सम्पादकीय

कुश्ती को राष्ट्रीय खेल घोषित करो

Rani Sahu
22 May 2022 7:08 PM GMT
कुश्ती को राष्ट्रीय खेल घोषित करो
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पारंपरिक कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों व कुश्ती के शौकीन लाखों दर्शकों के लिए यह वर्ष सुकून भरा है

पारंपरिक कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों व कुश्ती के शौकीन लाखों दर्शकों के लिए यह वर्ष सुकून भरा है। आखिर दो वर्ष तक कोरोना महामारी के कहर के बाद माटी के अखाड़ों में पहलवानों के दाव-पेंच तथा ढोल वादकों की ताल के साथ कुश्ती के दंगलों की रौनक लौट चुकी है। भारत में कुश्ती का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। हमारे मुकद्दस ग्रंथों में 'मल्लयुद्धों' का पर्याप्त जिक्र मिलता है। आधुनिक कुश्ती उन्हीं मल्लयुद्धों का स्वरूप है। हिमाचल प्रदेश में त्योहारों व पर्वों के अवसर पर पांरपरिक कुश्ती के दंगलों की रिवायत कई वर्षों से चली आ रही है। बिलासपुर जिला दशकों से पारंपरिक कुश्ती के पहलवानों व दंगलों का मुख्य केंद्र रहा है। जिला के राज्य स्तरीय नलवाड़ मेले में आयोजित होने वाला चार दिन का कुश्ती दंगल उत्तर भारत की सबसे बड़ी पारंपरिक कुश्ती प्रतियोगिताओं में शुमार करता है, जिसमें कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान हिस्सा लेते हैं। लेकिन हमारे गांव-देहात की माटी का खेल कुश्ती बीते कुछ वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मुकाम हासिल कर चुका है। हिमाचल में युवा पहलवानों के अलावा कई महिला पहलवान भी मिट्टी के दंगलों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर 'मैट' पर लड़ी जाने वाली फ्री स्टाईल कुश्ती में राष्ट्रीय स्तर पर मेडल जीत रही हैं। भावार्थ यह है कि प्रदेश की खेल प्रतिभाओं में खेल के प्रति जुनून व खेल हुनर की कमी नहीं है।

जो युवा पहलवान मिट्टी के अखाड़ों में अपने प्रदर्शन से दर्शकों को प्रभावित कर रहे हैं, उनमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने की पूरी क्षमता है। यदि राज्य के इन उभरते युवा पहलवानों को तकनीकी खेल प्रशिक्षण व आधुनिक खेल सुविधाओं से लैस करके प्रतिस्पर्धा के लिए खेल मंच प्रदान किया जाए तो अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर कुश्ती के नतीजे बेहतर हो सकते हैं। खिलाडि़यों के व्यक्तिगत प्रयासों से ही खेलों के सम्मानजनक परिणाम नहीं निकलते, खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए खेल मंत्रालय, खेल विभाग व खेल संघों के साझा प्रयास व सहयोग की जरूरत होती है। मगर विडंबना है कि आठ या दस देशों में खेले जाने वाले क्रिकेट के प्रति लोगों की बढ़ती दीवानगी ने अन्य खेलों का तवाजुन बिगाड़ दिया है जिसका सबसे ज्यादा नुकसान परंपरागत कुश्ती को हुआ है। रही सही कसर आसमान छू रही महंगाई ने पूरी कर दी है। मेडल न जीतने पर खिलाडि़यों को जरूर कोसा जाता है, मगर बढ़ती महंगाई से आम उपभोक्ता त्रस्त है तो कुश्ती में जोर आजमाईश करने वाले पहलवानों की महंगी खुराक कैसे पूरी होगी।
वित्तीय संकट के कारण पारंपरिक कुश्ती के पहलवानों का कैरियर दांव पर लग चुका है। प्रतिवर्ष क्रिकेट के 'आईपीएल' टूर्नामेंट में कई विदेशी खिलाड़ी व विदेशी कोच करोड़ों रुपए कमाकर ले जाते हैं। सिल्वर स्क्रीन के अदाकर पहलवानों व अन्य खिलाडि़यों के नाम पर फिल्में बनाकर करोड़ों रुपए कमा लेते हैं, मगर खेल मैदानों पर खून-पसीना बहाकर देश के लिए पदक जीतने वाले वास्तविक नायक खिलाड़ी गुरबत में जीवनयापन करते हैं, जबकि भारत को ओलंपिक खेलों में हॉकी के बाद सबसे ज्यादा 2 सिल्वर व 5 कांस्य पदक कुश्ती में ही मिले हैं। भारत ने सन् 1920 के 'एंटवर्प' ओलंपिक में कुश्ती का आगाज किया था। वर्तमान में देश की महिला पहलवानों का कुश्ती के प्रति लगातार बढ़ता उत्साह कुश्ती के लिए सकारात्मक संकेत है। टोक्यो 2020 ओलंपिक में भारत की चार महिला पहलवानों ने हिस्सा लिया था। महिला वर्ग की कुश्ती में भारत के लिए विश्व चैंपियनशिप में पदक जीतने की शुरुआत सन् 2006 में अल्का तोमर ने कांस्य पदक जीतकर की थी। विश्व चैंपियनशिप में भारतीय महिला पहलवान 6 कांस्य व एक सिल्वर मैडल देश के नाम कर चुकी हैं। अंशु मलिक ने भारत के लिए एकमात्र सिल्वर पदक 2021 में नॉर्वे के ओस्लो में हुई विश्व चैंपियनशिप में जीता था। सन् 2004 में महिला कुश्ती को ओलंपिक में शामिल किया गया था तथा 2016 के 'रियो' ओलंपिक में भारतीय महिला पहलवान साक्षी मलिक ने 'कांस्य' पदक जीता था। 2012 लंदन ओलंपिक में क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान गीता फोगाट हैं। 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में भारत के लिए महिला कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतने का रिकार्ड भी गीता फोगाट के नाम है। 2018 के एशियाड खेलों में विनेश फोगाट गोल्ड मेडल जीतने वाली प्रथम भारतीय महिला पहलवान थीं। 2006 में गीतिका जाखड़ अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित होने वाली पहली महिला पहलवान बनी थीं। भारत की महिला पहलवान देश की बालिकाओं के लिए खेलों में सबसे प्रेरक रोल मॉडल बनकर उभरी हैं। हरियाण राज्य का इसमें विशेष योगदान है।
हरियाणा के उभरते खिलाडि़यों को वहां की राज्य सरकार, रेलवे तथा भारतीय सेना ने रोजगार के अवसर प्रदान करके उनके खेल हुनर को बखूबी निखारा है। इसीलिए पिछले चार ओलंपिक में भारत को कुश्ती में लगातार पदक मिलने से भारतीय कुश्ती के प्रदर्शन में काफी बदलाव आया है। सन् 1896 के 'एथेंस' ओलंपिक में कुश्ती की शुरुआत 'ग्रीको रोमन' शैली में हुई थी। फ्री स्टाईल कुश्ती को 1904 के 'सेंट लुईस' ओलंपिक में शामिल किया गया था। भारतीय पहलवानों का फोकस ज्यादातर फ्री स्टाईल कुश्ती की तरफ रहता है। टोक्यो 2020 ओलंपिक में कोई भी भारतीय पहलवान ग्रीको रोमन शैली में क्वालीफाई नहीं कर पाया था। इसीलिए ओलंपिक महाकुंभ में भारत को ग्रीको रोमन कुश्ती में मेडल का आज तक इंतजार है। मौजूदा दौर में देश में बालीवुड का बढ़ता क्रेज, आधुनिकता की चकाचौंध में क्रिकेट की खुमारी, चरम पर बेरोजगारी तथा आसमान छू रही महंगाई जैसे मसलों के बावजूद युवा पहलवान माटी के अखाड़ों में अपना दमखम दिखाकर हमारी सांस्कृतिक धरोहर 'पारंपरिक कुश्ती' का प्रतिनिधित्व करके इसके वजूद को बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं। लाजिमी है सरकारें पारंपरिक कुश्ती में उम्दा प्रदर्शन करने वाले युवा पहलवानों के बेहतर भविष्य के लिए इन्हें रोजगार उपलब्ध कराएं। बहरहाल ईरान का राष्ट्रीय खेल कुश्ती है। यदि सरकार भारत की प्राचीन खेल विरासत कुश्ती को राष्ट्रीय खेल घोषित करे तो वैश्विक स्तर पर भारतीय कुश्ती की लोकप्रियता व सम्मान यकीनन बढे़गा। युवा पहलवानों का कुश्ती के प्रति उत्साह बढ़ने से कुश्ती की पदक तालिका में भी इजाफा होगा।
प्रताप सिंह पटियाल
लेखक बिलासपुर से हैं

सोर्स- divyahimachal


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