सम्पादकीय

मलबा नहीं हटेगा

Rani Sahu
16 Oct 2022 7:06 PM GMT
मलबा नहीं हटेगा
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वे दोनों पड़ोसी थे, लेकिन उन्हें अपने-अपने घर के मलबे पर अफसोस नहीं, गुरूर था। दोनों सोचते थे कि उनका, एक-दूसरे से मलबा भारी और कीमती है। कीमती है, इसलिए मलबा बनकर बिछा और बिछौना बन गया। वे मलबे पर बैठते हुए अपनी-अपनी जमीन मापते। बिछे हुए लोग भले ही मलबा हो जाएं, लेकिन उनके खरीददार हैं और कीमत भी लगती रहती है। मलबे को देखना आसान है, लेकिन उसकी टोह लेना नहीं, इसलिए सरकारी मशीनरी इसे देख सकती है और देखती रहती, जब तक पूरी तरह बिछ न जाए। जो सरकारी दफ्तर अपने काम की टोह न ले पाए, समझो वहां का मलबा भारी है। हर दिन टूटती फर्ज की दीवारों का मलबा, सरकारी कार्य संस्कृति का मलबा, आजादी से ही भारी हो गया है। अब इसे उठाने के बजाय बिछाने की तरकीबें लगाई जाती हैं। बिछा हुआ मलबा घायल नहीं करता। यह आत्मसम्मानी नहीं। कभी भी और कहीं भी आ-जा सकता है या जरूरत के मुताबिक बिछ सकता है। आम आदमी को सदा भ्रम रहा है कि वह 'मलबे' को उठा सकता है और इसी कोशिश में कितने ही चुनावों को सिर पर उठाकर घूमता रहा, लेकिन अब तो वह खुद ही मलबा बन चुका है।
इसलिए ये दोनों पड़ोसी हैं तो हमारी ही तरह। इनके ढेरों में किसका कितने अनुपात में मलबा है, इसका फैसला न तो पिछली सदी के राजा कर पाए और न ही आजादी के बाद के शासक। इन्होंने बच्चे पढ़ाए तो डिग्रियां मलबा हो गईं। नौकरी पाई तो सरकार की कमाई मलबा हो गई। अब तो ये चोरी-छिपे मलबे की यादें भी शेयर करने लगे हैं। इन्हें अब लगता है कि इनके परिवारों ने ही हर मलबे को धरोहर बनाया है। वे न होते तो मलबे का कोई इतिहास, कोई भूगोल न होता। यह मलबा न होता तो दफ्तरों में बैठे बाबू या साहब अपना समय कैसे गुजारते। देश ने समय गुजारते-गुजारते कुछ दिया या नहीं दिया, लेकिन हर काम की जगह मलबा तो पैदा किया है। अब यह चारों ओर गिर रहा है, इसलिए देश की दिशा जानने की जरूरत नहीं। अब हम तो यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि जिस दिन मलबा उठकर खुद ही चलने लगेगा, तो देश भी चल लेगा। अब तो आम आदमी को पता है कि लगातार आने वाला ज्ञान भी मलबा है। यह चाहे किसी अखबार के मार्फत आए या टीवी की बहस से दिमाग में उतरे, है तो मलबा ही।
इसलिए हर चुनाव के बाद देश का वृतांत मलबा हो रहा है। आंख होते हुए भी क्या कमाल के दृष्टिहीन हैं हम, इसलिए राष्ट्रीय पार्टियों के दृष्टिपत्र हमें कहीं भी कुछ दिखा नहीं पाते। हम जिन्हें जनप्रतिनिधि चुनते हैं, वे ही हमें मलबा बना रहे हैं और हम कभी आंख की वजह तो कभी कान के कारण ढेर में तबदील हो रहे हैं। वर्षोँ से हम इसी मलबे को कुरेद कर सोच रहे हैं कि कहीं कोई विकल्प मिल जाएगा या कोई निष्कर्ष मिल जाएगा, लेकिन यह टस से मस नहीं हो रहा। सरकारी और राजनीतिक प्रश्रय प्राप्त करना है तो मलबे का ढेर बन जाओ। सरकारें इसलिए कार्यशील हैं, क्योंकि उन्हें अब केवल मलबे के ढेर ही तो बनाने हैं। गौर से देखें, कार्यक्रमों-नीतियों को देखें, अधिकारियों-कर्मचारियों को देखें, सियासी महफिलों-सरकारी दस्तावेजों को देखें कि ये हमारी ही तरह मलबे के ढेर हैं। सरकार लाख कोशिश करे, वह देश को मलबा-मुक्त नहीं कर सकती, बल्कि हम देख रहे हैं कि कांग्रेस-मुक्त भारत में सियासत का मलबा बढ़ता जा रहा है। सरकार अपनी वापसी की अंतिम कोशिश में दोनों पड़ोसियों के बीच पसरे मलबे को उठाने को हो रही थी, लेकिन दोनों इसे बचाने की कोशिश में थे ताकि उनका वजन किसी सूरत कम न हो। इस बीच चुनाव आ गए और टिकट बंटने लगे। मलबे में डूबे एक पड़ोसी को जब सत्तारूढ़ दल ने उठा लिया, तो बचे हुए मलबे से दूसरे पड़ोसी को दूसरे दल ने अपने साथ मिला लिया। मलबा यथावत वहीं पसरा फिर से एक नए चुनाव में खुद को निहार रहा है।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu

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