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Delhi Riots 2020
अवधेश कुमार। पिछले वर्ष फरवरी में हुए दिल्ली दंगों के तीन आरोपियों देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत और इसके लिए की गई टिप्पणियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना महत्वपूर्ण है। इसके कई मायने हैं। शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालय की टिप्पणियों को देश के किसी भी न्यायालय में नजीर न माना जाए। यह पूरा मामला गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) से जुड़ा है। शीर्ष न्यायालय द्वारा ऐसा कहने के बाद अब इस कानून के तहत बंद अन्य आरोपियों के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को अदालतों में उद्धृत नहीं किया जाएगा।
दरअसल गत 15 जून को तीनों आरोपियों को जमानत देने के फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यूएपीए, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और विरोध-प्रदर्शन के अधिकार पर पुलिस प्रशासन के रुख पर काफी तीखी टिप्पणियां की थीं। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि सरकार लोगों के विरोध-प्रदर्शन को दबाने की चिंता में प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों में फर्क नहीं कर पा रही है। इससे विरोध-प्रदर्शन और आतंकवादी गतिविधियों की रेखा धुंधली हो रही है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि हिंसा नियंत्रित हो गई थी। ऐसे में यूएपीए लागू ही नहीं होता। देखा जाए तो दिल्ली दंगे और यूएपीए को लेकर उच्च न्यायालय की यह असाधारण प्रतिक्रिया है। इसके बाद दिल्ली पुलिस को उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। दिल्ली पुलिस की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले में जिस तरह कानून की व्याख्या की गई है उसके देशव्यापी परिणाम हो सकते हैं। लिहाजा उस पर शीर्ष न्यायालय की व्याख्या की जरूरत होगी। अब शीर्ष न्यायालय ने सभी पक्षों को नोटिस जारी किया है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि न्यायालय कभी भी एक पक्ष को सुनकर कोई फैसला नहीं दे सकता। तीनों आरोपियों को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगना न्यायिक प्रक्रिया का स्वाभाविक अंग है। तो अब जुलाई के तीसरे सप्ताह में होने वाली सुनवाई पर पूरे देश की नजर होगी
दरअसल उच्च न्यायालय ने जमानत पर दिए अपने फैसले में तीनों पर लगे आरोपों पर बात करने के साथ संपूर्ण यूएपीए पर टिप्पणी कर दी थी। फैसले में न्यायालय ने तीनों आरोपियों को एक तरह से बरी ही कर दिया है। हम जानते हैं कि शाहीन बाग में सीएए के खिलाफ आंदोलन बाद में किस तरह दिल्ली में भीषण दंगों में तब्दील हो गया था। उसमें 53 लोग मारे गए थे और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। यह हिंसा उस समय हुई थी जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आए थे। साफ है कि उस हिंसा के पीछे सुनियोजित साजिश थी, ताकि सीएए के आधार पर मोदी सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा सुननी पड़े। आरोपी वास्तविक दोषी हैं या नहीं इस पर अंतिम फैसला न्यायालय करेगा। इसमें दो मत नहीं कि सीएए को देश के बहुमत का समर्थन प्राप्त है, लेकिन एक वर्ग आज भी उसका विरोध करता है। हालांकि किसी लोकतांत्रिक समाज का यह स्वाभाविक लक्षण है। किंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम किसी कानून का विरोध करते हैं तो हमें सड़क घेरने, आगजनी करने, निजी-सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने, पुलिस पर हमला करने और इसके लिए अलग-अलग तरीकों से लोगों को भड़काने का भी अधिकार मिल जाता है। ये सब भयानक अपराध के दायरे में आते हैं। दंगों के दौरान लोगों ने देखा कि किस तरह दिल्ली में योजनाबद्ध तरीके से हिंसा की गई, अवैध हथियारों का उपयोग हुआ, बड़े पैमाने पर संपत्तियां जलाई गईं, निदरेषों की निर्मम तरीके से हत्याएं हुईं। जाहिर है इसके साजिशकर्ताओं को सजा दिलवाना पुलिस का दायित्व है।
उच्च न्यायालय के सामने सीएए की व्याख्या का प्रश्न नहीं था। बावजूद उसने फैसले में लिखा है कि प्रदर्शन के पीछे यह विश्वास था कि यह कानून एक समुदाय के खिलाफ है। जब भी कोई व्यक्ति या समूह आतंकवादी हमला करता है या कोई बड़े नेता की हत्या करता है तो उसका भी तर्क इसी तरह का होता है कि उन्होंने एक समुदाय, एक समाज, एक व्यक्ति के साथ नाइंसाफी की। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों का तर्क भी तो यही था। न्यायालय पता नहीं क्यों इस मूल बात पर विचार नहीं कर पाया कि प्रदर्शन के अधिकार में सड़कों को घेरने, पुलिस से मुठभेड़ करने, हिंसा द्वारा मेट्रो रोकने से लेकर लोगों को मारने और बम फेंकने का अधिकार शामिल नहीं होता। यह तर्क भी आसानी से गले नहीं उतरता कि अगर हिंसा नियंत्रित हो गई तो यूएपीए लागू ही नहीं होता। अगर हिंसा की साजिश बड़ी हो और उसे पुलिस तथा खुफिया एजेंसियां विफल कर दें तो क्या उनके साजिशकर्ताओं पर कानून लागू नहीं होगा? व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह ने विस्फोट के लिए जगह-जगह बम लगा दिए और पुलिस ने उसे पकड़कर निष्क्रिय कर दिया तो क्या इससे अपराध की तीव्रता कम हो जाएगी? निश्चय ही उच्चतम न्यायालय का अंतिम फैसला आने के पूर्व हम कोई निष्कर्ष नहीं दे सकते। न्यायिक मामलों में पूर्व आकलन की गुंजाइश नहीं होती।
अब सबकी नजरें शीर्ष न्यायालय की ओर हैं। ऐसे मामलों के आरोपियों पर विचार करते समय अदालतें सामान्यत: अतीत, वर्तमान और भविष्य के संपूर्ण परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखती रही हैं। जाहिर है उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद यूएपीए के बारे में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। फिर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवाद आदि फैलाने के साजिशकर्ताओं से कानूनी स्तर पर मुकाबला करना देश की सुरक्षा एजेंसियों के लिए आसान हो जाएगा।
[वरिष्ठ पत्रकार]
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