सम्पादकीय

बेटियों के मील-पत्थर

Rani Sahu
25 May 2023 7:00 PM GMT
बेटियों के मील-पत्थर
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By: divyahimachal
संघ लोक सेवा आयोग की अखिल भारतीय सेवाओं में देश की बेटियों ने परचम लहराए हैं। नए क्षितिज छुए हैं और नए आयाम खोले हैं। यह स्वप्न-सा लगता है कि जो बेटियां सामान्य पढ़ाई करते या नौकरी पर जाते दिखती थीं, अब कुछ अंतराल के बाद वे आईएएस अधिकारी होंगी। आईपीएस, आईएफएस और आईआरएस आदि सेवाओं में भी जाएंगी। जिला मजिस्टे्रट, एसडीएम या सरकार में प्रथम श्रेणी के समकक्ष पदों पर आसीन होंगी। देश की व्यवस्था संचालित करेंगी, समाज-देश की सेवा भी करेंगी और निजी सम्मान, प्रतिष्ठा, सामाजिक उत्थान भी हासिल करेंगी। इस बार अखिल भारतीय सेवाओं में करीब 34 फीसदी सफलता बेटियों ने अर्जित की है। एक-तिहाई से अधिक सफल चेहरों में वे शुमार हैं। अखिल भारतीय स्तर पर पहले चार सर्वश्रेष्ठ स्थान भी बेटियों ने ही प्राप्त किए हैं। शीर्ष 20 सफल युवाओं में 12 बेटियां ही हैं। कुल 933 सफल चेहरों में 320 महिला-चेहरे हैं। यह आंकड़ा साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। बेटियों ने न केवल नए मील-पत्थर स्थापित किए हैं, बल्कि लैंगिक प्रतिनिधित्व को भी विस्तार दिया है, लेकिन घर और कार्यस्थल पर समानता और लैंगिक फासले आज भी गंभीर चुनौती हैं। बेटियों की यह मेहनतकश और बौद्धिक सफलता तात्कालिक नहीं होनी चाहिए। गर्व और गौरव का एहसास भी क्षणिक नहीं होना चाहिए।
बेटियों ने नए रास्ते बनाए हैं। नई मंजिलें तय की हैं। वे औरत सिर्फ घर की चारदीवारी के लिए नहीं हैं। हमने भारत सरकार में सचिव के सर्वोच्च स्तर पर महिला अधिकारियों को देखा है। वे विदेशों में भारत की राजदूत या उच्चायुक्त जैसे संवेदनशील, कूटनीतिक पदों पर भी कार्यरत रही हैं। परमाणु और अंतरिक्ष विभागों में वैज्ञानिक भी हैं, लेकिन सरकार के ही भीतर मध्य से शीर्ष स्तर तक लैंगिक फासले कम किए गए हों, ऐसे सकारात्मक प्रयास बहुत कम किए गए हैं। ये सफल बेटियां, जो आईएएस चुनी गई हैं, भी कई वर्जनाओं से संघर्ष कर यहां तक पहुंची हैं। यदि देश के समूचे कार्य-बल को देखें, तो कामकाजी उम्र की बेटियों और महिलाओं की भागीदारी घट रही है। विश्व बैंक के आंकड़े हैं कि भारत में 2005 में यह औसत भागीदारी करीब 32 फीसदी थी, जो 2021 में घटकर 25 फीसदी तक लुढक़ आई है।
यह अनौपचारिक क्षेत्र के आंकड़े ज्यादा हैं, जिनकी गिनती कम होती है या वे नियमित नौकरी पर नहीं रखी जातीं। आईएएस अधिकारी के नाते सभी को तय वेतनमान मिलेगा, लेकिन कॉरपोरेट आज भी वरिष्ठ स्तर पर, लैंगिक विविधता और समान वेतनमान के लिए संघर्ष कर रहा है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था और कार्य-संस्कृति में महिलाओं की उपस्थिति और भागीदारी, बिना किसी भेदभाव के, होनी चाहिए। यह सरकार ही तय कर सकती है। यदि नई आईएएस बेटियां लैंगिक समानता, महिला सशक्तिकरण, साक्षरता और पुरुष वर्चस्व के माहौल के बावजूद महिलाओं की राष्ट्रीय कामकाजी भागीदारी के लिए कुछ भूमिका निभा पाईं, तो उनका चयन सार्थक होगा। आज हम 21वीं सदी में हैं, लिहाजा बेटी को लेकर संकीर्ण मानसिकता अब कारगर नहीं होगी। अखिल भारतीय स्तर की यह परीक्षा विश्व की शेष परीक्षाओं की तुलना में कठिन है। यदि उसे पास कर बेटियां सफल हो रही हैं, तो उन्हें घर तक समेट कर मत रखिए। उन्हें बाहर आने दीजिए।
Rani Sahu

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