सम्पादकीय

रक्षा क्षेत्र : सुधार के साथ चुनौतियां कम नहीं, भारत की सेना में सीडीएस पद की स्थापना के मायने

Neha Dani
27 April 2022 1:47 AM GMT
रक्षा क्षेत्र : सुधार के साथ चुनौतियां कम नहीं, भारत की सेना में सीडीएस पद की स्थापना के मायने
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विशेष रूप से सेवाओं को इन पहलुओं को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि ये सुधारों की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिरक्षा से जुड़े एक महत्वाकांक्षी विचार पर काम करना शुरू किया। चीफ ऑफ द डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) पद की स्थापना कर, जिनके पहले पदाधिकारी दिवंगत जनरल बिपिन रावत थे, सरकार ने भारतीय सेना में आजादी के बाद अब तक का सबसे बड़ा बदलाव किया। इस पहल के केंद्र में सैन्य बलों के एकीकरण से जुड़ा विमर्श है। एकीकरण ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें थल सेना, वायु सेना और नौसेना अपने एकल सेवा दृष्टिकोण को त्याग कर एक संयुक्त दृष्टिकोण के साथ काम करती हैं।

ऐसा एकीकरण बड़ी सेनाओं वाले अमेरिका और चीन में हो चुका है। यह एक जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि इसके साथ चुनौतियां भी जुड़ी हुई हैं। सीडीएस के सृजन ने भारतीय सेना के भीतर बहस छेड़ दी है। इसमें सबसे अहम बहस सीडीएस की भूमिका से जुड़ी है। दिसंबर, 2019 के नोट में सरकार ने स्पष्ट रूप से संकेत कर दिया था कि सीडीएस खुद सैन्य कमान का इस्तेमाल नहीं करेगा, ताकि राजनीतिक नेतृत्व को निष्पक्ष सलाह दे सके। इसका मतलब यह हुआ कि सीडीएस कमांड चेन का हिस्सा नहीं होगा।
कमान की यह शृंखला, किसी भी सैन्य पदानुक्रम में, सेना में एक बटालियन या इसके समकक्ष, वायु सेना में एक स्क्वाड्रन, या नौसेना में एक जहाज से संगठन के शीर्ष सोपानक विस्तारित होती है। भारत में इसके शीर्ष पर तीनों सेवाओं के प्रमुख होते हैं। हालांकि, एकीकृत मुख्यालय (जिसमें सभी सेवाओं के प्रतिनिधि होते हैं) के निर्माण के साथ, जैसी कि परिकल्पना और घोषणा की गई है, कोई भी प्रमुख उन्हें कमांड देने की स्थिति में नहीं होगा। और तीनों सेवाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला सीडीएस भी उन पर सैन्य कमान का प्रयोग नहीं करेगा।
इस व्यवस्था में सैन्य कमांडर राजनीतिक निर्णय लेने वालों के साथ कैसे काम करेंगे? भारतीय सेना में एकीकृत सैन्य ढांचे का निर्माण अपेक्षाकृत देरी से हुआ है। एक ही व्यक्ति यानी सीडीएस को कमान और तीनों सेवाएं सौंपने को लेकर गलतफहमी थी। इसी वजह से दशकों से पक्ष में बार-बार सिफारिश किए जाने के बावजूद इस पर अमल नहीं हो सका था। सीडीएस नियुक्त कर इस सरकार ने इन आपत्तियों को सफलतापूर्वक दूर किया है। हालांकि इस संबंध में स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिए सरकार के पास दो प्रमुख विकल्प हैं, फिर भी सीडीएस की कामकाजी भूमिका स्पष्ट नहीं है।
सीडीएस के लिए पहला विकल्प कमांड शृंखला का हिस्सा बने बिना सलाहकार की भूमिका में रहना है। इस मामले में, जो सबसे ऊंचा संयुक्त ढांचा बनेगा (प्रस्तावित संयुक्त थिएटर कमांड) वह रक्षा मंत्री को रिपोर्ट करेगा। अमेरिका में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व सेना से संपर्क करता है, यह कुछ मायनों में उसी तरह का है, जिसमें ज्वाइंट इन चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (सीडीएस के समकक्ष) के अध्यक्ष की केवल समन्वय और सलाहकार भूमिका होती है।
दूसरा विकल्प सीडीएस और सेवा प्रमुख की टीम को कमांड शृंखला में एक सामूहिक कमांड निकाय के रूप में कार्य करने के लिए लाना है, सीडीएस जिसका प्रमुख होगा। यह समूह जो भारतीय संदर्भ में चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (सीओएससी) कहा जाता है, नागरिक नेतृत्व और अधीनस्थ सैन्य कमांडरों के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका में होगा। यह सुनिश्चित करेगा कि सीडीएस के पास एक स्पष्ट शासनादेश है और वह इसके निष्पादन के लिए जिम्मेदार है। हालांकि ऐसा करना सरकार द्वारा दिसंबर, 2019 में जारी दिशा-निर्देश (जिसमें सुधार की आवश्यकता है) के विपरीत है।
दो कारणों से कम से कम निकट भविष्य में सीडीएस के नेतृत्व वाला सशक्त सीओएससी भारत के लिए ज्यादा अनुकूल होगा। पहली वजह यह है कि चालू एकीकरण की प्रक्रिया के पूरे होने के दौरान कुछ मतभेद हो सकते हैं, जिससे एक पेशेवर निकाय की अतीत के मुकाबले ज्यादा निगरानी की जरूरत होती है। अंततः जब एक बार नवनिर्मित एकीकृत संरचनाएं पूरी तरह काम करने लगें, तब सीडीएस और सीओएससी को समन्वय और सलाहकार की भूमिका देने पर विचार किया जा सकता है।
दूसरा, ऐसा कदम-दर-कदम आगे बढ़ने वाला दृष्टिकोण बदलाव को आसान बना देगा, विशेष रूप से तब, जब भारत पाकिस्तान व चीन के साथ सीमा विवाद की गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है। यदि सीडीएस के नेतृत्व वाली सीओएससी कमांड की जिम्मेदारियां लेती है, तो यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि सेवाओं ने जिस विशिष्टता को बनाए रखा है, वे बेहतर ढंग से एकीकृत हों। सेवाओं के बीच अंतर सैनिकों, नाविकों और एयरमैन की भर्ती के शैक्षिक स्तर के साथ शुरू होता है।
जहां सेना में दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद भी सिपाहियों की भर्ती की जाती है, वहीं नाविकों और वायुसैनिकों को गणित और भौतिकी विषयों के साथ 12वीं उत्तीर्ण करने की जरूरत होती है। सेवाओं के भीतर भी इस तरह के मतभेद जारी हैं। मिसाल के तौर पर जहाज पर आदेश अंग्रेजी में पारित किए जाते हैं, जिसमें विभिन्न कार्यों का वर्णन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले तकनीकी शब्द शामिल होते हैं। दूसरी ओर सेना में व्यापक भाषायी अंतर के बावजूद, सैनिकों के साथ संवाद करते समय हिंदी का अधिक उपयोग किया जाता है।
इसके अलावा अनेक वर्षों में प्रत्येक सेवा ने अपनी स्थिति के मुताबिक सेवा के मापदंड तय किए हैं। वायु सेना के लड़ाकू पायलट 54 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होते हैं, जबकि नौसेना अधिकारी 56 साल में और थल सेना अधिकारी 54 साल की उम्र में चार साल की फिर से सेवा के प्रावधान के साथ सेवानिवृत्त होते हैं। नौसेना के जो अधिकारी कैप्टन रैंक (थल सेना में कर्नल के समकक्ष) तक पदोन्नत होते हैं, वे अगली रैंक कोमोडोर पर अपने आप पदोन्नति के योग्य हो जाते हैं। हालांकि थल सेना और वायुसेना में ऐसा नहीं होता है। इनके साथ ही कई अन्य पहलुओं को लगातार प्रयासों से दूर किया जा सकता है।
असल में सेवाओं में भेद करती है, इन सेवाओं की विशिष्ट कार्य-संस्कृति। मसलन, एक सैनिक जो आतंकवाद विरोधी कार्रवाई का काम करता है, वह उस व्यक्ति से बहुत अलग तरीके से सोचता और कार्य करता है, जिसने शांतिकाल के नियमों का अनुसरण किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि संरचनात्मक एकीकरण और दिल और दिमाग में समन्वय की कोई उम्मीद नहीं है। इसके उलट इन चुनौतियों से पता चलता है कि नीति नियंताओं और विशेष रूप से सेवाओं को इन पहलुओं को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि ये सुधारों की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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