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कब कोई ट्रेन चल दे पता नहीं और कब कोई स्पीड से आ रहा डिब्बा उस व्यक्ति को कुचलते हुए निकल जाए पता नहीं
शंभूनाथ शुक्ल कब कोई ट्रेन चल दे पता नहीं और कब कोई स्पीड से आ रहा डिब्बा उस व्यक्ति को कुचलते हुए निकल जाए पता नहीं. इसलिए यहां पर पुल बनाने का फैसला किया गया. जब वह पुल बन रहा था तब अक्सर मैं उस पुल के ऊपर जाता और पुल के नीचे से धड़धड़ाकर भागती ट्रेनों को देखा करता जो अपना धुआं उड़ाती क्षितिज में विलीन हो जाया करतीं. वन अप और टू डाउन कालका मेल जब उस पुल के नीचे से गुजरतीं तो सारी ट्रेनें खड़ी हो जाया करतीं, मानों उसे सलामी दे रही हों और देती भी क्यों न भारत का भविष्य लिखने वाली वही पहली ट्रेन थी जिसने व्यापार और उद्योग की शक्ल बदल दी.
कालका मेल की धाक!
कालका मेल वह ट्रेन थी जिसने पंजाब, हरियाणा और मारवाड़ से निकले व्यापारियों को नई पनप रही भारत की राजधानी कलकत्ता में जाकर व्यापार करने को उकसाया. हालांकि यह एक प्रश्न उठता है कि भला कोई ट्रेन कैसे किसी को उकसा सकती है. पर यह भी कटु सत्य है कि पलायन को ट्रेनें बाकायदा उकसाती हैं. वे एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ती हैं. अब कालका-हावड़ा के बीच करीब दो हजार किमी की दूरी है और कोई भी व्यक्ति एक कोने से दूसरे कोने में आ-जा सकता है. जब यह ट्रेन शुरू हुई यानि कि 1866 में तब ईस्ट इंडिया कंपनी का सारा ध्यान भारत में अपना माल खपाने और यूरोप के उत्पादों के लिए नया बाजार तलाश करने की थी.
कालका मेल (फाइल फोटो)
उन्हें भारत में सस्ते मजदूर मिल रहे थे और बिचौलिये व्यापारी भी तथा हर तरह के उद्योगों को विकसित करने के लिए अनुकूल वातावरण भी. भारत का एक बड़ा हिस्सा समुद्र तटीय है और ऊष्ण कटिबंधीय इलाका है जो जूट और कपड़े के लिए मुफीद है. इसके अलावा मैदानी इलाके में भरपूर गर्मी तथा कृषि के लिए खूब उपजाऊ है. फलों की पट्टी है खासकर आम के लिए तो यह क्षेत्र स्वर्ग है. एक तरह से भारत में कृषि उत्पाद और बागवानी की भरपूर संभावनाएं उन्होंने देखीं और नया माल खपाने हेतु बाजार भी. एक तरफ तो खूब धनाढ्य राजे-महाराजे थे और बड़े से बड़े व्यापारी जिनके पास न तो पैसे की कमी थी न उनके शौक कमतर थे. यही कारण रहा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों और अफसरों ने एक तरफ तो इन राजा-महाराजाओं और व्यापारियों को यूरोपीय माल खपाने की जिम्मेदारी सौंपी तो दूसरी तरफ मजदूरों को इतनी कम पगार पर रखा कि वे सिवाय पेट भरने के और कुछ सोच ही न पाएं.
पहले सौदागर आए
अंग्रेजों को व्यापार बढ़ाने के लिए इस कालका मेल ने अपना बड़ा रोल अदा किया. इससे एक तरफ तो मारवाड़ी और खत्री व्यापारी आए, तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर. यही कारण है कि यह पहली ट्रेन थी जिसमें ढेर सारे जनरल कोच और पर्याप्त संख्या में फर्स्ट और सेकंड तथा इंटर व थर्ड क्लास के कोच जोड़े गए. ताकि हर एक को इसमें चलने में सुविधा रहे. यह वह ट्रेन थी जिसमें वायसराय सफर करता था और जब भी गर्मी आती तथा राजधानी कलकत्ता से शिमला शिफ्ट होती. पूरी अंग्रेज सरकार इसी गाड़ी में बैठकर चलते. यही कारण रहा कि यह ट्रेन भारत का भाग्य बदलने में बड़ी अहम रही.
पूरी अंग्रेज सरकार इसी गाड़ी में बैठकर कलकत्ता से शिमला शिफ्ट होती. (कालका मेल)
तब कलकत्ता में जूट उद्योग पनप रहा था और बंगाल का तटवर्ती इलाका जूट के लिए मुफीद था. पर इसके लिए खूब मजदूर चाहिए थे तथा कारखानों को लगाने के लिए खूब जमीन. यह सब बंगाल में मिला इसीलिए पूरे बंगाल में जूट उद्योग पनपा तो उसके साथ ही जूट के दलाल भी. चाय उद्योग पनपा और पूरे देश में उसका बाजार तैयार हुआ. मगर इन उद्योग-धंधों को पनपाने के लिए किसान को दर बदर कर दिया गया. दरअसल किसान से नकदी में लगान वसूली के चलते बंगाल के किसान कलकत्ता आकर मजदूरी करने लगे और इतने कम पैसों पर कि ईस्ट इंडिया के एक सामान्य किरानी के पास भी दस-दस नौकर हुआ करते थे. यही वजह रही कि मजदूरों की यहां भरमार थी. कलकत्ता मजदूरों की भी मंडी बनती चली गई.
मालगाड़ी की उपेक्षा
जब गोविंद नगर मोहल्ले में रेलवे ब्रिज बना तब मैं अक्सर उसके ऊपर चढ़कर नीचे से गुजरती कालका मेल को देखा करता जो बिना ब्रेक के धड़धड़ाती हुई चली जाती. उस समय भी उसमें जो लोग सफर करते थे वे कोई आम यात्री नहीं होते थे. या तो बड़े व्यापारी अथवा अधिकारी या मंत्रीगण. मगर तब तक रेलवे को हवाई सेवाओं ने पस्त कर दिया था. पर रेलवे के जरिये माल ढुलाई तब भी रेल मार्ग से ही सस्ती पड़ती थी. इसलिए व्यापारी चाहते थे कि गुड्स ट्रेनें तो चलें पर पैसेंजर ट्रेनों की आवाजाही कम की जाए. लेकिन आजादी के बाद कोई भी रेलमंत्री यह करने का साहस नहीं कर सकता था और इसकी वजह थी कि ऐसा करने से उसकी लोकप्रियता शून्य पर आ जाती.
यही कारण रहा कि माल की ढुलाई की बजाय पैसेंजर ट्रेनों को वरीयता दी गई. और उनके किराये बढ़ाने पर भी जोर नहीं दिया गया. इसका नतीजा यह निकला कि रेल घाटे में आती चली गई और माल ढुलाई मंहगी होती गई. इसका लाभ व्यापारियों को मिला. उन्होंने माल की कमी का रोना रोकर दाम बढ़ाए. यह एक ऐसा व्यतिक्रम था जिसने भारत में रेल सेवा को अपरिहार्य तो बना दिया मगर उसके घाटे से उबरने का कभी कोई प्रयास नहीं किया गया. लेकिन एक दिन तो यह संकट आना ही था कि रेलवे को अपने पैरों पर खड़ा होने की मशक्कत करनी पड़ती. अब जब डीएफसी पर गुड्स ट्रेन दौड़ेंगी तब शायद परिदृश्य बदले.
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