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संसद और विधानसभाओं की घटती प्रासंगिकता
सोर्स- Jagran
डा. एके वर्मा : देश में संसद (Parliament) सबसे बड़ी पंचायत है। उसके निर्णय पूरे देश पर बाध्यकारी हैं। वह लोकतंत्र की धुरी है, जो कार्यपालिका अर्थात प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को जन्म देती है। कार्यपालिका सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है। संविधान ने संसदीय व्यवस्था में संसद को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया। संघीय व्यवस्था के चलते यही बात राज्यों में विधानसभाओं पर भी लागू होती है, लेकिन आज संसद और विधानसभाओं के मूल चरित्र में नकारात्मक बदलाव देखे जा रहे हैं। इससे उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगा है।
ये संस्थाएं शोर-शराबे, तर्कहीन वाद-विवादों, आरोप-प्रत्यारोप और धरने-प्रदर्शन का मंच बनती जा रही हैं। कभी-कभी वहां हिंसा के भी दर्शन होने लगे हैं। विरोध, धरना, प्रदर्शन के लिए तो हर शहर में स्थान चिह्नित हैं। आखिर सांसद संसद में जाकर अपने विरोध को विचारों में क्यों नहीं व्यक्त करते? संसद और विधानसभाओं के अंदर और बाहर बैनर, पोस्टर और तख्तियां लेकर सांसद और विधायक अपना विरोध दर्ज क्यों करा रहे हैं? क्या उन्हें बोलना नहीं आता या उनके पास विरोध का कारण नहीं होता?
अक्सर विदेशी शिष्टमंडल संसद की दीर्घाओं में बैठकर हमारे लोकतंत्र को समझने आते हैं। क्या छवि लेकर जाते होंगे वे? संसद की कार्यवाही का सजीव प्रसारण होने से जनता सांसदों के विचार, भाषा और व्यवहार को देखकर हतप्रभ और आहत होती है। राजनीतिक संस्कृति में गिरावट इसका बड़ा कारण है। यह 'गांधीवादी संस्कृति' पर 'नेहरूवादी संस्कृति' के वर्चस्व का परिणाम है। इसी के चलते राजनीति में अहिंसा पर हिंसा भारी पड़ गई और देश में राजनीति पर अपराधियों की पकड़ बढ़ती गई, जिससे ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक आम आदमी हाशिये पर आ गया।
इन दिनों नया संसद भवन बन रहा है, जिसमें 888 लोकसभा और 384 राज्यसभा सदस्य बैठ सकेंगे। संविधान के 84वें संशोधन ने संसद और विधानसभाओं की संख्या पर 2031 की जनगणना तक विराम लगा रखा है। 1971 में देश की जनसंख्या 56.8 करोड़ थी और एक सांसद लगभग 10.05 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता था। आज जनसंख्या 130 करोड़ से अधिक है। इससे एक सांसद पर औसतन 24 लाख से अधिक जनसंख्या का बोझ है। जब 2031 की जनगणना के बाद संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाएगा तो सांसदों की संख्या बढ़ाकर लगभग दोगुनी करनी पड़ेगी। इसीलिए विशाल संसद की आवश्यकता है, ताकि 2031 के बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में चुने जाने वाले सांसदों को बैठाया जा सके
यही स्थिति विधानसभाओं में भी होने वाली है। लगभग प्रत्येक विधानसभा में विधायकों की संख्या दोगुनी हो सकती है। इससे सांसदों और विधायकों पर जनप्रतिनिधित्व का बोझ तो कम होगा, पर जनता पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा। सवाल है कि क्या जनता को इसका कोई लाभ भी मिलेगा? क्या आगे आने वाले जनप्रतिनिधि अपने विधायी उत्तरदायित्वों का ठीक से निर्वहन कर पाएंगे?
वर्तमान परिदृश्य कोई आशा नहीं जगाता। जिस प्रकार विधानमंडलों में मुद्दों पर बहसें कम हो रही है, विधेयकों को प्राय: आनन-फानन पास कराना सरकार की मजबूरी हो गई है, जनप्रतिनिधि सार्थक बहस में भाग लेने से बचने लगे हैं और व्यक्तिगत आक्षेपों में उलझ रहे हैं, उससे राजनीतिक संस्कृति में चिंताजनक गिरावट आई है। यह गिरावट वैचारिक, भाषाई और संसदीय आचरण में व्यक्त हो रही है। इसे देखकर पूरा देश चिंतित है। यदि आने वाले समय में यही परिदृश्य बना रहता है तो संसद और विधानसभाएं अपना औचित्य खो देंगी। अब तो राजनीतिक कटुता के चलते संसदीय समितियों में भी दलगत भावना से ऊपर उठ कर बहसें नहीं हो पातीं। इससे सरकार विधेयकों को संसदीय समितियों में भेजने से बचने लगी है।
संसद और विधानसभाओं की गिरती साख के पीछे केवल राजनीतिक संस्कृति की गिरावट ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका के निर्णय और संविधान के संशोधन भी जिम्मेदार हैं। जबसे सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) में 'संविधान के मूल ढांचे' का सिद्धांत प्रतिपादित किया तबसे संसद और विधानसभाओं के बनाए कानूनों पर न्यायपालिका की अदृश्य तलवार लटकती रहती है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह नहीं बताया कि मूल ढांचा अंतिम रूप से है क्या? संविधान के 52वें संशोधन अर्थात दलबदल निरोधक कानून, 1985 ने जनप्रतिनिधियों को अपनी-अपनी पार्टी का बंधक सा बना दिया है।
इतना ही नहीं, दलबदल पर संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के निर्णयों पर सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पुनर्निरीक्षण के अधिकार की पुनर्स्थापना कर उन पर न्यायपालिका के प्रभुत्व की स्थापना कर दी है। स्वयं कार्यपालिका ने भी व्यवस्थापिका पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। यह समस्या अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में प्रतिनिधि सभा और सीनेट में कोई गंभीर बहस नहीं हुई। इंग्लैंड में हाल में आम सहमति के अभाव के चलते प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा। ऐसा ही हाल कई अन्य लोकतांत्रिक देशों में है।
संसद की घटती प्रासंगिकता के पीछे राजनीतिक दलों में खत्म होता लोकतंत्र जिम्मेदार है। अधिकतर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को निजी उद्यम की भांति चलाया जा रहा है, जिसमें कांग्रेस, सपा, बसपा, टीएमसी, टीआरएस, लोजपा, शिवसेना, द्रमुक, अन्नाद्रमुक और राजद आदि दल शामिल हैं। वे जनता को केंद्र में रख कर राजनीति नहीं करते। उन्हें केवल अपना स्वार्थ दिखाई देता है, जिसे वे 'जनहित' के आवरण में पेश करते हैं। इसीलिए उनका आज मोदी सरकार से हर मुद्दे पर टकराव है।
यदि भाजपा गलत है तो उसका मूल्यांकन जनता करेगी और आगामी चुनावों में उसे उसी के अनुरूप पुरस्कार या दंड देगी। आज राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, राष्ट्रनिर्माण, जनहितकारी कार्यों, अर्थव्यवस्था और विकास आदि के अनेक गंभीर मुद्दे हैं, जिन पर सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री को ध्यान देना पड़ता है। इंग्लैंड में भी संसदीय व्यवस्था का फोकस संसद न होकर प्रधानमंत्री है, जिसे एचआर क्रासमैन ने 'प्राइम मिनिस्टीरियल' सरकार की संज्ञा दी थी। भारत में भी संसद और विधानसभाओं की घटती प्रासंगिकता ब्रिटेन के 'वेस्टमिंस्टर' माडल की तर्ज पर ही है।
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Rani Sahu
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