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परोक्ष रूप से संक्रमित नागरिकों को न्याय नहीं मिल सकेगा।
दिव्याहिमाचल.
कोरोना वायरस से हुई मौतों का सरकारी मुआवजा सिर्फ 50,000 रुपए प्रति….वाकई 'ऊंट के मुंह में जीरे' समान है। मुआवजा केंद्र सरकार का विभाग नहीं देगा, बल्कि राज्य सरकारों के आपदा राहत कोष पर बोझ डालने की नीति तय की गई है। केंद्र सरकार के ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने यह पेशकश सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखी है। बुनियादी मांग थी कि कोरोना के कारण मृत व्यक्ति के परिजन को कमोबेश 4 लाख रुपए की अनुग्रही राशि दी जाए। सर्वोच्च अदालत की इच्छा भी यही थी, लेकिन उसने भारत सरकार का निर्णय जानने की पहल की। केंद्र सरकार के फैसले का हलफनामा अभी सुप्रीम अदालत में दाखिल किया जाना है, लेकिन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ने स्थितियों का खुलासा कर दिया है कि मुआवजा 50,000 रुपए प्रति ही दिया जा सकता है। भारत में कोरोना से मौतों का सरकारी आंकड़ा करीब 4.50 लाख है। वैसे कई अध्ययन मौत का अनौपचारिक आंकड़ा 50 लाख तक आंकते रहे हैं। विदेशी मीडिया, शोध प्रकाशनों और एजेंसियों ने भी लगभग ऐसे ही दावे किए हैं। आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की पेशकश के मद्देनजर राज्य सरकारों की जेब से 2250 करोड़ रुपए का अनुग्रही भुगतान करना पड़ेगा।
राज्यों के लिए यह किसी प्रशासनिक और आर्थिक चुनौती से कम नहीं है। हालांकि प्रत्येक राज्य आपदा राहत कोष में 75 फीसदी योगदान भारत सरकार का होता है। पहाड़ी और पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 90 फीसदी योगदान केंद्र सरकार ही देती है, लेकिन ये अनुदान तमाम आपदाओं से निपटने के लिए होते हैं, लिहाजा इस पेशकश में भी कई सवाल निहित हैं। हालांकि मौजूदा वित्त वर्ष में राज्य आपदा राहत कोष में करीब 30,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त कोष भी जोड़ा गया है, लेकिन वह भी अपर्याप्त है। अहम सवाल यह है कि किसे कोरोना का मृतक माना जाएगा? यदि संक्रमित व्यक्ति अस्पताल में दाखिल नहीं है और बाहर कहीं भी कोरोना के कारण उसकी मौत हुई है, तो उसे प्रमाणित कौन करेगा कि मौत कोरोना संक्रमण के कारण हुई है? अस्पताल में सभी कोरोना मरीजों और बाद में मौत होने पर ऐसे प्रमाण-पत्र नहीं दिए गए हैं। उसके पीछे दृष्टि रही है कि मौत के आंकड़े बढ़ा कर पेश न किए जाएं। इस प्रक्रिया में गरीब और आम आदमी सरकारी मुआवजे से लगातार वंचित रहेंगे, क्योंकि न तो मौत का अधिकृत प्रमाण-पत्र होगा और न ही वे लड़-भिड़ कर अपना अधिकार हासिल कर सकेंगे। गौरतलब है कि बाढ़, भूकम्प और सूखे जैसी अधिसूचित आपदाओं पर खर्च करने के लिए भी पर्याप्त कोष चाहिए और सरकारों को यह ध्यान में रखना पड़ेगा। आपदा राहत कोष अक्सर संकुचित ही रहते हैं, लिहाजा वित्तीय संकट, तनाव और दबावों के मौजूदा दौर में कोरोना मौतों की गणना भी कम दिखाई जाएगी। परोक्ष रूप से संक्रमित नागरिकों को न्याय नहीं मिल सकेगा।
सरकार का दायित्व है कि आपदा के दौर में, खासकर चपेट में आए, नागरिकों को पर्याप्त मुआवजा मुहैया कराया जाए। बेशक एक दिहाड़ीदार या मजदूर के परिवार के लिए 50,000 रुपए की अनुग्रही राशि भी बेहद मायनेदार है, बेशक एक कॉरपोरेट नौकरीपेशा या अपेक्षाकृत सम्पन्न जमात के परिवार के लिए ऐसे मुआवजे की उतनी जरूरत न हो, लेकिन हमारा मानना है कि कोरोना के व्यापक परिदृश्य में, उसके घातक और जानलेवा परिणामों के मद्देनजर, भारत सरकार को गंभीर मंथन जरूर करना चाहिए और जनहित का निर्णय सुप्रीम अदालत के सामने पेश करना चाहिए। केंद्र सरकार को अपना दायित्व राज्य सरकारों की ओर नहीं खिसकाना चाहिए, क्योंकि कोरोना एक व्यापक और अनंत मुद्दा है। कोई दावा नहीं कर सकता कि कब यह महामारी समाप्त होगी या इस पर प्रभावी नकेल कसी जा सकेगी। हालांकि प्रयास अनवरत हैं। भारत सरकार को इस संदर्भ में एक विशेष कोष का गठन करना चाहिए। सवाल यह भी उठेगा कि अन्य आपदाओं पर भी मुआवजे का प्रावधान क्यों न किया जाए? आपदाओं की परिभाषा तो स्पष्ट है। अलबत्ता कोरोना अभी तक अधिसूचित आपदा नहीं थी। जिस देश में स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं का ढांचा चरमराता रहा हो, जीडीपी का 'जीरे' समान हिस्सा ही खर्च किया जाता रहा हो, उस देश में कोरोना पहली और अंतिम बीमारी नहीं होगी, लिहाजा महामारी सरीखे तमाम रोगों के कारण मौतों के लिए मुआवजे की एक स्थायी व्यवस्था हो।
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