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By: divyahimachal
मौत का दरवाजा इस बार हमीरपुर-मंडी जिला की सीमा पर टीहरा मोड़ पर खुला और एक युवती की इहलीला समाप्त हो गई। परिवहन में व्यस्तता और यात्रा में व्यस्तता के जोखिम जिस तरह नजरअंदाज हो रहे हैं, उसी के परिणाम स्वरूप परिवहन निगम की चलती बस का दरवाजा खुलते ही परिवहन सुरक्षा के मानदंड बिखर जाते हैं। ऐसी घटनाएं सडक़ पर वाहनों की ‘रेस’, रूट्स पर टाइमटेबल की भिडं़त, मानव जीवन में आ रहे परिवर्तन, स्थानीय यातायात की अस्तव्यस्तता, ट्रैफिक पुलिस की अक्षम परिपाटी और परिवहन नीति की अस्पष्टता के कारण बढ़ रही हंै, लेकिन इन्हें केवल कानूनी सीमा तक ही परखा जाता है। ये छोटे सफर की घातक सवारी क्यों बन रही हैं, इस पर विस्तृत विवेचना होनी चाहिए। आमतौर पर सडक़ दुर्घटनाओं में यातायात और जीवन की रफ्तार को प्राय: दोषी माना जाता है, लेकिन परिवहन को बदलते समय की मांग और दबाव में समझने के लिए व्यापक दृष्टि व समाधान खोजने होंगे।
बेशक प्रदेश में ब्लाइंड स्पॉट चिन्हित करके सडक़ मार्गों की स्थिति सुधारी जा रही है, लेकिन ड्राइविंग की बदलती प्रवृत्तियों ने इनसान को सडक़ पर अनियंत्रित शिष्टाचार का शिकार बना दिया है। विडंबना यह है कि यात्री बसें व टैक्सियां भी जब प्रतिस्पर्धा पर उतर आती हैं, तो आधुनिक जीवन के व्यावहारिक हालात भी तहस-नहस होने के कगार पर पहुंच जाते हैं। ऐसे में ट्रांसपोर्ट को मानवीय परिवर्तनों के आधार पर सक्षम बनाना होगा। हिमाचल में परिवहन की एक ही परिपाटी शहर से गांव से गुजर रही है। यही परिपाटी अंतरराज्यीय सीमा में प्रवेश करती है, तो स्थानीय परिवहन को भी इसी बंदोबस्त में देखती है। सडक़ें चौड़ी हो रही हंै, लेकिन मुकम्मल नहीं। बसें सवारियां ढोते हुए सडक़ पर बिना किसी चयनित ठहराव के रुकती और चलती हैं। पूरे प्रदेश में चौराहों को विकसित करने की कोई सोच समझ नहीं और न ही कभी यह मंत्रणा हुई कि प्रमुख मार्गों और गांव-देहात तक बस ठहराव की अधोसंरचना को कैसे विकसित किया जाए। इतना ही नहीं इससे आगे इंटर सिटी बस सेवा या शहरी परिवहन के विकल्पों पर कोई विचार तक नहीं होता। आश्चर्य यह कि शिमला व धर्मशाला जैसे स्मार्ट शहरों ने भी अपने ट्रांसपोर्ट बजट को परिवहन निगम की जेब में डाल दिया। धर्मशाला स्मार्ट सिटी का पैसा बारह करोड़ की वर्कशाप और पंद्रह करोड़ की इलेक्ट्रिक बसों पर तो खर्च हो जाता है, लेकिन इससे शहरी परिवहन को उसका विकल्प दिखाई नहीं दे रहा, बल्कि एचआरटीसी अपनी क्षतिपूर्ति कर रही है। आश्चर्य यह कि सडक़ हादसों को पीडब्ल्यूडी, पुलिस निगरानी, परिवहन विभाग और प्रशासन केवल कानूनी शक्ल में देखकर आगे बढ़ जाते हैं, जबकि मानवीय व्यवहार व जीवन के बदलाव को समझते हुए कई स्तर का ट्रांसपोर्ट नेटवर्क स्थापित करना होगा। इसके लिए ट्रांसपोर्ट विभाग को सारे प्रदेश का खाका बनाना होगा। उदाहरण के लिए प्रदेश के सबसे बड़े औद्योगिक व शहरी क्षेत्र बीबीएन में परिवहन सेवाओं और सडक़ सुरक्षा के दृष्टिगत ‘स्थानीय बस सेवा’ के माध्यम से पब्लिक ट्रांसपोर्ट नेटवर्क सुदृढ़ करना होगा। शिमला के अलावा धर्मशाला में रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम के लिए रज्जु मार्गों का जाल बुनना होगा।
ट्रांसपोर्ट की कलस्टर प्लानिंग में दो या इससे अधिक शहरों को मिला कर परिवहन के विकल्प तथा पब्लिक ट्रांसपोर्ट नेटवर्क को आदर्श बनाना होगा। पुलिस पैट्रोलिंग के माध्यम से सडक़ों पर आदर्श वाहन चालन आचार संहिता लागू करनी होगी, वरना टैक्सियां या बसें यात्रियों को सामान मान कर ढोती हुईं ऐसी विकराल परिस्थितियां पैदा करती रहेंगी, जिनके तहत टीहरा मोड़ जैसे बस स्टॉप भी घातक हो जाएंगे। प्रदेश में वाहन संचालन की कुशल परिपाटी तब विकसित होगी जब चौक-चौराहे व बस ठहराव की व्यवस्था अमल में लाई जाएगी, यात्री बसों के टाइम टेबल पर सौ फीसदी नजर होगी, कम से कम नगर निगम के स्तर तक स्थानीय बस सेवा की शुरुआत होगी तथा टैक्सी संचालन की परिपाटी बदलते हुए ग्रीन टैक्सी को राज्य के परिवहन अनुशासन का प्रमुख ब्रांड में बदल दिया जाएगा। सडक़ दुर्घटनाएं जितनी जिम्मेदार हैं, उतनी ही गैर जिम्मेदार परिवहन प्रणाली को बदलने तथा पूर्ण सुरक्षित बनाने की आवश्यकता है।
Rani Sahu
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