सम्पादकीय

जनरल रावत के बाद भारत को नया सीडीएस मिलने में देरी, नीति बदल रही है या नीयत

Gulabi Jagat
9 May 2022 12:35 PM GMT
जनरल रावत के बाद भारत को नया सीडीएस मिलने में देरी, नीति बदल रही है या नीयत
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ओपिनियन
संजय वोहरा |
आता है कि जब ऐसे हालात में भी चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) के बिना काम चल सकता है तो फिर इस ओहदे की ज़रूरत क्यों है ? क्या भारत के सीडीएस पद पर जनरल रावत ( Gen Bipin Rawat ) की नियुक्ति महज़ एक ' राजनीतिक उद्देश्य के लिए ' अथवा ' सैन्य अफसरशाही प्रबन्धन ' में एक प्रयोग भर था जो वैसे नतीजे नहीं दे सका जिसकी उम्मीद की जा रही थी ? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार इस ओहदे के लायक और जनरल रावत के सामान काबिलियत वाला कोई अफसर खोज या तय नहीं कर पाई ? लेकिन भारत में नए सीडीएस की तैनाती में देरी से उठने वाले सवालों और उससे जुड़ी परिस्थितियों की चर्चा से पहले ये सीडीएस की भूमिका और अहमियत को समझना ज़रूरी है.
भारत के चीफ ऑफ़ डिफेन्स स्टाफ की भूमिका
सेना के तीनों अंगों के साथ साथ देश की रक्षा – सुरक्षा से जुड़ी तमाम एजेंसियों में तालमेल बिठाने , सरकार को सैन्य मामलों में नीति निर्धारण में सलाह देने और युद्ध के समय में सरकार को अंतिम निर्णय लेने में सलाह मशवरा देने जैसीDelay in getting new CDS to India after General Rawat, is policy changing or intention जिम्मेदारियों वाले सीडीएस पद के गठन की ज़रूरत भारत में हमेशा से महसूस की जाती रही. यानि एक ऐसी फौजी शख्सियत जो युद्ध और सैन्य मामलों का अनुभव भी रखती हो और सरकार की उच्च अफसर शाही का हिस्सा भी हो. 1999 में पाकिस्तान के साथ हुए करगिल युद्ध की समीक्षा के लिए बनी समितियों ने तो इस पद की औपचारिक तौर पर सिफारिश भी की. लेकिन लम्बे समय तक ये पद फाइलों में दबा रहा.
सरकार ने 1 जनवरी 2020 को जनरल बिपिन रावत को भारत का पहला सीडीएस बनाते हुए जो काम और जिम्मेदारियां सौंपी उनमें प्रमुख थे : रक्षा मंत्री का सैन्य सलाहकार , वरिष्ठतम जनरल होने के नाते तीनों सेना की चीफ ऑफ़ स्टाफ कमेटी का स्थाई चेयरमेन ( ( chairman chiefs of staff committee), युद्ध के समय में तीनों सेनाओं की एकीकृत रक्षा स्टाफ की कमान सम्भालना , रक्षा मंत्रालय ( ministry of defence) में नये बनाए गए सैन्य मामलों के विभाग के सचिव का प्रभार , रक्षा कार्यक्रम में मेक इन इंडिया के प्रभारी के तौर पर रक्षा क्षेत्र में आत्म निर्भर भारत कार्यक्रम को बढ़ावा देना, सैन्य नीति और प्रबन्धन में सुधार,. कुल मिलाकर ये भी कहा जा सकता है कि भारत में सीडीएस की भूमिका सेना के तीनों अंगों को हथियार, प्रशिक्षण और स्टाफ मुहैया कराने संबंधी निर्णय लेने में रखी गई है.
सीडीएस के ओहदे को शक्तिशाली बनाकर सरकार ने देश की रक्षा को प्राथमिकता देने वाली और इससे जुड़े समुदाय की सबसे ज़्यादा खैरख्वाह सरकार के तौर खुद को पेश किया.
कौन बन सकता है सीडीएस
भारत में चीफ ऑफ़ डिफेन्स स्टाफ के पद पर नियुक्ति का फैसला कैबिनेट की नियुक्ति समिति ( appointment committee of cabinet ) करती है जिसमें व्यवहारिक रूप से प्रमुख निर्णय प्रधानमन्त्री कार्यालय ही लेता है. सेना के किसी भी अंग का प्रमुख रहा अधिकारी सीडीएस बन सकता है लेकिन मोटी शर्त यही है कि वो कार्यरत विभिन्न सेना प्रमुखों में सबसे वरिष्ठ हो और उम्र 65 वर्ष से कम हो. इस पद के लिए रिटायर्ड अधिकारी को भी मुफीद माना गया है. ऐसे में ये सोचना तो गलत है कि इन शर्तों को पूरा करने वाले अधिकारियों की कमी होगी. एक तरफ तो माना जा रहा है कि सरकार ने जनरल नरवणे को सीडीएस बनाना होता तो अब तक बना दिया गया होता हालांकि नियमों के हिसाब से अभी भी उनके लिए दरवाज़ा बंद नहीं हुआ है.
जनरल रावत की मृत्यु के बाद चेयरमैन , चीफ्स ऑफ़ स्टाफ कमेटी का जो पद जनरल नरवणे को, सबसे सीनियर सैन्य जनरल के तौर पर, सौंपा गया था . वो पद उनकी रिटायरमेंट के बाद किसी और जनरल को सौंपने का ऐलान सरकार ने अभी तक नहीं किया है. वर्तमान में से तीनों ही सेनाओं को कमान कर रहे अधिकारी एक ही बैच के समकक्ष हैं इसलिए इनमें से किसी का सीडीएस बनना तो मुश्किल है. यूं तो सीडीएस पद के लिए पूर्व एयर चीफ मार्शल आरकेएस भदौरिया को भी दावेदार सूची में माना जा रहा है जो 30 सितंबर को रिटायर हुए थे और अभी 63 वर्ष से कम आयु के हैं. बीते दो साल में रिटायर हुए कुछेक और अधिकारी भी इस नज़रिए से सीडीएस पद के योग्य माने जा सकते हैं. फिर ऐसे में सवाल उठाना लाज़मी है कि आखिर सीडीएस पद पर जनरल बिपिन रावत का उत्तराधिकारी तय करने में दिक्कत और देरी क्यों है ?
नीति बदल रही है या नीयत
ये बात तो किसी को भी हज़म नहीं होती कि देश की रक्षा से जुड़े सबसे ऊंचे इतने अहम ओहदे पर नई तैनाती का निर्णय लेने के लिए भी सरकार की इस समिति के पास वक्त नहीं है. फिलहाल सीडीएस के पद की जिम्मेदारियां सेना में अलग अलग अफसरों को बांट दी गई हैं जोकि एक तरह से काम चलाऊ तरीका है. जनरल रावत को बतौर सीडीएस जो प्रभार और शक्तियां दी गई थी वो कहीं न कहीं रक्षा मंत्रालय को चलाने वाली सिविल अफसरशाही के सैन्य मामलों में दखल , नियंत्रण और रुतबे को कम करता था. ऐसे में देरी के पीछे एक कयास ये भी लगाया जा रहा है कि नए सीडीएस की तैनाती की घोषणा से पहले उसकी शक्तियों और भूमिका पर पुनर्मंथन या सलाह मशवरा किया जा रहा है. शुरू में सीडीएस के पद को पांच स्टार वाले जनरल का पद बनाने की बात चली थी लेकिन जनरल रावत चार स्टार वाले थे.
हालांकि इस रैंक का जनरल भी किसी मंत्रालय के सचिव के बराबर होता है लेकिन सीडीएस को रक्षा सचिव के नीचे वाले दो अन्य सचिवों के समकक्ष ही माना गया है. नीति के अलावा राजनीति के पहलू से भी इसमें देरी की वजह तलाशी जा रही है. दो अधिकारियों की वरिष्ठता को दरकिनार करके सेनाध्यक्ष बनाए गए जनरल रावत को रिटायर्मेंट के ऐन मौके पर सीडीएस बनाना क्या सतारूढ़ सियासी दल की तब की किसी राजनीतिक ज़रूरत का हिस्सा तो नहीं था. वो ज़रूरत अब पूरी हो चुकी है या उसे पूरा करने के लिए वांछित 'पर्सनेलिटी ' का अभाव सीडीएस के ओहदे को खाली रखे हुए है. क्योंकि जनरल रावत पहले सीडीएस थे इसलिए उनके उत्तराधिकारी में भी उनके जैसे व्यक्तित्व वाली छवि होना भी एक तरह का मापदंड माना जा सकता है. स्वाभाविक है कि नये सीडीएस के कामकाज , स्टाइल और उपयोगिता की तुलना पुराने सीडीएस से की ही जाएगी.
सीडीएस की अहमियत बताने वाले संस्थानों की चुप्पी अखरने वाली
दूसरी तरफ हैरानी की बात है कि सीडीएस के ओहदे को बेहद अहमियत वाला बताते हुए सैन्य प्रचार तंत्र के वो तमाम स्तम्भ शांत हैं जो सामरिक महत्व के गूढ़ विषयों पर प्रशिक्षण से लेकर नीति निर्धारण के मुद्दों पर भी मुखर होते रहते है. कथित थिंक टैंक के तौर पर प्रचारित और सम्मानित ये संस्थान ऐसे विषयों पर नंबरदार की तरह दखल रखते हैं. हर विषय पर सेमिनार , वेबिनार , चर्चाएं और व्याख्यान करने वाले इन संस्थानों का सीडीएस के ओहदे के पद के अब भी खाली रहने पर चुप्पी साधे रखना एक अलग तरह की किस्सागोई को जन्म देता है. इन संस्थानों में ज़्यादातर वरिष्ठ और विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ अनुभवी अधिकारी है जो सैन्य समुदाय का बौद्धिक खज़ाना समझे जाते हैं. सीडीएस के पद पर नई तैनाती की चर्चाएं सोशल मीडिया पर ज़रूर हो रही हैं लेकिन वे भी सवाल उठाने तक सीमित हैं . कुछेक इस विषय को राजनीतिक चश्में से देखते हुए टिप्पणी कर रहे हैं.
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