सम्पादकीय

ये मौत एक सवाल है

Triveni
7 July 2021 5:09 AM GMT
ये मौत एक सवाल है
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मुद्दा यह नहीं है कि फादर स्टेन स्वामी पर जो आरोप राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने लगाए थे,

मुद्दा यह नहीं है कि फादर स्टेन स्वामी पर जो आरोप राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने लगाए थे, वे सही हैं या नहीं। उन आरोपों को सही साबित करना एनआईए की जिम्मेदारी है। यह काम अदालतों का है कि वे एनआईए की तरफ से पेश सबूतों का परीक्षण करते हुए इस बारे में अपना निर्णय दें। लेकिन सवाल उस न्याय तक पहुंचने की प्रक्रिया का है। कभी भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक सिद्धांत स्थापित किया था कि बेल नियम है और जेल अपवाद। प्रश्न है कि कोरोना महामारी के विकट काल में एक 84 साल का पार्किंसन रोग से पीड़ित व्यक्ति के लिए ये सिद्धांत क्यों नहीं लागू हुआ? हालांकि आज देश में न्याय व्यवस्था का जो हाल है, उसे जानने वाले किसी व्यक्ति के लिए ये सवाल अनुत्तरित नहीं है, इसके बावजूद इसे बार-बार उठाए जाने की जरूरत है। क्या अगर व्यक्ति की संविधान प्रदत्त आजादी की रक्षा जब न्यायपालिका की प्राथमिकता ना रह जाए, तो उससे खुद न्याय व्यवस्था कठघरे में खड़ी नहीं होती है? फादर स्टेन स्वामी ने रिहाई की गुहार लगाते-लगाते जेल में ही दम तोड़ दिया।

लेकिन उनकी जैसी ही परिस्थितियों में अभी अनगिनत सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता जेलों में बंद हैं। ना उनकी सुनवाई हो रही है, ना उन्हें रिहा किया जा रहा है। हाल में जब दिल्ली के दंगों के सिलसिले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार नताशा नारवाल, देवांगना कलीता और आसिफ इकबाल तन्हा को दिल्ली हाई कोर्ट ने जमानत दी, तब खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये व्यवस्था दे दी कि ये जमानत दूसरे मामलों के लिए मिसाल का काम नहीं करेगी। ये वही कोर्ट है, जिसने एक सरकार समर्थक पत्रकार को जमानत देने के लिए विशेष सुनवाई की थी और तब उसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान प्रदत्त अधिकारों का खूब बखान किया था। लेकिन ये बातें फादर स्टेन स्वामी और दूसरे कार्यकर्ताओं के मामलों में भुला दी गईं। हालात तो यहां तक बने कि जेल जाने के कुछ ही दिनों बाद स्वामी ने विशेष एनआईए अदालत से गुजारिश की थी कि उन्हें पानी पीने के लिए एक सिप्पर और स्ट्रॉ दिलवा दिया दिया जाए, क्योंकि पार्किंसंस बीमारी से पीड़ित होने की वजह से वो पानी का गिलास उठा नहीं पाते हैं। तो इस अर्जी पर अदालत ने सुनवाई तीन हफ्ते टाल दी थी। उन्हें एक सिप्पर और स्ट्रॉ जैसी छोटी से मानवीय सहायता भी करीब 50 दिनों बाद दी गई। तो साफ है, वे भारतीय न्याय पर एक सवाल बन कर दुनिया से गए हैँ। इसके जवाब के साथ भारतीय लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा है।


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