहकों को भी निश्चित तौर पर धैर्य दर्शाना होगा। दरअसल कुछ ग्राहक ऐसे भी होते हैं जो सामान आर्डर करने के बाद उसे जल्द से जल्द अपने घर पर पाने के लिए उतावले रहते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि उनका सामान लेकर आने वाला कर्मचारी किस तरह की मुश्किल परिस्थितियों के बीच उनके पास पहुंचने का प्रयास कर रहा है। कई बार राह भटकने से समय-सीमा के भीतर गंतव्य तक पहुंचने की उसकी चुनौती और बढ़ जाती है।
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