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By: divyahimachal
राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर 24 मई को ऐसा अनशन, धरना-प्रदर्शन किया जाएगा, जिसकी मांगें राजनीतिक, धार्मिक, किसानी, यौन-शोषण, आदिवासियों के अधिकारों से जुड़ी हुई नहीं हैं। यह सामाजिक, आर्थिक और देश को कर्जमुक्त करने का अभियान है। सरकारें और राजनीतिक दल कर्जमाफी को जुमले के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं। सिर्फ किसानों के कर्ज माफ करने के वायदे, बार-बार, किए जाते रहे हैं और कर्ज माफ भी किए गए हैं, लेकिन यह आयाम अनदेखा और उपेक्षित रहा है कि कर्ज के कारण लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं। बीते वर्ष 2022 में ही 20,000 से अधिक कर्जदार लोगों ने आत्महत्याएं कीं। ‘धार्मिक एकता ट्रस्ट’ के प्रतिनिधियों ने नायाब कोशिशें की हैं। वे न केवल कर्जमुक्त होने के प्रशिक्षण दे रहे हैं, बल्कि रास्ता भी सुझा रहे हैं। इस अभियान के तहत 3 लाख भारतीय जुड़े हैं। पूरा डाटा सार्वजनिक है। वे ‘कर्जमुक्त भारत’ का अभियान देश भर में छेड़े हैं। बेशक जंतर-मंतर का अनशन एकदिनी और प्रतीकात्मक होगा, लेकिन वे देश के सामने कुछ तथ्य और सत्य पेश करना चाहते हैं। ट्रस्ट के प्रतिनिधि और संस्थापक शाहनवाज चौधरी दो बार प्रधानमंत्री मोदी से मिल चुके हैं। प्रधानमंत्री दफ्तर के अधिकारियों को भी अपनी बात बताई है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय में 7 मुलाकातें शीर्ष के अधिकारियों से हुई हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के सामने भी अपना पक्ष रख चुके हैं, लेकिन सरकार और अफसरशाही देश के सरोकारी और मानवतावादी नागरिकों की सलाह मानने को तैयार नहीं है। ट्रस्ट के प्रतिनिधियों का आग्रह है कि जिनकी मौत हो चुकी है या जो लोग कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ हैं, सरकार उनका 10 लाख रुपए तक का कर्ज माफ करे अथवा ‘राइट ऑफ’ कर दे। तुलना अडाणी केस से की गई है। हम उसे गलत मानते हैं।
उद्योगपतियों, किसानों और आम नागरिकों के कर्ज अलग-अलग किस्म के होते हैं, लिहाजा सरकार उसी संदर्भ में कर्जों को माफ करती रही है। यदि सरकारें वोट पाने की खातिर ‘मुफ्त की रेवडिय़ां’ बांट सकती हैं या कर्ज माफ कर सकती हैं, तो देश के अक्षम नागरिकों की मदद करने में क्या गुरेज है? ट्रस्ट से जुड़े और पेशेवर चिकित्सक डॉ. खरबंदा से हमने बातचीत की, तो उन्होंने इसे सर्वधर्मवादी और मानवतावादी अभियान करार दिया। उनका विश्लेषण है कि इतने नागरिकों का कर्ज माफ करने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित नहीं होगी। सरकार जिनके 5-6 लाख करोड़ रुपए माफ करती है या बैंकों के पैसे मार कर जो उद्योगपति ‘भगोड़ा’ बन जाते हैं, उनके बावजूद देश की अर्थव्यवस्था अनवरत गति से विकसित हो रही है। डॉ. खरबंदा के मुताबिक, सांसदों को भी पत्र लिखे जा चुके हैं। लोग नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना और लॉकडाउन से आज भी त्रस्त और प्रभावित हैं। देश के हुक्मरानों को इस संवेदनशील मुद्दे पर जागृत होकर कुछ करना चाहिए। बहरहाल भारत की अर्थव्यवस्था करीब 325 लाख करोड़ रुपए की है, जो निरंतर बढ़ रही है। यह कोई छोटी अर्थव्यवस्था नहीं है। हम विश्व में 5वें स्थान पर हैं, लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी भारतीय गरीबी-रेखा के तले जी रहे हैं या आत्महत्याएं कर रहे हैं, यह देश की प्रतिष्ठा और नीतियों को ही खंडित करने वाली स्थिति है। यह कोई सांप्रदायिक या आरक्षणवादी अभियान भी नहीं है। सरकार लोगों के कर्ज को वर्गीकृत कर माफ कर सकती है। दुर्घटनाएं होती हैं, त्रासदियां भी घटती हैं, आपदाएं आती हैं, सरकार प्रत्येक जनवादी स्थिति में लोगों की आर्थिक मदद करती है। यदि अपने ही देशवासी संकट में हैं, तो मार्मिकता से काम करना चाहिए।

Rani Sahu
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