सम्पादकीय

जैविक युद्ध का गहराता खतरा

Subhi
15 Nov 2022 4:44 AM GMT
जैविक युद्ध का गहराता खतरा
x
यहां सवाल उठता है कि खतरनाक विषाणु को आखिर और खतरनाक बनाने का औचित्य क्या है? रूस ने हाल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को तीन सौ दस पन्नों का एक मसविदा सौंपा है। इसके जरिए उसने आरोप लगाया है कि अमेरिकी रक्षा विभाग की मदद से यूक्रेन की प्रयोगशाला में मानव समुदाय के लिए घातक जैविक हथियार बनाने की तैयारी चल रही है

प्रमोद भार्गव; यहां सवाल उठता है कि खतरनाक विषाणु को आखिर और खतरनाक बनाने का औचित्य क्या है? रूस ने हाल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को तीन सौ दस पन्नों का एक मसविदा सौंपा है। इसके जरिए उसने आरोप लगाया है कि अमेरिकी रक्षा विभाग की मदद से यूक्रेन की प्रयोगशाला में मानव समुदाय के लिए घातक जैविक हथियार बनाने की तैयारी चल रही है।

रूस ने परिषद से आग्रह किया है कि इस प्रस्ताव को मंजूर कर इस मुद्दे की जांच करवाई जाए। लेकिन भारत सहित सुरक्षा परिषद के दस अस्थायी सदस्यों ने इस प्रस्ताव से दूरी बना ली है। रूस को केवल चीन का समर्थन मिला है, जबकि अमेरिका, फ्रांस व ब्रिटेन ने प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया और रूस का प्रस्ताव धरा रह गया। हालांकि रूस ने कहा है कि 28 नवंबर से 16 दिसंबर तक स्विट्जरलैंड के जिनेवा में होने वाले जैविक हथियार समीक्षा सम्मेलन में वह इस मुद्दे को फिर से उठाएगा। उसने दावा किया कि युद्ध शुरू होने के साथ ही यूक्रेन में अमेरिकी जैविक हथियार प्रयोगशालाएं खतरनाक वायरसों को जैविक हथियार में बदलने के लिए सक्रिय हो गई थीं।

कोरोना विषाणु के अस्तित्व में आने के बाद से ही ये आशंकाएं बनी हुई हैं कि जैव प्रौद्योगिकी में सक्षम दुनिया के देश जैविक हथियार बनाने में जुटे हैं। इन हथियारों से कम खर्चे पर बड़ी ताबाही मचाई जा सकती है। रूस खुद अत्यंत खतरनाक इबोला विषाणु को जैविक औजार के रूप में निर्माण की तैयारी में लगा है। इस गोपनीय परियोजना को 'टोलेडो' का नाम दिया है। टोलेडो स्पेन का एक शहर है, जहां प्लेग फैलने से बड़ी संख्या में लोग काल के गाल में समा गए थे। इबोला के साथ-साथ मारबर्ग विषाणु को भी रूस ने टोलेडो परियोजना में शामिल किया हुआ है। इस विषाणु से संक्रमित लोगों में से अट्ठासी फीसद की मौत हो जाती है।

दरअसल चीन से उपजे कोरोना विषाणु ने जैविक हथियारों का नया रास्ता खोल दिया है। इस तरह के औजारों में जीवाणु, विषाणु, फफूंद और जैविक आविश (पेड़-पौधों व जंतुओं में पैदा होने वाले जहरीले पदार्थ) जैसे संक्रमण फैलाने वाले जीवाणुओं और विषाणुओं का इस्तेमाल किया जाता है। जिस क्षेत्र में भी इनकी मौजूदगी हो जाती है, वहां ये बहुगुणित होकर तेजी से फैलते हैं और लोगों को मौत के घाट उतारते चलते हैं। सैन्य-युद्ध में जैविक औजारों का प्रयोग पूरी तरह निषिद्ध है। इसीलिए इन पर नियंत्रण के लिए जैविक और घातक औजार संधि (बीटीडब्लूसी) अस्तित्व में है, लेकिन सक्षम देश चोरी-छुपे जैविक हथियार बनाने से न तो बाज आ रहे हैं और न ही इस्तेमाल से।

जैविक हथियार बनाने में आमतौर पर उन अदृश्य सूक्ष्म जीवों को प्रयोग में लाया जाता है, जो विभिन्न सतहों पर अनेक दिन तक जीवित रहते हैं। इनके अलावा कीटाणुओं, फफूंदों और जहरीले जीव-जंतुओं व पेड़-पौधों से विष निकाल कर भी जनसंहार के हथियार बनाए जाते हैं। चूंकि ये हथियार बिना कोई धमाका किए कुछ दिनों बाद लोगों में बीमारी के रूप में उभरते हैं, इसलिए इसका एकाएक अंदाजा लगाना मुश्किल होता है।

जब तक इसकी पहचान होती है, तब तक यह कई बस्तियों को तबाह कर चुका होता है। जैविक हमला खाद्य पदार्थों, फसलों और जल-स्रोतों के माध्यम से भी किया जाता है। जल में विषाणु मिला कर पूरे जल-स्रोत को जहरीला बना दिया जाता है। जीवाणु-विषाणु से संक्रमित व्यक्ति को स्वस्थ आबाद इलाकों में भेज कर भी संक्रमण फैलाया जाता है। पत्रों के जरिए भी संक्रमण फैलाने की जानकारियां हैं। हथियार प्रणाली के रूप में जैविक पाउडर के बम, कीटाणु बम और स्प्रे गन का इस्तेमाल बीमारी फैलाने में किया जाता है।

जैविक युद्ध का वैसे तो कोई इतिहास नहीं मिलता, लेकिन धर्म व इतिहास की पुस्तकों में ऐसे संकेत जरूर मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भी लोग जैविक हथियारों के बारे में ज्ञान रखते थे। भगवान कृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में जिस एरका घास को औजार के रूप में प्रयोग कर अपने वंशजों का नाश किया था, वह कुछ और नहीं जैविक हथियार का ही रूप था। बारहवीं शताब्दी के हत्ती साहित्य में जैविक युद्ध का विवरण है, जिसमें तुलारेमिया नामक संक्रामक बुखार के रोगियों को युद्ध में भेजा गया था।

विषैले तीरों का जिक्र रामायण-महाभारत के साथ दुनिया के अन्य प्रमुख युद्धों में मिलता है। यूनान में हुए धर्मयुद्धों में प्राचीन किराह प्रांत के जल-स्रोतों में विषैले पौधों को मिलाने की बात कही गई है। ऐसी धारणा है कि 1346 में काफा (थियोडोशिया) पर कब्जे की लड़ाई में मंगोल शासकों ने प्लेग से मरे जवानों का उपयोग जैविक हथियार के रूप में किया था। इसी तरह 1785 में ला काले पर नियंत्रण के लिए ट्यूनीशियाई सेना ने वस्त्रों के माध्यम से संक्रमण फैला दिया था।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने दुश्मन देशों की फसलें बर्बाद करने और मवेशियों को संक्रमित करने के लिए एंथ्रेक्स व ग्लैंडर्स को जरिया बनाया था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और अमेरिका ने तुलारेमिया, एंथ्रेक्स, ब्रूसेलोसिस व बाट्यूलिज्म के जरिए जैविक हथियार बनाए थे। चूंकि जैविक युद्ध बेहद घातक है, इसलिए 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से जैविक हथियार संधि वजूद में आई, जिसे एक सौ सत्तर देशों ने मान्यता दी। इस संधि के तहत जैविक हथियारों के उत्पादन, एकत्रीकरण और प्रयोग पर प्रतिबंध हैं, लेकिन रूस और चीन जैसे देश गोपनीय ढंग से जैविक हथियारों के निर्माण में लगे हैं। अब अमेरिका भी आरोपों के घेरे में है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने मानव समुदाय को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से जो चेतावनियां दी थीं, उनमें एक चेतावनी आनुवांशिक अभियंत्रिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) से खिलवाड़ करना भी है। आजकल खासतौर से चीन, रूस और अमेरिकी वैज्ञानिक विषाणु और जीवाणु (बैक्टीरिया) से प्रयोगशालाओं में छेड़छाड़ कर नए विषाणु व जीवाणुओं के उत्पादन में तो लगे ही हैं, बल्कि उनकी मूल प्रकृति में बदलाव कर उन्हें और ज्यादा घातक बना रहे हैं। इनका उत्पादन मानव स्वास्थ्य के हित के बहाने किया जा रहा है। लेकिन ये कोरोना की तरह ही बेकाबू होते रहे तो दुनिया नए संकटों में घिर जाएगी।

अमेरिका के विस्कोसिन-मेडिसन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक योशिहिरो कावाओका ने स्वाइन फ्लू के विषाणु के साथ छेड़छाड़ कर उसे इतना ताकतवर बना डाला कि मनुष्य शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। यहां सवाल उठता है कि खतरनाक विषाणु को आखिर और खतरनाक बनाने का औचित्य क्या है? कावाओका का दावा है कि उन्होंने विषाणु को ऐसा बना दिया है कि मानव की रोग प्रतिरोधक प्रणाली से बच निकले। कावाओका ने यह भी दावा किया था कि उन्होंने 2014 में रिर्वस जेनेटिक्स तकनीक का प्रयोग कर 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू जैसा जीवाणु बनाया है, जिसकी वजह से प्रथम विश्व युद्ध के बाद पांच करोड़ लोग मारे गए थे।

पोलियो, रैबिज और चिकनपॉक्स जैसे घातक रोगों के वैक्सीन पर उल्लेखनीय काम करने वाले वैज्ञानिक स्टेनली प्लाटकिन ने भी कावाओका के काम के औचित्य पर सवाल उठाते हुए कहा था, ऐसी कोई सरकार या दवा कंपनी है, जो ऐसे रोगों के विरुद्ध वैक्सीन बनाएगी जो वर्तमान में मौजूद ही नहीं हैं? इन खतरनक वायरसों के बारे में रायल सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष व ब्रिटिश सरकार के पूर्व विज्ञान सलाहकार लार्ड-मे ने भी इन प्रयोगों पर गहरी आपत्ति जताई थी। उन्होंने इन प्रयोगों को पागल करार देते हुए, यहां तक कहा था कि यह प्रक्रिया बेहद खतरनाक है और यह खतरा प्राणियों में मौजूद विषाणु से नहीं, बल्कि अत्यधिक महत्वाकांक्षी वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं से निकलने वाले विषाणुओं से है।


Next Story