सम्पादकीय

श्रम बल में घटती महिला भागीदारी

Subhi
20 July 2022 5:01 AM GMT
श्रम बल में घटती महिला भागीदारी
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तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 29.2 फीसद है। शीर्ष पदों तक महिलाओं के पहुंचने की दर तो और भी खराब है। शीर्ष पदों पर महिलाओं का नेतृत्व सिर्फ 14.6 फीसद है। पिछले साल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय कंपनियों में सीईओ और प्रबंध निदेशक के पद पर महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 3.8 था।

सुविज्ञा जैन: तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 29.2 फीसद है। शीर्ष पदों तक महिलाओं के पहुंचने की दर तो और भी खराब है। शीर्ष पदों पर महिलाओं का नेतृत्व सिर्फ 14.6 फीसद है। पिछले साल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय कंपनियों में सीईओ और प्रबंध निदेशक के पद पर महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 3.8 था।

पिछले कुछ दशकों में दुनियाभर में महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की बातें खूब हुई हैं। लेकिन इस बात की चर्चा कम ही हुई कि आखिर महिलाओं की स्थिति में सुधार कितना आया। अलबत्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई संगठन पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा लगाने की कुछ कोशिश जरूर करते रहते हैं और दुनियाभर की सरकारों को सुझाव देते रहते हैं। यह सिलसिला भी कई दशकों से चलता आ रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि आज दिन तक स्थिति जस की तस ही दिखाई देती है।

पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति का आकलन आज भी जटिल काम माना जाता है। फिर भी इतना तय है कि किन्हीं दो वर्गों में समानता को नापने का सबसे विश्वसनीय और स्वीकार्य पैमाना आर्थिक ही है। आर्थिक निर्धारणवाद के विचार से भी आर्थिक आधार बाकी सभी क्षेत्रों को निर्धारित कर देता है।

इस लिहाज से महिलाओं की आर्थिक स्थिति बताने के लिए किसी देश के श्रम बल में उनकी भागीदारी से बेहतर पैमाना और क्या हो सकता है? इस हकीकत को कोई नहीं छुपा सकता कि पिछले कुछ दशकों में भारत के सकल कार्य बल में महिलाओं की भागीदारी रत्तीभर नहीं बढ़ी, बल्कि यह पहले से घटती जा रही है। मसलन 1990 में देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी करीब पैंतीस फीसद थी। उसके बाद तीन दशकों में घटते-घटते आज 22.3 फीसद रह गई है। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी का यह आंकड़ा महिला सशक्तिकरण और महिलाओं को समान अवसर दिए जाने के दावों पर सवालिया निशान लगाने वाला है।

एक सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि अगर महिलाएं शैक्षिक और सामाजिक रूप से वाकई आगे बढ़ी हैं तो फिर श्रम बल में महिलाओं और पुरुषों के बीच यह खाई क्यों बढ़ती जा रही है? विश्व आर्थिक मंच हर साल वैश्विक लैंगिक सूचकांक रिपोर्ट जारी करता है। चौंकाने वाली बात है कि 2021 में जारी इस सूचकांक में विश्व के एक सौ छप्पन देशों में भारत का स्थान एक सौ चालीसवां रहा। सन 2020 की तुलना में हम अट्ठाईस पायदान और नीचे चले गए। यह कम चिंताजनक नहीं है।

इसी तरह संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) भी लैंगिक असमानता सूचकांक जारी करता है। सन 2020 के इस सूचकांक में दुनिया के सभी देशों में भारत का स्थान एक सौ तेईसवां था। आर्थिक सहभागिता और अवसरों के मामले में तो हम एक सौ छप्पन देशों में एक सौ इक्यावन वें पायदान पर हैं। यानी दूसरे देशों की तुलना में हमारी स्थिति हद से ज्यादा खराब है। इस हद तक कि छोटे-छोटे और गरीब देश तक इस मामले में हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष समानता या महिला सशक्तिकरण के कुछ पहलुओं को और ज्यादा बारीकी से देखने की दरकार है।

श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी का आंकड़ा यह संकेत भी देता है कि यह मुद्दा देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के सही आकलन के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। समावेशी विकास के बिना हर उपलब्धि अधूरी है। वैश्विक लैंगिक असमानता की पिछले साल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महज 22.3 फीसद महिलाएं श्रम बल में भागीदार हैं। भारत में स्त्री-पुरुष असमानता के लक्षण अब छोटे-बड़े हर क्षेत्र में स्पष्ट दिख रहे हैं। चौंकाने वाली बात है कि भारत में मंत्री पदों में महिलाओं की भागीदारी में भी भारी गिरावट आई। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मंत्री पदों में महिलाओं की भागीदारी 23.1 फीसद से घट कर 9.1 फीसद रह गई है।

कई साल से बात हो रही है कि देश के उच्च नीति निर्माण के पदों पर अगर महिलाएं पहुंचेंगी तभी महिला केंद्रित नीतियां बेहतर रूप से बन पाएंगी। राजनीतिक क्षेत्र के इस मामले में इस प्रकार से महिलाओं का प्रतिनिधित्व गिरना अच्छा लक्षण नहीं है। दूसरे देशों से तुलना करना चाहें तो हैरत की बात है कि पूरे राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अठारहवें से गिर कर इक्यावन वें पायदान पर आ गया है।

जब आर्थिक मामले में महिलाओं की हैसियत की बात हो रही है तो इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले उद्योग जगत में भी महिलाओं की भागीदारी खास नहीं बढ़ पाई। दरअसल, दफ्तर और बाहर काम कर पाने की महिलाओं की योग्यता को लेकर कई मिथक चले आ रहे हैं। आज भी एक जैसे शैक्षणिक और तकनीकी प्रशिक्षण के बावजूद महिलाएं शुरुआती और मध्य स्तर की नौकरियों तक ही सीमित हैं। हालांकि महिलाओं के लिए समान रोजगार के अवसर मिलना ही अकेली समस्या नहीं है, उनके श्रम का समान मूल्य भी एक समस्या है। पुरुषों और महिलाओं के वेतन में भी भेदभाव आम बात है।

लैंगिक असमानता रिपोर्ट कहती है कि भारत में वेतन में असमानता की खाई अभी भी सिर्फ छियालीस फीसद ही पाटी जा सकी है। भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में औसतन बीस फीसद तक कम वेतन पाती हैं। महत्त्वपूर्ण पदों पर काम करने के महिलाओं को अभी भी कम ही मौके दिए जाते हैं। तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 29.2 फीसद है। शीर्ष पदों तक महिलाओं के पहुंचने की दर तो और भी खराब है। शीर्ष पदों पर महिलाओं का नेतृत्व सिर्फ 14.6 फीसद है। पिछले साल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय कंपनियों में सीईओ और प्रबंध निदेशक के पद पर महिलाओं का प्रतिशत सिर्फ 3.8 था।

बहरहाल जिस देश में महिला आबादी पैंसठ करोड़ से ज्यादा हो, वहां उन्हें वाजिब वेतन या योग्यता अनुसार काम न मुहैया कराया जा सके, तो यह उस देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विफलता भी दिखाती है। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना जितना नैतिकता के आधार पर जरूरी है, उतना ही यह देश के विकास के लिहाज से भी जरूरी है।

कुछ साल पहले विश्व आर्थिक मंच की बैठक में अंतर राष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रमुख क्रिस्टीना लेगार्ड ने एक शोध का हवाला देते हुए कहा था कि भारत के कार्यबल में अगर पुरुषों के साथ महिलाओं को भी बराबरी का मौका दिया जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार सत्ताईस फीसद तक बढ़ सकता है। तभी संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी कहा था कि अगर महिलाओं को ज्यादा अवसर दिए जाएं तो भारत की वृद्धि दर चार फीसद तक बढ़ाई जा सकती है।

जिस उद्योग जगत का अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा योगदान है, उसी पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। वह ऐसा करने में सक्षम भी है। लेकिन उसे महिला कार्य बल को लेकर चले आ रहे मिथकों से बाहर निकलना पड़ेगा। अजीब बात यह है कि स्रातक डिग्रीधारी महिलाओं में लगभग साठ फीसद महिलाएं आर्थिक रूप से किसी उत्पादक कार्य में नहीं लगाई जा सकीं हैं।

इसमें रोजगार के समान अवसरों के अभाव के अलावा और भी कई कारण गिनाए जाते हैं। मसलन, इक्कीसवीं सदी में चले आने के बाद भी महिलाओं को आर्थिक उपार्जन से रोकने का सामाजिक दबाव आज भी बड़े स्तर पर मौजूद है। 2016 में हुए एक सर्वे में चालीस से साठ फीसद पुरुषों और महिलाओं का मानना था कि उन शादीशुदा महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए जिनके पति पर्याप्त वेतन कमा लेते है।

इसके अलावा कार्यस्थलों पर उत्पीड़न की समस्या कम गंभीर नहीं है। गर्भवती कर्मचारियों को कानूनन दूसरे लाभ तक नहीं मिल पाते। अमूमन इन बातों को महिलाओं को रोजगार के अवसर न देने का आधार बना लिया जाता है। योजनाकारों को समझना पड़ेगा कि अभी हमारे देश में प्रतिष्ठानों के सांगठनिक ढांचे पुरुषों से काम लेने के लिहाज से ही बने चले आ रहे हैं। चाहे वह काम करने की शैली हो या काम का समय। इसे बदलने की जरूरत है।


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