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महात्मा गांधी की पुण्यतिथि
दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के कुछ महीनों बाद अप्रैल, 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी दिल्ली में थे, जहां उन्होंने सेंट स्टीफंस कॉलेज के छात्रों की एक सभा को संबोधित किया। इस सभा में विभिन्न धार्मिक समुदाय के लोग मौजूद थे, जिन्हें संबोधित करते हुए गांधी ने अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के बारे में बात की, जिनका कुछ हफ्ते पहले ही पुणे में निधन हो गया था। गांधी ने कहा, 'गोखले एक हिंदू थे, लेकिन सही ढंग के।
एक बार उनके पास एक हिंदू संन्यासी आया और उसने हिंदुओं के राजनीतिक मुद्दों को इस तरह आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा, जिससे मुसलमानों का दमन हो। उसने अनेक विशेष धार्मिक कारण बताते हुए अपने इस प्रस्ताव पर जोर दिया। श्री गोखले ने उस व्यक्ति को इन शब्दों के साथ जवाब दियाः "एक हिंदू होने के लिए यदि मुझे वह करना होगा, जैसा आप मुझसे करवाना चाहते हैं, तो कृपया विदेश में यह प्रकाशित करवा दें कि मैं हिंदू नहीं हूं"।'
बीसवीं सदी के पहले दशक में कुछ हिंदू राजनेताओं के साथ ही हिंदू संतों ने दावा किया कि संख्यात्मक बहुमत ने उनके समुदाय को भारत में राजनीति और शासन में वर्चस्व का अधिकार दिया है। इस विश्वास को गांधी ने जोरदार तरीके से खारिज कर दिया। अपने गुरु गोखले की तरह उन्होंने भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने के प्रलोभन में आने से इनकार कर दिया। गोखले की तरह ही उन्होंने भारत के बड़े धार्मिक समुदायों, हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच पुल बनाने के लिए लगातार काम किया।
इस खुले दिमाग और गहरे मानवीय दृष्टिकोण ने उनके अपने समुदाय के कट्टरपंथियों को नाराज कर दिया, जिन्होंने गांधी का उनके पूरे सार्वजनिक जीवन के दौरान विरोध किया और अंततः चौहत्तर साल पहले आज के दिन उनकी हत्या करने में सफल रहे। हाल ही में आई अपनी किताब गांधीज असैसिन में धीरेंद्र के झा ने यह बताने के लिए अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं कि दावों के विपरीत नाथूराम गोडसे ने 1940 के पूरे दशक के दौरान 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से करीबी संबंध बनाए रखा।
गोडसे की तरह ही, आरएसएस यह मानता था और अब भी मानता है कि देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में पहला और श्रेष्ठ दावा हिंदुओं का है। वह इस आधार पर सोचता और काम करता है कि हिंदू किसी भी रूप में मुस्लिमों और ईसाइयों की तुलना में स्वाभाविक और अनिवार्य रूप से कहीं अधिक भारतीय हैं। इस हिंदू श्रेष्ठता ने आरएसएस और उससे संबद्ध संगठनों को निश्चित रूप से गांधी का विरोधी बना दिया, जैसा कि हम आगे आने वाले पैराग्राफ में देखेंगे।
आरएसएस के विपरीत, जो कि भारत में हिंदुओं के विशेष दावे की बात करता है, गांधी मानते थे कि देश में सभी धर्म के लोगों का समान अधिकार है और वे सभी इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। गांधी की नैतिक दृष्टि और उनके राजनीतिक व्यवहार, दोनों ने भारत के इस समावेशी विचार को मूर्त रूप दिया। इस संदर्भ में उस महत्वपूर्ण बुकलेट पर गौर कीजिए, जिसे उन्होंने अपनी पार्टी के रचनात्मक कार्यक्रम के रूप में 1945 में प्रकाशित किया था।
इस कार्यक्रम का पहला तत्व था, सामुदायिक एकता, उसके बाद अस्पृश्यता उन्मूलन, खादी को प्रोत्साहन, महिलाओं का उत्थान और आर्थिक समता (यह सब उन्हें प्रिय थे) जैसे विषय आए। इस महत्वपूर्ण परिचयात्मक खंड में गांधी ने लिखा, सांप्रदायिक एकता को हासिल करने के लिए पहली अनिवार्य चीज है कि प्रत्येक कांग्रेसी चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, व्यक्तिगत रूप से वह खुद को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जोरास्टियन, यहूदी इत्यादि के रूप में प्रस्तुत करता हो, संक्षेप में कहें तो हिंदू या गैर हिंदू के रूप में।
उसे हिंदुस्तान के लाखों निवासियों में से हर एक के साथ अपनी पहचान महसूस करनी होगी। इसे साकार करने के लिए, प्रत्येक कांग्रेसी अन्य धर्मों का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत मित्रता बनाएगा। उसे दूसरे धर्मों के प्रति वैसा ही सम्मान रखना चाहिए, जैसा कि वह अपने धर्म के प्रति रखता है। इसके दो साल बाद कांग्रेस और गांधी ब्रिटिश भारत के धार्मिक आधार पर हुए विभाजन को नहीं रोक सके।
भाग्यवाद और अवसाद के आगे झुकने के बजाय, या बदले और प्रतिशोध की भावना में डूबने के बजाय गांधी ने अपनी सारी ऊर्जा उन मुसलमानों को यह आश्वस्त करने के लिए समर्पित कर दी, जो भारत में रह गए थे कि उन्हें भी समान नागरिकता का अधिकार मिलेगा। सांप्रदायिक सद्भाव के लिए सितंबर, 1947 में कलकत्ता में और जनवरी, 1948 में दिल्ली में किए गए उनके साहसी उपवासों के बारे में बहुत लिखा जा चुका है। एक कम ज्ञात, संभवतः उतना ही महत्वपूर्ण उनका एक भाषण भी था, जो उन्होंने 15 नवंबर, 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में दिया था।
इसमें गांधी ने कहा : 'मैं चाहता हूं कि आप कांग्रेस के मूल चरित्र के प्रति सच्चे रहें और हिंदुओं और मुसलमानों को एक बनाएं, जिसके लिए कांग्रेस ने साठ साल से अधिक समय तक काम किया है। यह आदर्श आज भी कायम है। कांग्रेस ने कभी यह नहीं कहा कि वह केवल हिंदुओं के हित के लिए काम करती है। कांग्रेस के जन्म के बाद से हमने जो दावा किया है, क्या अब हमें उसे छोड़ देना चाहिए और एक अलग धुन गानी चाहिए? कांग्रेस भारतीयों की है, इस भूमि में रहने वाले सभी लोगों की, चाहे वे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख या पारसी हों।'
गांधी की मृत्यु के कुछ सप्ताह बाद, उनके अनुयायियों का एक समूह सेवाग्राम में इस बात पर चर्चा करने के लिए मिला कि आगे क्या करना है। इसमें आरएसएस का जिक्र आया, सिर्फ इसलिए नहीं कि गोड्से आरएसएस का सदस्य था, बल्कि इसलिए कि आरएसएस प्रमुख एम. एस. गोलवलकर ने गांधी की हत्या से पहले कुछ द्वेषपूर्ण सांप्रदायिक भाषण दिए थे। मार्च 1948 में सेवाग्राम में हुई गांधीवादियों की इस बैठक में विनोबा भावे ने टिप्पणी की, 'आरएसएस दूर-दूर तक फैल गया है और इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
यह चरित्र में पूरी तरह से फासीवादी है। ... इस संगठन के सदस्य दूसरों को अपने विश्वास में नहीं लेते हैं। गांधी जी का सिद्धांत सत्य का था; ऐसा लगता है कि इन लोगों का सिद्धांत असत्य का होना चाहिए। यह असत्य उनकी तकनीक और उनके दर्शन का अभिन्न अंग है।' विनोबा ने गांधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन और हिंदुत्व के समर्थकों के बीच की विशाल खाई की भी व्याख्या कर दी। उन्होंने कहा, 'आरएसएस की कार्यप्रणाली हमेशा हमारे खिलाफ रही है।
जब हम जेल जा रहे थे, तो उनकी नीति सेना या पुलिस में भर्ती होने की थी। जहां कहीं भी हिंदू-मुस्लिम दंगों की आशंका होती थी, वहां वे हमेशा जल्दी पहुंच जाते थे। उस समय की सरकार (ब्रिटिश राज) ने इन सब में अपना फायदा देखा और उन्हें प्रोत्साहन दिया; और अब हमें परिणामों का सामना करना पड़ रहा है।' आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत की शैली उनके कुछ पूर्ववर्तियों की तुलना में कम क्रूर है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह हिंदू वर्चस्ववाद की समान विचारधारा के समर्थक हैं।
(हाल ही में हरिद्वार में घृणा फैलाने वाले भाषणों पर उनकी चुप्पी इस बात का खुलासा कर रही है) 2022 में, 1948 की तरह, हिंदुत्व की अल्पसंख्यक-विरोधी विचारधारा और गांधी के बहुलतावादी और समावेशी दर्शन के बीच एक गहरी खाई बनी हुई है। उस समय की तरह, भारतीयों को इनमें से किसी एक का चयन करना होगा। हम कितने बुद्धिमान और साहसी हैं, या हो सकते हैं, इस पर गणतंत्र का भविष्य निर्भर हो सकता है।
अमर उजाला
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