- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- व्यंग्य की मौत
x
एक दिन व्यंग्य को न जाने क्या सूझा। अपने मालिक यानी व्यंग्यकार की किताबों से बाहर निकल कर आत्महत्या करने चल पड़ा। दरअसल वह एक तरफ अपने मालिक के व्यवहार से कुंठित था, जो उसे खूंटे पर टांग कर लिखता था, दूसरी ओर पाठकों के बीच अपनी योग्यता को लेकर भी परेशान था। अफसोस यह कि उसे पाठक चुटकुला समझकर सोचने लगे हैं कि अब व्यंग्य खिलखिलाता क्यों नहीं, जबकि वह अपने लेखक की निजी टिप्पणियों से आतंकित है। व्यंग्य को अपनी ईमानदारी पर गुरूर था। उसे यह भ्रम था कि एक वह ही है जो देश को देश की तरह नहीं देखकर भी देश में हो रहे व्यंग्य को देख रहा है। जब देश में हास्य न हो और समाज में हंसने के लिए चेहरा न हो, तो लेखक करे भी तो क्या। लिहाजा जो व्यंग्यकार बने, वे सभी अपनी-अपनी व्यथा के मजमून ही तो हैं। अटपटे विषय पर जो खुद को अपमानित कर सके, उसे व्यंग्यकार होने का मौलिक अधिकार है, लेकिन हमारा व्यंग्य अपने ही सृजन से व्यथित है। दरअसल लेखक और व्यंग्य के बीच यह फैसला नहीं हो रहा कि दोनों के बीच असाधारण कौन है। आज का व्यंग्य समझदार है, उसने खुद को सामान्य वर्ग की तरह देखना शुरू कर लिया है। वह इस मुगालते में नहीं है कि व्यंग्यकार की वजह से ही उसे मुकाम मिलेगा, बल्कि भरोसा इस देश के ऊपर है कि यहां आजकल कुछ भी होना व्यंग्य है। देश की तरक्की या देश की भक्ति, अगर सामान्य सोच से भी लिखेंगे, तो बड़ा व्यंग्य हो जाएगा।
दरअसल व्यंग्य को व्यंग्यकार पैदा नहीं कर पा रहा, क्योंकि उसे तो किताब के लिए व्यंग्य जोडऩा है। व्यंग्य सडक़ व रेल दुर्घटनाओं तक पहुंचकर भी नहीं मरा, तो एक दिन कवि सम्मेलन में पहुंच गया। वहां हर कविता दुर्घटना जैसी थी और कवि दुर्घटनावश वहां था। तभी एक कविता उससे उलझ पड़ी। वह हास्य कविता थी, इसलिए व्यंग्य की औकात पर संदेह कर रही थी। कविताएं सुन कर व्यंग्य का यह भ्रम भी टूट गया कि सिर्फ पाठक या श्रोता के लिए सम्मेलन होता है। कविता मुख्य अतिथि की तरफ मुखातिब होकर भी गूंगी थी और भाषा अकादमी का प्रश्रय पाकर भी बहरी थी। व्यंग्य ने गूंगा या बहरा बनने के बजाय ऐसी राह चुनने का प्रयास किया, जहां शांति से मरा जा सके। तभी उसने देखा सामने किसी कहानीकार की अर्थी निकल रही थी। किसी फटी किताब की तरह कफन से झांकती एक लाश, कहानी सुना रही थी। कहानीकार ने समाज को हर जगह जगाया, मौत से बचाया। कई कहानियां, उपन्यास व नाटक लिख दिए, लेकिन उसकी मौत पर शब्द खामोश थे और राह सूनी थी। व्यंग्य उसके साथ हो लिया। उसने सोचा मौत से बड़ा व्यंग्य और क्या होगा। जीवन के व्यंग्य में मौत को देखकर व्यंग्य ने सोच लिया कि वह इस कहानीकार की पार्थिव देह से लिपट कर मर जाएगा, लेकिन तभी कविता भी वहां रोती-बिलखती पहुंच गई। कविता की आंखों में आंसू थे और वह लेखक की कहानी के लिए सती हो रही थी। व्यंग्य इस मंजर से अभिभूत होकर सिर्फ लिख रहा था ताकि जमाना जान सके कि मौत से बड़ा व्यंग्य आज तक पैदा नहीं हो सका।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
Next Story