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वैसे तो जीवन में मर्यादित और अमर्यादित आचरण क्या है, ये तो व्यक्ति के जीवन का निजी मामला है, परन्तु सामाजिक रूप से क्या होना चाहिए, कैसे होना चाहिए तथा क्या नहीं होना चाहिए, इसे सामाजिक अलिखित नियम संहिता निश्चित करती है। हमें कब और कहां, कैसा व्यवहार करना है, यह सभ्य, शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति स्वयं जानता है। वैसे भी क्या पहनना है, क्या खाना है, किस तरह का व्यवहार आवश्यक है, क्या सही है, क्या गलत है, यह किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है और इस पर कोई भी टिप्पणी नहीं की जा सकती। बंदिशें लगाकर भी किसी व्यक्ति को बलपूर्वक वांछित आचरण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सभी व्यक्तियों की शिक्षा, संस्कार, विचार, परवरिश, परिवेश, परिस्थिति तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण एक जैसा नहीं होता। इसलिए उसके चिन्तन, व्यवहार, आचरण, रुचि एवं अभिरुचि में भी भिन्नता तथा विविधता होती है, जो स्वाभाविक भी है। ईश्वर ने सभी को अलग-अलग अक्ल, शक्ल, रंग, रूप, आकार तथा बुद्धि प्रदान की है। इसीलिए यह जीवन सुन्दर तथा आकर्षक है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी जीवन मूल्य हैं तथा उनमें किसी भी प्रकार का बाहरी दखल भी नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वतन्त्र जीवन यापन करना चाहता है। यह स्वतन्त्रता प्रकृति से मिली है इसी प्राकृतिक जीवन की स्वतन्त्रता के सिद्धांत की पुष्टि हमारे संवैधानिक अधिकारों में भी की गई है। यह जीवन यापन स्वतन्त्रता हमें तब तक छूट देती है जब तक कि हमारी स्वतन्त्रता किसी दूसरे के जीवन के लिए हानिकारक न हो। हम मनुष्य हैं, पशुओं से परिष्कृत हैं।
हमें सभ्य बनने में शताब्दियां लगी हैं। परमात्मा ने हमें बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण किया है। हमारी सोचने-समझने की शक्ति अन्य चर-अचर जीवों से शतप्रतिशत बेहतर है। हमें कब, क्या, कैसे और क्यों करना है, हम विचार कर निर्णय कर सकते हैं। मनुष्य ने शिक्षित होकर ज्ञान प्राप्त किया है, लेकिन शिक्षित होने के बाबजूद वह सभ्य, सुसंस्कृत एवं संस्कारी बनने में असफल ही रहा है। वह अपनी असुरी वृत्तियों पर लगाम लगाने में नाकामयाब ही रहा है। ऐसा लगता है कि हम समय, स्थान तथा स्थिति के अनुरूप व्यवहार नहीं कर पाते। यह परिवर्तन वर्तमान में व्यक्ति के व्यवहार, वार्तालाप, संस्कार, खानपान, परिधान तथा आचरण में देखा जा सकता है। भौतिकवाद की छाया में हम पल-पल अपने जीवन की मर्यादाओं को भंग करते हैं। अपार धन-सम्पदा हमारे जीवन मूल्यों का हनन करने के लिए हर पल विवश करती है। भौतिक संसाधनों का नशा, पैसे की गर्मी, अहंकार तथा दम्भ ने हमारे जीवन मूल्यों का ह्रास किया है और हम अपनी मर्यादाओं तथा सीमाओं से बाहर होते रहते हैं। निजी जीवन में छोटे कपड़े या कम कपड़े पहनना कोई गुनाह नहीं है। परन्तु समय, स्थान तथा स्थिति के अनुसार शिष्ट एवं सभ्य आचरण किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यक है। सुन्दरता तथा आकर्षण मर्यादित कपड़ों में ही होता है।
वास्तविकता में तो हम सब नंगे ही हैं। यह भी ठीक है कि गन्दगी हमारे परिधान में नहीं बल्कि हमारे कुविचारों, चिन्तन तथा मानसिकता में होती है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति विशेष खुशी के अवसर पर पहनने वाले वस्त्रों में किसी की मृत्यु के अवसर पर शोक विचार देने जाए या फिर सामान्य अवसर पर पहनने वाले वस्त्रों में किसी के जन्म या विवाह समारोह जैसे शुभ अवसर पर जाए तो कैसा लगेगा? इसी तरह भक्ति भाव में ईश्वर की प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना करने में भी भावानुरूप उसी प्रकार के सभ्य परिधान की आवश्यकता है ताकि धार्मिक परिसरों में भक्ति भाव का विशिष्ट वातावरण बना रहे। प्रदेश एवं देश में कई गुरद्वारों, गिरिजाघरों, मन्दिरों में वहां की नियम संहिता के अनुरूप समय समय पर निर्देश दिए जाते हैं। अनेक शिक्षण संस्थाओं, धार्मिक संस्थाओं, व्यावसायिक संस्थानों में भी विशेष वस्त्रों में प्रवेश करने के लिए निर्देश दिए जाते हैं जो उन संस्थाओं की नियम संहिता है। अभी बिहार सरकार ने शिक्षा विभाग में कार्यरत कर्मचारियों को टी-शर्ट तथा जींस जैसे कैजुअल कपड़े पहन कर कार्यालय में आने को कार्य संस्कृति के विरुद्ध बता कर आपत्ति जताई है। कुछ वर्ष पहले हिमाचल प्रदेश के माननीय उच्च न्यायालय ने भी सभ्य, शिष्ट तथा उचित परिधान में न्यायालय में उपस्थित होने की व्यवस्था दी थी। अभी हाल ही में ऊना जिला के द्रोण महादेव शिव मन्दिर अम्बोटा में छोटे वस्त्र पहन कर आने वाले श्रद्धालुओं के लिए मन्दिर के गर्भ गृह में जाने पर रोक लगा दी गई है। इसी प्रकार पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के एक जैन मन्दिर की प्रबंधन समिति ने अमर्यादित कपड़े पहन कर मन्दिर में दर्शन करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। मन्दिर प्रशासन ने एंट्री गेट पर पट्टिका लगाकर, छोटे वस्त्र, कैप्री, नाइट सूट, फ्रॉक, हाफ पैंट, मिनी स्कर्ट, बरमूडा तथा कटी-फटी जींस पहनने वाले श्रद्धालु पुरुषों तथा महिलाओं को मन्दिर में ‘नो एंट्री’ के निर्देश लागू कर दिए हैं। सामान्य रूप से इसी प्रकार के निर्देश गुरद्वारों, गिरिजाघरों तथा दक्षिण भारतीय मन्दिरों में सामान्य रूप से दिए जाते हैं। इससे पूर्व कांगड़ा जिले के मसरूर मन्दिर में भी इस प्रकार के दिशा निर्देश जारी किए जा चुके हैं।
वर्तमान में जहां धर्म एक धंधा बन चुका है, वहीं पर श्रद्धालु भी भावनात्मक रूप से भक्तिभाव से दूर हो चुके हैं। पर्यटन और धार्मिक पर्यटन का व्यवसाय भी एक सा हो चुका है। प्रभु दर्शन तथा मन्दिर दर्शन के नाम पर भगवान को ठगा जाता है। पर्यटन तथा धार्मिक पर्यटन की आड़ में अनेकों असामाजिक तत्वों द्वारा अनैतिक धंधे चल रहे हैं। लूट-खसूट, चेन स्नैचिंग, ठगी, लूटमार, डकैती, चोरी, जिस्मफरोशी इन धर्म स्थलों के पास निरंतर होती रहती है। धार्मिक मेलों के दौरान पुलिस के पास अनेकों मामले पंजीकृत होते हैं। बाबा बालकनाथ, माता चिंतपूर्णी, मां ब्रजेश्वरी तथा माता चामुण्डा देवी के दर्शन करने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा जम्मू कश्मीर से अनेक अवैध वैवाहिक जोड़े मोटर साइकिलों तथा गाडिय़ों में हर वर्ष आते हैं जो वास्तव में पति-पत्नी होते ही नहीं। यह खुला सत्य है कि नये नवेले दूल्हा-दुल्हन दिखने वाले तथा सज-धज कर प्रदेश में आने वाले ये धार्मिक पर्यटक एक या दो दिन के ही प्रेमी जोड़े तथा पति-पत्नी होते हैं। स्वच्छ समाज के निर्माण में उपरोक्त सभी बातों पर विचार करना आवश्यक है। मन्दिर दर्शन के लिए व्यक्तियों की वेषभूषा तथा सभ्य आचरण भी आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन में कौन व्यक्ति क्या करता है, इससे किसी का कोई सरोकार नहीं। आवश्यक यह है कि धार्मिक स्थलों में धार्मिक आचरण की शुचिता को बनाए रखा जाए।
प्रो. सुरेश शर्मा
शिक्षाविद
By: divyahimachal

Rani Sahu
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