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- मौत के सीवर

आदित्य नारायण चोपड़ा; देश में सीवर में मौतों का सिलसिला लगातार जारी है। काेई देखने वाला नहीं, कोई सुनने वाला नहीं है। राजधानी दिल्ली में सीवर में फंसने के कारण कई सफाई कर्मियों की मौतें हो चुकी हैं। दिल्ली में पिछले पांच साल के मुकाबले वर्ष 2022 में सीवर में मरने वालों की सबसे अधिक मौतें हुई हैं। अप्रैल 2020 तक सीवर के 7 लोगों की मौत हुई। ऐसी घटनाएं देशभर में हो रही हैं। यद्यपि सरकारों का रुख इस मामले में ठंडा रहा है। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट भी फटकार लगा चुका है लेकिन कोई असर नहीं। कर्मचारियों की मौतें तो हाे ही रही हैं लेकिन सीवर आम लोगों के लिए भी जानलेवा साबित हो रहे हैं। फरीदाबाद के सैक्टर-56 में सीवर के खुले मेनहोल में गिरकर 24 वर्षीय बैंक कर्मचारी हरीश वर्मा की मौत सिस्टम पर बहुत से सवाल खड़ी करती है। मृतक की शादी भी तीन माह बाद होनी तय थी। परिवार वाले उसके दूल्हा बनने का इंतजार कर रहे थे लेकिन मां-बाप को मिली बेटे की लाश। कहा जाता है कि मेनहोल 6 माह से खुला पड़ा था। लोगों ने कई बार इसकी शिकायत संबंधित विभागों से की लेकिन सुनवाई नहीं हुई। इस सीवर के मेनहोल का निकास कहीं पर नहीं है। जब यह पूरी तरह भर जाता है तो हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के कर्मचारी सकर मशीनों से इसे खाली करते हैं लेकिन लापरवाह सिस्टम ने युवा की जान ले ली। अब जिम्मेदार अधिकारी और कर्मचारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने से भी युवक की जिंदगी नहीं लौट पाएगी। उसकी मौत ने परिवार को जीवनभर का जख्म दे दिया है।।बीते कुछ सालों में मैनुअल स्कैवेजिंग यानी हाथ से नालों की सफाई करते हुए सैकड़ों लोगों ने जान गंवाई है। पिछले 22 मार्च को लोकसभा के एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले ने बताया कि पिछले पांच वर्षों में सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 325 सफाई कर्मियों की मौत हुई। देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में इसी दौरान 52, तो महज 2 करोड़ की आबादी वाले राज्य दिल्ली में 42 सफाईकर्मियों की मौत हुई है। लोकसभा में जो आंकड़े पेश किये गए वह राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़ों से काफी अलग हैं। इसके अलावा कुछ बड़े राज्यों के आंकड़े हैरान कर देने वाले हैं।सीवर में मौतों की वजह बहुत साफ है कि बिना सुरक्षा उपकरणों के सफाई कर्मचारियों को उसमें उतार दिया जाता है, ये जानते हुए कि उनकी जान को खतरा है। सफाई का काम ठेकों पर करवाया जाता है और ठेकेदारों के पास सुरक्षा उपकरण है ही नहीं। ऐसी घटनाओं से जो सफाई मजदूरों को बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर और सैप्टिक टैंकों में उतारते हैं उनकी मानसिकता उजागर हो जाती है। उनके लिए इनकी जान की कीमत क्या होती है। यह लोग गरीब हैं। जाति के निचले पायदान पर हैं। किसी को भी इनके घरों में मातम पसरने का कई गम नहीं रहता। सरकारें मृतकों के आश्रितों को दस-दस लाख का मुआवजा देकर मसीहा बन जाती हैं। ऐसे कामों के खिलाफ 1993 OR 2013 में दो कानून बन चुके हैं। इनमें दोषियों के खिलाफ जुर्माने से लेकर जेल भेजने तक का प्रमाण है फिर भी ऐसे लोगों को जेल क्यों नहीं होती? मैन्यूल स्कैवंेजिंग कानून 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। अगर किसी खास परिति में सफाई कर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए कई तरह के नियमों का पालन करना होता है। अगर सफाई कर्मी किसी कारण से सीवर में उतरता है तो इसकी इजाजत इंजीनियर से होनी चाहिए और पास में ही एम्बुलेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि आपात स्थिति में उसे तुरंत अस्पताल पहंचाया जा सके। कई बार सीवर में सफाई कर्मी जहरीली गैसों का शिकार हो जाते हैं तो कई बार गंदे कचरे में फंस जाते हैं। 21वीं सदी के भारत में जिसमें हमने चांद को छू लिया है वहीं जमीन पर सीवर को साफ करने के लिए इंसानों को उतारना उनका दुर्भाग्य ही है। इसके अलावा दिशा-निर्देश कहते हैं कि सफाई कर्मियों की सुरक्षा के लिए आक्सीजन मास्क, रबड़ के जूते, सेफ्टी बेल्ट, रबड़ के दस्ताने, टॉर्च आदि होने चाहिए। तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में हम भले ही बहुत विकास कर चुके हैं तो दूसरी ओर महज एक रस्सी के सहारे सीवर में उतारे गए सफाईकर्मी अपनी जान देने को विवश है। आम बजट में भी केंद्र सरकार स्वच्छता के क्षेत्र में खुले में शौच मुक्त भारत के लिए करोड़ों का प्रावधान करती है लेकिन सीवर सिस्टमों और सैप्टिक टैंकों की सफाई को सुनिश्चित बनाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते। आखिर कब तक प्रशासन इन मौतों का मूक दर्शक बना रहेगा। क्या शासन-प्रशासन इस दिशा में कभी सोचेगा कि परिवार के एक मात्र कमाने वाले शख्स की सीवर में मौत के बाद परिवार पर क्या बीतती है। उनके परिवारों का भरण-पोषण कैसे चलता है। मौत के सीवरों के लिए भी ठोस नीति की आवश्यकता है ताकि बेशकीमतीं जानें नहीं जाएं।