सम्पादकीय

शब्द, स्वर, संगीत और अदाकारी का पतनकाल

Gulabi
31 Oct 2020 3:59 PM GMT
शब्द, स्वर, संगीत और अदाकारी का पतनकाल
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इस कूड़ा-श्रंखला में उनका नया विज्ञापन टीवी पर चंद रोज़ पहले जारी हुआ है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। चड्डी-बनियान के विज्ञापनों में घटिया द्विअर्थी संवाद अदायगी के लिए राजीव हरिओम भाटिया का योगदान इतिहास में सड़ांध-सने अक्षरों में लिखा जाएगा। इस कूड़ा-श्रंखला में उनका नया विज्ञापन टीवी पर चंद रोज़ पहले जारी हुआ है। फ़िल्मी दुनिया में आने के लिए अपना नाम बदल कर अक्षय कुमार रख लेने से सोच भी बदलती होती तो भाटिया जी इस तरह के इश्तहारों में शिरकत से इनकार कर सकते थे। मगर जब कोई किसी भी कीमत पर सिर्फ़ पैसा कमाने घर से निकला हो तो जायज़ क्या, नाजायज़ क्या?

मैं शर्मिला टैगोर और लीला सैमसन की अध्यक्षता के ज़माने में पांच-छह साल सेंसर बोर्ड के दो दर्जन सदस्यों में से एक था। विज्ञापनों के प्रमाणन की प्रक्रिया के लिए कोई सरकारी इंतज़ाम या नियमावली भारत में नहीं है। अगर होती भी तो, मुझे नहीं लगता कि, वह मर्यादाहीन विज्ञापनों का कुछ बिगाड़ पाती। जब केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड जैसी संवैधानिक संस्था के होते हुए फ़िल्मी गीतों, संवादों और दृश्यों के लगातार बेहाल होते जा हाल की रोकथाम नहीं हो पा रही है तो पूरी तरह स्वैच्छिक और संवैधानिक अधिकारों से पूरी तरह वंचित एडवरटाइज़िंग स्टेंडर्ड्स कौंसिल ऑफ़ इंडिया आज के बाज़ारवादी मैदान में मिमियाने के अलावा और कर ही क्या सकती है? ऐसे में भाटिया जी को रोके तो कौन रोके?

मगर क्या कड़े नियम बना कर उन्हें मज़बूत संवैधानिक संस्थाओं के ज़रिए लागू करना इस तरह के मसलों का समाधान है? मेरा मानना है कि नहीं। आप लाख क़ानून-क़ायदे बना लें, जब तक राजीव भाटियाओं के मन में कोई संस्कारी-हूक नहीं उठती, वे सब बेकार साबित होंगे। तमाम नियमों के बावजूद सेंसर बोर्ड के अपने कार्यकाल में मैं और मुझ से सहमत कई सदस्य बहुत-सी फ़िल्मों में भरी न जाने कितनी फूहड़ताओं को इसलिए नहीं रोक पाए कि बाकी सदस्यों के उदार-दिलों पर फ़िल्म-निर्माण से जुड़े बाज़ारू-महामानवों की दलीलों के साए छाए रहते थे।

सो, आज की पीढ़ी 'भाग डी के बोस' और 'सू सू सू आ गया, मैं क्या करूं' जैसे गीतों की धुन पर नाचने का पाप भुगत रही है। अब अमिताभ भट्टाचार्य और समीर सरीखे गीतकारों को कौन यह बताए कि प्रदीप, नीरज, नौशाद और शहरयार होना क्या अर्थ रखता है? आज तो डीजे वाले बाबू से अपना गाना चलवाने के आग्रह का दौर है; तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं पूछने का दौर है; ख़ुद के बदन को ताज़ा मटन बताने का दौर है; दिल के चू-ची करने का दौर है; सीधा अंदर आओ राजा की पुकार लगाने का दौर है। यह प्रसून जोशियों को शैलेंद्र और गुलज़ार का दर्ज़ा देने का दौर है।

आज के हिमेश रेशमियाओं ने साहिर, कैफ़ी, मज़रूह और इंदीवर का रचना संसार, लगता है, कभी देखा ही नहीं। फ़िल्मी पार्श्व-गायन का इतिहास हज़ारों यादगार गीतों से लबरेज़ रहा है। उनमें से सैकड़ों तक़रीबन कालजयी हैं। शब्द, स्वर, संगीत और अदाकारी मिल कर किसी भी गीत को उस शिल्प में ढालते हैं, जो उसे कालजयी बनाता है। आज ऐसे शब्द-ऋषि अलभ्य हैं, ऐसे स्वर-साधक दुर्लभ हैं, ऐसे संगीत-रचयिता हुक्का बार में पड़े हैं और ऐसे अदाकार हुड़दंगियों की तरह पेश आने लगे हैं। इसलिए सारी सर्जनशीलता 'सेल्फ़ी ले ले रे' में सिमट गई है।

शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र और मुकेश की त्रिवेणियां तो कब की सूख गईं। हम में से जो 'सजनवा बैरी हो गए हमार', 'सजन रे झूठ मत बोलो' और 'दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई' गुनगुनाते बड़े हुए हैं, आज तो एक तरह से उनका यातना-काल है। लता मंगेशकर जिस शब्द-संयोजन और संगीत-सृजन का साथ मिलने से सुर-साम्राज्ञी बनीं, चूंकि अब वह दूर-दूर ढूंढे नहीं मिलता, इसलिए अब लताएं जन्म नहीं लेतीं। हिंदी शब्द संपदा पर अधिकार रखने वाले जंगलों में खो गए हैं। वह ज़माना गया, जब 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं' लिखने वाले साहिर की कलम से 'संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे' की स्याही भी बह सकती थी। अब गुलज़ार यानी संपूर्ण सिंह कालरा जैसे इक्का-दुक्का ही बचे हैं, जो 'मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे' से ले कर 'चप्पा-चप्पा चरखा चले' तक का आसमान नाप लें।

तीन दशक पहले रचे गए 'दिल चीज़ क्या है, आप मेरी जान लीजिए' और 'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं' जैसे कितने गीत आज लिखे जा रहे हैं, जो तीस-तीस साल तो क्या तीस-तीस दिन भी ज़ुबान पर चढ़े रहें? जयदेव, सलिल चौधरी, अनिल बिस्वास, रोशन, मदन मोहन और ख़य्याम जैसे संगीतकारों ने अब हमारे फ़िल्मी-संसार में जन्म लेना बंद क्यों कर दिया है? 'मेरे मांझी ले चल पार', 'अब के बरस भेज भैया को बाबुल' और 'गंगा आए कहां से, गंगा जाए कहां रे' जैसी कालातीत रचनाएं देने वाले सचिन देव बर्मन किस दंडकारण्य में चले गए हैं? 'अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा, मौसम बीता जाय' के सलिल चौधरी आज के हो-हल्ले से भाग कर अपने आंसू पोंछने कंचनजंघा न चले जाएं तो क्या करें?

वक़्त भी हम पर क्या हसीं सितम कर रहा है कि 'हम रहे न हम, तुम रहे न तुम' रचने वाले फ़ना हो गए हैं। अब भावनाओं की उड़ान इतनी दूर के क्षितिज तक जाती ही नहीं। अब 'क़िस्मत पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले' का हौसला बंधाने वाले ग़ुम हो गए हैं। गीतों की पातलगंगा कहीं डूब गई है। गीतों की आकाशगंगा कहीं हवा हो गई है। इसलिए अब न तलत महमूद पैदा हो रहे हैं, न शकील बदायूंनी। अब न भारत भूषण जन्मते हैं और न विट्ठल भाई और बालकवि। अब फ़िल्मों में संगीत देने पंडित शिव शर्मा, रविशंकर, पंडित जसराज, अली अकबर खान और बिस्मिल्ला खान नहीं आते। अब तो धमाचौकड़ियों का समय है। इसलिए हमारे फ़िल्मी गीत निर्वसन होते जा रहे हैं। इसलिए हमारा फ़िल्म-संसार नंगई पर आमादा है। इसलिए हमारा विज्ञापन-जगत फूहड़ संवादों को वेद-वाक्य समझ कर नतमस्तक है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी अच्छी चीज़ है। लेकिन क्या मुझे यह आज़ादी नहीं होनी चाहिए कि मैं क्या सुनना चाहता हूं और क्या नहीं? क्या मुझे यह हक़ नहीं होना चाहिए कि मैं अंडरवियर-बनियान के बहाने किसी ठरकी संवाद लेखक और अपनी विकृत-सोच से आनंदित होने वाले किसी अधेड़ अभिनेता की जुगलबंदी सुनने से इनकार कर सकूं? वे कुछ भी कहने को तैयार हैं, क्योंकि उन्हें पैसे मिलते हैं। लेकिन मुझे तो यह सब सुनने के पैसे मिलते नहीं। पैसे मिलें तो भी कुछ भी सुनने को मैं क्यों तैयार होऊं? ऐसे में जब कि सरकार ऐसा कोई हवन करने को तैयार नहीं है, जिसमें उसके हाथ जलने का जोखि़म हो, क्या ऐसे सुदृढ़ नागरिक-मंच स्थापित नहीं होने चाहिए, जो छोटे-बड़े परदे के बुनियादी सार्वजनिक संस्कारों को सुनिश्चित कर सकें?

फ़िल्मों के लिए नख-दंत विहीन ही सही, एक सेंसर बोर्ड है। लेकिन टीवी धारावाहिक छुट्टे क्यों घूम रहे हैं? टीवी विज्ञापन लुंगी-डांस क्यों कर रहे हैं? टीवी समाचारों में अनर्गल प्रलाप के अर्नबीकरण की प्रवृत्ति हर रोज़ नई मिसालें क्यों क़ायम कर रही है? सोशल मीडिया के मंच पर नफ़रत और गालियों की नंगी तलवारें क्यों झनझना रही हैं? सो, या तो सब के स्व-नियमन की कोई पुरज़ोर व्यवस्था हो; नहीं तो फिर ज़रूरी संवैधानिक इंतज़ाम हो; या फिर सभी को अपने-अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। उन्हें भी, जो अगर कोई बात न सुनना चाहें तो डंडा हाथ में उठा लें। अराजक होने का अधिकार किसी एक को ही क्यों हो? हो तो हर एक को हो, नहीं तो किसी को न हो। ठीक है न!

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