सम्पादकीय

शव संवाद-3

Rani Sahu
30 July 2023 7:04 PM GMT
शव संवाद-3
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बुद्धिजीवी को शमशानघाट से निकलते देख, एक कवि ने लपक लिया। पहली बार एक कवि का अभिवादन पाकर दुनिया के अंतिम बुद्धिजीवी को पल भर तो लगा कि उसकी प्रासंगिकता नए युग में प्रवेश कर गई है, लेकिन कविताओं के साथ वह खुद को नहीं सुन पा रहा था। कवि महोदय को विश्वास था कि यह बुद्धिजीवी उसकी कविताओं का बोझ उठा पाएगा, इसलिए वह उसके ऊपर एक-एक करके लादने लगा। बुद्धिजीवी यूं तो लाशें ढोने में माहिर हो गया था, लेकिन कविताओं के भीतर उसे कहीं कहीं जिंदा शब्दों का वजन महसून होने लगा। उसे यकायक याद आया कि जब जब उसके आसपास शब्द जिंदा रहे, लोगों ने उसे बुद्धिजीवी माना, लेकिन जीवन शब्दों से कहां चलता। शब्द अब तो पढऩे के बजाय गढऩे की शक्ति है। उसने भी खूब गढ़े थे। सरकारी नौकरी की हिफाजत में शब्द मुलायम कालीन की तरह कि कोई भी उनके ऊपर से गुजर जाए। शब्द ऐसे चुने जा सकते हैं कि पढक़र भी अर्थ समझ न आए। उसने कई बॉस देखे जो केवल शब्द थे या व्यवस्था का ऐसा उच्चारण बन गए कि देखते ही देखते सदियां अर्थहीन हो गईं।
कवि को पहली बार कोई ऐसा बुद्धिजीवी मिला था, जो उसके साहित्य का बोझ उठा सकता था, वरना अब तो कवि सम्मेलनों में भले ही कवि आ जाएं, लेकिन श्रोताओं में बुद्धिजीवी का होना मुमकिन नहीं। दरअसल यह कवि भी आम कवि नहीं था। उसकी जिंदगी ही कविता थी, लिहाजा जो लिखता उसे खुद ही पढक़र प्रसन्न रहता। वह भ्रम में रहा कि उसके लिखे पर कभी कोई रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, कबीर, तुलसीदास या कालिदास निकल आएगा, लेकिन जब जब कविता लिखी, कोई न कोई उधार निकल आया। उसने कविताओं को जिंदा रखने के लिए अपने पैसों पर पुस्तकें निकालीं, लेकिन सबसे अधिक कविताएं तब मरीं जब भाषा विभाग और अकादमी ने इन्हें खरीदा। उसकी कमोबेश हर कविता किसी न किसी पुस्तकालय की अल्मारी में मरती है, बल्कि कवि सम्मेलनों में आए कवि कोई महान काम करते हैं तो यही कि उसकी कविता की मौत घोषित कर देते हैं। बुद्धिजीवी को यह सुनकर भ्रम होने लगा। उसे लगा या तो वह भी कवि है या कवि को सुनकर कवि हो जाएगा। वैसे उसने जिंदगी भर अपने कार्यालय को भी कई कई बार कवि सम्मेलन होते देखा था।
सरकारी नौकरी में बड़े साहबों को कवि होते देखा था। चाटुकारिता के शब्दों में कविता अगर जिंदा है, तो किसी बड़े साहब की पंक्तियां खुशामद का सदैव अवसर देती हैं। शमशानघाट से लौटे बुद्धिजीवी को अब यह फैसला करना था कि इस बार वह कविता को उठाए या कवि को उठाकर वहां ले जाए। कवि उसका मनोभाव पढ़ चुका था, लेकिन वह यह नहीं चाहता था कि उसके कारण कविता की शवयात्रा निकले, इसलिए कहने लगा, ‘मेरा आशय बुद्धिजीवी को कवितामय बनाना नहीं और न ही मैं चाहता हूं कि मेरी कविताओं के कारण लोगबाग बुद्धिजीवी हो जाएं। जब देश को ही पढऩे से बुद्धिजीवी कतरा रहा है, तो मैं अपनी कविताओं के माध्यम से क्यों खलल डालूं।’ दरअसल कवि अपनी कविताओं को आज के दौर से बचाना चाहता था। उसने अपनी आंखों के सामने देश की कहानियों, देश के वाक्यों और देश के संवादों को मरते देखा था। देश जिस रफ्तार से अपनी अभिव्यक्ति बदल रहा है, उससे नहीं लगता कि कोई शब्द कहने के लायक बचेगा। कवि ने कविता को बचाने के लिए बुद्धिजीवी से सारी कविताएं वापस मांग ली और खुद उसके कंधे पर चढ़ गया। ठीक एक शव की तरह बुद्धिजीवी ने कवि को शमशानघाट पहुंचा दिया। वहां पहले से ही कई मुर्दे अधबीच, अधमरे, अधकचरे और अधखुले पड़े थे। कवि इन शवों के बीच अधपकी कविताओं को शमशानघाट की आग में तपाने लगा, तो बुद्धिजीवी पुन: एक लाश की तलाश में बाहर निकल आया।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal

Rani Sahu

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