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- शव संवाद-2
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इनसान ने युगों से रिश्ते क्या तोड़े, धरती और आसमान एक हो गए। सारी बिरादरियां बदल गईं, लेकिन विवेकशील लोग अब केवल मरघट पर ही सारी चर्चाएं करते हैं। जब कभी बुद्धिजीवियों को लोगबाग देखना चाहते हैं, तो शव यात्रा के बहाने शव संवाद पैदा हो जाता है। अब तो बुद्धि का मापतोल किसी न किसी शव के आसपास हमें सोचने का मौका देता है। वैसे भी देश में लाशें ही तो बताती हंै कि जीवन में बुद्धि सिर्फ श्मशानघाट में जागृत होती है। वह बुद्धिजीवियों की पांत में कभी खुद को आगे रखता था, लेकिन अब इतना पिछड़ गया है कि उसे हर दिन किसी न किसी लाश से बतियाना पड़ता है। वह अपनी बुद्धि पर जोर देकर कभी नेता जी के भाषण से अंदाजा लगाता है कि आज लाश कहां मिलेगी, तो कभी टीवी डिबेट शव ढूंढने में उसकी मदद कर देती है। जितनी लाशें मिलतीं, उतनी ही उसे यह शक्ति मिलती कि बुद्धि कहीं तो चल रही है। युग विहीनता में फंसा वह अंतिम बुद्धिजीवी है जो लाशों की उपस्थिति में खुद को प्रासंगिक मानने लगा है। अब जिंदा इनसान से विमर्श करना बुद्धि को परेशान करना है, लिहाजा वह देश में ऐसी लाशें ढूंढता है, जो संवाद कर सकें।
आज उसे एक दलित बस्ती में लाश मिल गई। पहली बार उसने देखा कि लाश होते ही हम सभी सौ टके एक जैसे हो जाते हैं। दलित के लाश होने पर किसी को एतराज नहीं और न ही लाश की मूंछ पर। उसने लाश को कंधे पर डाला और श्मशानघाट की ओर निकल पड़ा। एक दलित की लाश कितनी हल्की थी। बुद्धिजीवी था, इसलिए इस लाश से बात कर सकता था। लाश बता रही थी, ‘देश के मायनों में जब तक बंटवारा होता रहेगा, कोई नहीं बता सकता किस अर्थ में इनसान मिलेगा। तुम मुझे ढोकर भी यह नहीं बता पाओगे कि मेरा वास्तविक वजन है कितना। क्या तुम मेरे कारण बुद्धिजीवी बने या तुम्हारी बुद्धि ने मुझे दलित बनाया।’ बुद्धिजीवी को एक लाश ने बता दिया कि वह भीतर से कितना खोखला है। श्मशानघाट में उसे छोडक़र बुद्धिजीवी प्राणी यह समझने की कोशिश करने लगा कि लाश की पहचान में भी क्या बुद्धि क्षीण हो रही है।
उसे अगला शव एक कामेडियन का मिला। पहली बार लाश को देखकर बुद्धिजीवी को आभास हुआ कि मौत से बड़ी कामेडी किसी भी युग में नहीं हुई होगी। बुद्धिजीवी सोच ही रहा था कि लाश ने अपने पत्ते खोल दिए, ‘पता है मैं कामेडियन क्यों बना। मैंने जब देखा कि म•ााक में रोने की आदत से आंसू भी हंस देते हैं, इसलिए अपने आंसुओं को हंसाने के लिए मैंने यह रास्ता चुन लिया। देश जब हंसता है तो मेरे आंसू गुदगुदी करते हैं। देश की कामेडी में क्या कभी आंसू निकलते देखे। महंगाई, भुखमरी या बेरोजगारी को मैंने जब से अपनी कामेडी बनाया, मेरे भीतर मेरे ही आंसू खिलखिलाने लगे हैं।’ पल भर के लिए अंतिम बुद्धिजीवी को लगा कि वह भी तो एक तरह से कामेडियन ही है। उसके इर्द-गिर्द देश-विदेश की चर्चाएं! नैतिकता के बोध! सामाजिक मूल्य और अपने ही चरित्र की व्याख्या आखिर हैं तो कामेडी ही। इस युग में श्रेष्ठ वही है जो दूसरों के सामने कामेडी पेश कर दे। उसे याद आया कि जब-जब वह सदन की कार्यवाहियां देखता है, उसके सामने उसी के आंसू हंसने लगते हैं, क्योंकि देश की आजादी ने इतने सारे कामेडियन जो हमें दे दिए। आज तक उसने यह नहीं देखा कि कोई बुद्धि के बल पर सदन में पहुंचा हो। जो पहुंचा, कामेडी करके ही जनप्रतिनिधि बना। उसके कंधे पर पड़ी कामेडियन की लाश समझ गई कि यह बुद्धिजीवी उसे चैन से मरने भी नहीं देगा। कामेडियन की लाश से निकल रहे आंसुओं से बुद्धिजीवी निरंतर भीग रहा था और सोच रहा था कि मरने से पहले इस शख्स ने दुनिया को हंसी देने के लिए कितने सारे आंसू रोक के रखे होंगे। वह कामेडियन की लाश को श्मशानघाट छोडक़र फिर एक नई लाश ढूंढने निकल गया।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
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Rani Sahu
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