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- बिहार में ‘मौत राज’
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By: divyahimachal
बिहार में ‘जंगल राज’ का विशेषण लंबे अंतराल तक चला। यह विशेषण उसकी छवि और पहचान बन गया था। इसकी चर्चा आजकल भी सुनाई देती है, लेकिन अब विशेषण बदल कर ‘मौत राज’ कर दिया जाना चाहिए। बिहार पुलिस इतनी असहिष्णु और इतने क्रोध, आवेश में रहती है कि विरोध करने वालों की लाशें ही बिछा देती है। कभी लाठियां बरसा कर, तो कभी गोली दाग कर उन नागरिकों को मौत के घाट उतारा जा रहा है, जिन्हें देश के संविधान ने मौलिक अधिकार प्रदान कर रखे हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया गया है, तो शांति से विरोध-प्रदर्शन, धरना, आंदोलन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया है। यदि मौलिक अधिकार और मानवाधिकारों को ही कुचला जाएगा, तो उसकी सजा क्या होगी? ‘सुशासन बाबू’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके ‘उप’ तेजस्वी यादव तो खामोश हैं। पुलिस के हत्यारे प्रहारों की जांच पुलिस ही करेगी, तो सोच लीजिए कि इंसाफ की नियति क्या होगी? बिहार के संदर्भ में हमारी चिंता और सरोकार इसलिए अधिक है, क्योंकि बिहार देश के सबसे गरीब और पिछड़े राज्यों में एक है। इसकी फितरत ही आपराधिक है। सत्ता पर वे दल और चेहरे काबिज हैं, जिन्हें बुनियादी जनादेश नहीं मिला था। लिहाजा लोकतंत्र और संविधान को ठेंगा दिखाया जा रहा है। ऐसी गठबंधन सरकारें कई राज्यों में बनी हैं, जिसके नेता ‘मौसेरे भाई’ की भूमिका में हंै। दो और दो मिला कर 22 करने की कोशिशें की जाती रही हैं, लिहाजा संविधान में संशोधन करने की जरूरत है। बहरहाल यह भारी उमस और गर्मी का मौसम है। जुलाई सबसे गरम महीना आंका गया है।
यह जलवायु-परिवर्तन का ही फलितार्थ है। बेशक बारिश और बाढ़ ने बहुत कुछ तबाह किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था की अग्रिम घोषणा बड़े गुमान-भाव से की है। आंकड़े गिनाए जा रहे हैं कि देश 4 लाख मेगावाट से अधिक बिजली का उत्पादन कर रहा है। भारत सरकार ने 3.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को बिजली के उजाले मुहैया कराए हैं। यह भी तथ्य है कि देश के 40 फीसदी घरों में औसतन 2-8 घंटे तक बिजली गुल रहती है। बिहार के कई हिस्सों में तो बदतर हालात हैं। यदि बिजली की मांग या समस्या को लेकर नागरिकों ने विरोध-प्रदर्शन किया था और बिजली विभाग के दफ्तर पर धावा बोल कर कुछ तोड़-फोड़ की थी, पथराव किया था, तो प्रतिक्रिया में क्या पुलिस उन प्रदर्शनकारियों को गोली मार कर ढेर कर देगी? क्या प्रदर्शनकारी आतंकवादी, नक्सलवादी, गुंडे-बदमाश थे कि पुलिस ने उन पर गोली चलाई? क्या पुलिस का प्रशिक्षण और संयम सिर्फ गोली दागने तक ही सीमित है?
गोली चलाने से पहले चेतावनी, पानी की बौछार, आंसू गैस, हवाई फायर सरीखे विकल्प क्या नुमाइश के लिए रखे गए हैं? पुलिस ने कमर के नीचे गोली मारने की बजाय सीधे माथे पर ही निशाना साधा था, लिहाजा दो मासूम युवाओं की मौत हो गई। उनके परिजन रोते-बिलखते इंसाफ मांग रहे हैं और प्रधानमंत्री तक आने की गुहार लगा रहे हैं। क्या उन्हें इंसाफ मिलेगा? यदि पुलिस ऐसे ही प्रहार करती रही, तो देश के नागरिक जिंदा कैसे बचेंगे? बीते वर्ष ही बेरोजगार युवाओं ने नौकरी और भर्ती के लिए प्रदर्शन किया था, तो पुलिस ने लाठीचार्ज कर उनकी हड्डियां ही तोड़ दी थीं। अभी 13 जुलाई को पुलिस ने इस तरह लाठियां भांजी कि भाजपा के एक कार्यकर्ता की मौत हो गई। दरअसल बिजली संकट देश के अधिकतर राज्यों में है। उप्र में भी बिजली घंटों गायब रहती है। यह स्थिति तो सरकार के सुधार करने के दावों के बाद की है। गुरुग्राम ‘साइबर शहर’ है। बहुत महंगा भी है। वहां भी अक्सर बिजली कटौती की जाती रही है। थोड़ी-सी बारिश होती है, तो सडक़ें ‘तालाब’ बन जाती हैं और बिजली गुल कर दी जाती है। क्या अब भी हम ‘पाषाणकालीन तकनीक’ के साथ जी रहे हैं? संकट और अभाव के मायने ये नहीं हैं कि पुलिस ‘असंतुष्ट जमात’ की लाशें ही बिछाती रहे। केंद्र सरकार को सख्त कदम उठाते हुए बिहार सरकार से जवाब तलब करना चाहिए। अगर इसी तरह लाशें बिछती रहीं, तो लोग सरकार के खिलाफ अपना रोष भी प्रकट नहीं कर पाएंगे।
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Rani Sahu
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