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कर्नाटक (Karnataka) में दक्षिणपंथी संगठनों ने मुस्लिमों द्वारा बेचे जा रहे ‘हलाल’ मांस (Halal Meat) के बहिष्कार का आह्वान किया है
डॉ. सिल्विया करपगम - कर्नाटक (Karnataka) में दक्षिणपंथी संगठनों ने मुस्लिमों द्वारा बेचे जा रहे 'हलाल' मांस (Halal Meat) के बहिष्कार का आह्वान किया है. अब यह मसला उन मुद्दों में शामिल हो चुका है, जिसकी वजह से राज्य में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ रहा है. भगवा संगठन हलाल मांस के खिलाफ चल रहे इस अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं और इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हिंदुओं को सिर्फ 'झटका' मांस (Jhatka Meat) ही खाना चाहिए.
यह गौर करने वाली बात है कि सामाजिक भेदभाव की राजनीति भारत के लिए नई नहीं है. लेकिन इस वक्त हम जिन हालात से रूबरू हो रहे हैं, वह भोजन के प्रति लोगों की पसंद को लेकर असहिष्णुता है, जो सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक बंटवारे का कारण बन सकता है. यदि भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति अपनी पहचान साझा करता है तो दूसरा शख्स प्रतिक्रिया देने के कई तरीकों में से एक को चुन सकता है.
भेदभावपूर्ण व्यवहार को नजरअंदाज करें
ऐसा कहीं भी हो सकता है. हो सकता है कि एक शिक्षक किसी छात्र को खुलेआम उसके धर्म/जाति/लिंग/माता-पिता के पेशे/भौगोलिक क्षेत्र/लैंगिक रुझान/शारीरिक क्षमता आदि के कारण धमका रहा हो और बाकी छात्र, शायद दूसरे शिक्षक और प्रिंसिपल भी अपने दैनिक जीवन में ऐसे व्यस्त हों जैसे वे इस बात से पूरी तरह अनजान हों कि असलियत में हो क्या रहा है. यह सब इतना सामान्य होना चिंताजनक है, यहां तक कि तथाकथित सिविल सोसाइटी या मानवाधिकार संगठन भी इस 'शुतुरमुर्गी' तौर-तरीकों से ऊपर नहीं उठ पाते हैं.
दबंगों का साथ देना
लिंचिंग, यौन उत्पीड़न और कमजोर समुदायों के महिलाओं-पुरुषों (अक्सर गरीब) के खिलाफ हिंसक घटनाओं में भीड़ का उग्र तरीके से शामिल होना स्तब्ध करने वाला और डराने वाला है. इस तरह के मामलों में शामिल होने वालों के पास इस बात का कोई तर्कसंगत स्पष्टीकरण नहीं होता है कि वे आखिर इसमें शरीक क्यों हुए.
भेदभाव की तर्कसंगत व्याख्या
भेदभाव को लेकर इस तरह की प्रतिक्रिया बेहद आम होती जा रही है. यदि एक समुदाय से ताल्लुक रखने वाला कोई व्यक्ति उत्पीड़न, हिंसा, दुर्व्यवहार आदि का सामना कर रहा है तो सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर्स, शोर मचाने वाले मीडिया घराने, राजनेता और यहां तक कि समाज के सम्मानित लोगों को अक्सर यह कहते हुए पाया जाता है कि पीड़ित का व्यवहार, संस्कृति या उसका अस्तित्व ही अक्सर उस हिंसा को सही ठहराता है, जिसके वे शिकार होते हैं.
उदाहरण के लिए, पशुओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कह सकते हैं, 'यदि लोग जानवरों को मारना और उनका मांस खाना चाहते हैं, तो उन्हें उस वक्त परेशानी क्यों होती है, जब पशु प्रेमी उन पर हमला करते हैं या एक मस्जिद या चर्च के अनादर को इस वजह से जायज ठहराया जाता है कि उसे किसी मंदिर के खंडहर पर बनाया गया या वह गैरकानूनी जमीन थी और उस पर अतिक्रमण किया गया. ऐसे में हिंसक भीड़ द्वारा तोड़फोड़ करने को सही बताया जाता है.'
खुद को पीड़ित बताना
इस तरह के मामलों में ऐसा भी होता है कि हिंसक, अपमानजनक या भेदभावपूर्ण हरकत करने वाला मानता है कि वह ही असली पीड़ित है. यह बुद्धिसंगत व्याख्या की अतिश्योक्ति है कि यहां हकीकत में कोई भी तर्क काम नहीं करता. इस तरह के मामलों में समर्थकों की संख्या भी अच्छी-खासी होती है. उदाहरण के लिए, कॉलेज जाने और पढ़ाई करने की अपनी नियमित और उबाऊ दिनचर्या के दौरान हिजाब पहनने वाली मुस्लिम लड़कियों को जब राज्य में प्रायोजित भेदभाव और आक्रामकता के तहत निशाना बनाया गया. उन्हें कॉलेज में प्रवेश करने और परीक्षाओं में बैठने से रोका गया तो बहुसंख्यक समुदाय के छात्र यह कह सकते हैं कि वे हिजाब पहनने वाली लड़कियों की वजह से भेदभाव महसूस करते हैं. और इससे ज्यादा अति क्या होगी कि वे अपने समुदाय को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाते हैं कि हकीकत में वे ही 'असली पीड़ित' हैं.
भेदभाव का विरोध करें
इस विकल्प के पक्ष में सामाजिक न्याय, संविधान और मानवाधिकार हैं. यह मूल रूप से भेदभाव को फेस वैल्यू के आधार पर देखता है और उसे चुनौती देता है. यह न तो पीड़ित से चरित्र प्रमाण पत्र मांगता है और न ही इस बात में उलझता है कि असल मसला क्या है. इस संदर्भ में, आइए हम हलाल और झटका मांस को लेकर चल रहे ताजा विवाद की पड़ताल करते हैं. हलाल मुस्लिम समुदाय की एक प्रथा है, जिसमें उस जानवर की गर्दन को धारदार चाकू या छुरी से काटा जाता है, जिसे भोजन के लिए इस्तेमाल करना है. इसके तहत उस जानवर की Jugular vein (गले की नस), Carotid artery (गर्दन की धमनियां) और Wind pipe (श्वास नली) को अलग कर दिया जाता है.
दूसरा तरीका झटका कहलाता है, जिसमें जानवर के सिर को एक ही झटके में शरीर से अलग कर दिया जाता है, जिससे वह तुरंत मर जाता है. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में मनाए जाने वाले नए साल उगाड़ी से पहले और उगाड़ी के अगले दिन, जब मांस देवताओं को अर्पित किया जाता है और हिंदुओं द्वारा खाया जाता है, तब कई दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों और यहां तक कि नेताओं ने वर्षादोदाकु के दौरान हलाल मांस के बहिष्कार का आह्वान किया.
हलाल मांस को भेदभावपूर्ण प्रथा, भोजन के रूप में थोपने और 'निर्दोष हिंदुओं' के खिलाफ साजिश के रूप में अलग-अलग तरीके से दिखाया गया. सबसे पहले समझते हैं कि वास्तव में भोजन थोपने का मतलब क्या है? यदि कोई मुस्लिम या ब्राह्मण अपनी धार्मिक भावनाओं के तहत क्रमशः सूअर या गोमांस खाने से इनकार करता है तो यह इनकार भोजन थोपना नहीं है, क्योंकि लोग भारतीय संवैधानिक अधिकार के तहत उन पदार्थों को खाने से इनकार कर सकते हैं, जो उनके स्वास्थ्य, विश्वास प्रणाली या धार्मिक प्रथा के खिलाफ हैं.
ग्राहकों के पास विकल्प मौजूद हैं
यदि वही व्यक्ति सत्ता पर काबिज हो जाता है और अपनी ताकत का इस्तेमाल अपनी मान्यताओं को बड़े तबके पर लागू करने की कोशिश शुरू कर देता है तो यह भोजन थोपना कहलाएगा. यदि कोई धार्मिक नेता अपने राजनीतिक दबदबे का इस्तेमाल उन सरकारी स्कूलों में अंडों का वितरण रोकने के लिए करता है, जहां बड़े पैमाने पर गरीब बच्चे पढ़ते हैं और उन्हें अंडे कुपोषण से बचाने के लिए खिलाए जाते हैं तो यह धार्मिक नेता द्वारा भोजन थोपने के बराबर है. यदि सत्ता में मौजूद पशु-प्रेमी लोगों का एक समूह जानवरों को मारने पर प्रतिबंध लगाता है, जिससे हजारों लोगों की आजीविका और भोजन की प्राथमिकताएं प्रभावित होती हैं तो यह निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा भोजन थोपने जैसा ही है. अगर होटलों, स्ट्रीट वेंडर्स और रेस्तरां की बात करें तो भारत में मनमोहक पाक विविधता का दावा किया जाता है, जो अलग-अलग तरह के लोगों की भूख-मनोविज्ञान और सामाजिक जरूरतों को पूरा कर सकता है.
अगर कोई होटल खुद को गर्व से 'शुद्ध शाकाहारी' बताता है तो यह उसका अधिकार है. सड़क के दूसरी तरफ यदि कोई होटल 'हलाल फूड' का बोर्ड लगाता है तो वह होटल भी अपने अधिकार के दायरे में रहकर ऐसा कर रहा है. इसे भोजन थोपने के रूप में नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि यहां ग्राहकों के पास विकल्प मौजूद हैं. अहम बात यह है कि लोग यहां तय कर सकते हैं कि वे क्या खाना चाहते हैं और क्या नहीं खाना चाहते हैं. यदि इनमें से कोई भी रेस्तरां मालिक ग्राहकों को अपने-अपने होटलों में जबरन घसीटकर ले जाते हैं और इन खाद्य पदार्थों को उनके हलक में डाल देते हैं (उन्हें नशीला पदार्थ देकर या उनके हाथ-पैर बांधकर), या धोखाधड़ी करके ग्राहकों को ठगते हैं तो यह भोजन थोपना कहलाएगा.
उदाहरण के लिए, यदि एक 'शुद्ध शाकाहारी' होटल में गोभी मंचूरियन बताकर चिकन मंचूरियन परोसा जाता है या हलाल मांस खाने वाले मुस्लिम को झूठ बोलकर गैर-हलाल मांस दिया जाता है तो इसे भोजन थोपने की श्रेणी में रखा जाएगा. जिस तरह लोगों के पास उन खाद्य पदार्थों को नकारने का विकल्प होता है, जिनका वे इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं. वैसे ही लोगों के पास उन खाद्य पदार्थों को खाने का अधिकार भी है, जिनका वे सेवन करना चाहते हैं. हालांकि, इस मामले में एक शर्त है कि वह भोजन कानून के तहत संरक्षित दुर्लभ भोजन न हो और उसका सेवन अवैध न हो.
गोमांस, पारंपरिक रूप से 'अछूत' के दायरे में रखा गया है
उदाहरण के लिए, यदि ऐसा समुदाय, जो सूअर का मांस नहीं खाता है और यह फतवा जारी करता है कि देश में किसी को भी सूअर का मांस नहीं खाना चाहिए, क्योंकि उस समुदाय के लोग खुद नहीं खाते हैं या कोई समुदाय कानून बनाकर पूरे देश में चिकन को सिर्फ इसलिए प्रतिबंधित कर दे, क्योंकि वह समुदाय चिकन नहीं खाता है तो यह भोजन थोपने जैसा ही है. यह मूल रूप से उन खाद्य पदार्थों को हटाने के लिए शक्ति का दुरुपयोग है, जिसे लोग कानूनी और सांस्कृतिक अधिकार के तहत खा सकते हैं.
हमें यह भी समझना चाहिए कि भारतीय संदर्भ में मांस के मायने कितने अलहदा हैं और जाति और जातिवादी प्रथाओं का इस पर कितना असर है. मांस, विशेष रूप से गोमांस, पारंपरिक रूप से 'अछूत' के दायरे में रखा गया है. इससे भी अहम बात यह है कि मांस का रखरखाव करने वालों या इसे खाने वालों को भी 'अछूत' के नजरिए से देखा जाता है. हालांकि, जो लोग बड़े स्तर पर मांस बेचते हैं या इसका कारोबार करते हैं, उन्हें अछूत के इस ठप्पे से करामाती तरीके से छूट मिली है.
हाल-फिलहाल में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जिसमें हलाल उपभोक्ताओं या हलाल स्टोर/भोजनालयों के मालिकों ने झटका स्टालों को रोका हो. वास्तव में यह सवाल पूछने की जरूरत है कि उन लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त झटका स्टॉल क्यों नहीं हैं, जिन्हें हलाल मांस की जरूरत नहीं है. दरअसल, इस मामले में मांस को अछूत मानने और जातिवाद से जुड़ाव का सटीक स्पष्टीकरण पेश कर दिया जाता है.
एएसएफ गरीबों को इतनी आसानी से नहीं मिल पाएंगे
कॉम्प्रिहेंसिव नेशनल न्यूट्रिशियन सर्वे (2018-19) के मुताबिक, कर्नाटक में महज 3.6 फीसदी बच्चों (6-23 महीने) को न्यूनतम स्वीकार्य आहार मिला. 18.3 फीसदी बच्चों को न्यूनतम स्तर पर अलग-अलग भोजन मिले तो 31.6 फीसदी को कम से कम उतनी बार भोजन मिला जितना उनके लिए बेहद जरूरी है. इसके अलावा महज 8.7 फीसदी बच्चों ने ही एक दिन पहले आयरन युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन किया था. सीएनएनएस विशेष रूप से उल्लेख करता है कि आयरन युक्त भोजन में 'चिकन, बत्तख या किसी दूसरे पोल्ट्री, ताजा या मरी हुई मछली या शेलफिश का लिवर, किडनी, हार्ट या अन्य अंग' को रखा गया है.
पिछले 24 घंटे के दौरान महज 21.9 फीसदी और 19.1 फीसदी बच्चों (2-4 वर्ष) ने क्रमशः मांसाहारी भोजन और अंडे का सेवन किया था. कर्नाटक में 32.5 फीसदी बच्चों (0-4 वर्ष) में स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कद कम होना) की दिक्कत है. कई पोषक तत्वों की कमी से बच्चे को गंभीर और पुरानी दोनों तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है, जिससे बाद के वर्षों में गैस्ट्रो-इनटेस्टानल, रेसपिरेट्री और स्किन डिसीज से लेकर डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और हार्ट डिसीज आदि का खतरा बढ़ जाता है.
इन न्यूट्रिशनल इंडिकेटर्स और साक्ष्यों को ध्यान में रखा जाए तो ज्यादातर खाद्य पदार्थों को एनिमल सोर्स फूड्स यानी पशु से मिलने वाले खाद्य पदार्थों के रूप में वर्गीकत किया जाता है. इन एनिमल सोर्स फूड्स (ASF) में सूअर का मांस, गोमांस, अंडे, चिकन, मछली, दूध और डेयरी प्रोडक्ट आदि शामिल हैं. दूध और डेयरी प्रोडक्ट को उनके कंपोजिशन की वजह से एएसएफ की श्रेणी में रखा गया है. राज्य में शायद ही कोई ऐसा नागरिक होगा, जो इन एएसएफ की ज्यादा डिमांड को लेकर थोड़ा-सा भी चिंतित होगा.
आप इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं
वे ज्यादा मीट स्टालों की मांग कर रहे होंगे, चाहे वह हलाल हो या झटका, बस मांस खाने वाले सभी लोगों को कम दाम पर और आसानी से मांस उपलब्ध होना चाहिए. वे देश की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने तक निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान करेंगे. वे कॉरपोरेट्स को बुलाएंगे, जिससे छोटे पोल्ट्री और पशुपालकों की आजीविका बर्बाद होगी और ये एएसएफ गरीबों को इतनी आसानी से नहीं मिल पाएंगे. वे मांस के संरक्षण, भंडारण और परिवहन पर और ज्यादा रिसर्च करने के लिए कहेंगे, जिससे ये खाद्य पदार्थ दूरदराज इलाकों में रहने वालों को मिल सके और ज्यादा समय तक चल सकें. वे हलाल और झटका व्यापारियों को आधुनिक उपकरण मुहैया कराने और प्रशिक्षण देने के लिए ज्यादा निवेश की मांग करेंगे, जिससे वे मांस को संभालने, पैक करने और स्टोर करने के आधुनिक तरीके सीख सकें.
वे अक्षय पात्र जैसे संगठनों को बेनकाब करेंगे जो मांस और अंडे के खिलाफ झूठा प्रचार करते है और सरकार द्वारा प्रायोजित मिड-डे मील के माध्यम से भोजन पाने वाले बच्चों पर इसे थोपते हैं. वे निश्चित रूप से मांस और मांस खाने वालों को कोसने वाले और ASF की पोषण संबंधी श्रेष्ठता के बारे में लोगों को जागरूक (व्हाट्सएप आदि पर) करने वालों को भी बेपर्दा करेंगे. समुदाय के स्तर पर सभी धार्मिक समूहों से जुड़े लोगों के बीच सामाजिक और आर्थिक संबंध होते हैं, जो राजनीतिक या वैचारिक एजेंडा से कमजोर और नष्ट हो जाते हैं. कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार द्वारा कर्नाटक वध और पशु संरक्षण अधिनियम 2020 को बड़ी तत्परता और बिना किसी योजना के साथ पारित किया गया था. राज्य में पशु व्यापार पर निर्भर कई क्षेत्रों पर इसका गहरा आर्थिक और न्यूट्रिशनल असर पड़ा और पड़ता रहेगा.
हलाल मांस के बहिष्कार के लिए तर्कहीन और प्रतिगामी आह्वान से दो धार्मिक समुदायों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. स्पष्ट रूप से, इन बहिष्कारों का आह्वान करने वालों को न तो आजीविका की परवाह है और न ही राज्य के कुछ बेहद कमजोर समुदायों की पोषण संबंधी जरूरतों की. वहीं, जो लोग पूरे मामले में तटस्थ बनकर तमाशा देख रहे हैं, उनके पास यह विकल्प है कि वे इसे नजरअंदाज करें, भीड़ का हिस्सा बनें, इन बहिष्कारों को तर्कसंगत बताएं या खुद को यह विश्वास दिलाएं कि आप वास्तव में पीड़ित हैं. वैकल्पिक रूप से, आप इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं. जैसा कि कहा जाता है अगर संविधान आपके पक्ष में है, तो सामाजिक न्याय भी पीछे नहीं रह सकता. यह अब भी एक विकल्प है…
Rani Sahu
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