सम्पादकीय

कुदरत से खिलवाड़ के खतरे

Subhi
28 Oct 2022 5:20 AM GMT
कुदरत से खिलवाड़ के खतरे
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ऊपर से जलवायु नियंत्रण के लिए रासायनिक प्रयोगों ने आग में घी का काम तो नहीं कर दिया? आखिर क्यों जलवायु परिवर्तन को लेकर ढिंढोरा पीटने वाले दुनिया भर के चिंतक, राजनेता, शासक और शोध संस्थान चुप हैं या जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं?

ऋतुपर्ण दवे: ऊपर से जलवायु नियंत्रण के लिए रासायनिक प्रयोगों ने आग में घी का काम तो नहीं कर दिया? आखिर क्यों जलवायु परिवर्तन को लेकर ढिंढोरा पीटने वाले दुनिया भर के चिंतक, राजनेता, शासक और शोध संस्थान चुप हैं या जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं?

क्या बदलते, बेकाबू होते और छिन-पल बिगड़ते मौसम के लिए वे शोध और प्रयोग भी जिम्मेदार हैं, जिन्हें वैज्ञानिक तो कहा जा सकता है, लेकिन कुदरत के अनुकूल कतई नहीं। यह सवाल काफी हद तक चिंतित करता है और विश्वास करने पर मजबूर भी। सबसे गहरा सवालिया निशान चीन पर है, जिसने बीते दस वर्षों में मौसम में अपने अनुकूल सुधार के लिए लगभग पचास लाख प्रयोग कर डाले और अथाह पैसा बहाया।

इसे लेकर चीन पर कई आरोप भी लगे। इसी जुलाई और अगस्त में चौंसठ दिनों तक चीन में जबर्दस्त लू चली, काफी गर्मी पड़ी। कई इलाकों का तापमान चालीस डिग्री को पार कर गया। बड़ी-बड़ी नदियां और दूसरे जलस्रोत सूखने लगे। फसलों को बचाने के लिए चीन ने बड़े पैमाने पर 'क्लाउड सीडिंग' तकनीक अपनाई और बारिश कराई। दूसरे कई देश भी कभी प्रयोग, तो कभी जरूरत के लिए थोड़ा-बहुत इस तकनीक को अपनाते रहे हैं। तरीका वैज्ञानिक जरूर है, लेकिन प्रकृति-विरोधी है।

जुलाई का महीना यों तो संयुक्त अरब अमीरात के लिए सूखा और गर्म होता है, लेकिन अबकी बार एक ही दिन में इतनी भयंकर बारिश हुई कि जितनी वहां पूरे साल में नहीं होती। इसमें आधा दर्जन से ज्यादा लोगों की जान चली गई। वहां भी जबसे कृत्रिम तरीके आजमाए जाने लगे हैं, तभी से ऐसा होने लगा है। कमोबेश यही स्थिति पिछले साल गर्मियों के दौरान जर्मनी और बेल्जियम में दिखी। वहां जबर्दस्त बाढ़ आई। मौसम के बिगड़ते रूप को सिर्फ तापमान से नहीं जोड़ सकते, क्योंकि सर्दी, गर्मी, बर्फबारी, बेमौसम बारिश और बाढ़ की तबाही के तमाम मंजर सामने हैं।

इधर भारत में अक्तूबर माह में लौटते मानसून के साथ आधे से ज्यादा देश में बाढ़, बारिश से तबाही का वह रूप दिखा जो अमूमन नहीं दिखता। देखना होगा कि क्यों पुणे में अक्तूबर के तीसरे हफ्ते में बारिश का एक सौ चालीस सालों का रिकार्ड टूटा? वहीं महाराष्ट्र के कई इलाकों में लौटते मौसम से खड़ी फसल बर्बाद हो गई। पूरे उत्तराखंड में अगस्त के आखिरी सप्ताह में बारिश का जबर्दस्त कहर दिखा।

उत्तर प्रदेश में भारी और एकाएक बारिश से अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में इटावा के पास बांध टूटने से सैकड़ों गांवों में पानी घुस गया। इसी तरह आजमगढ़ जिले में कैंची बांध भी भारी बारिश के दबाव से टूट गया और गहरी नींद में सोए सैकड़ों लोगों के घर डूबने लगे। आंबेडकर नगर और बाराबंकी में सरयू नदी से हजारों लोगों के आशियाने तबाह हो गए।

यही हाल दर्जनों जिले में था। मध्यप्रदेश में बाणसागर की दो नहरें टूट गर्इं। इसी तरह दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सितंबर के आखिरी हफ्ते की बारिश ने सबको हैरान कर दिया। पूरे देश में इस बारिश ने अपना अलग ही रंग दिखाया। बंगलुरु में बारिश की तबाही ने नब्बे साल का रिकार्ड तोड़ दिया। पड़ोसी नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश के हालात भी हम से अच्छे नहीं रहे।

मौसम के ऐसे परिवर्तन के लिए दूसरे ज्ञात तत्त्व भी जिम्मेदार हैं, जिनमें जंगलों का अंधाधुंध दोहन, पहाड़ों को गिट्टियों में बदलना, नदियों से अंधाधुंध रेत निकालना, जीवाश्म र्इंधन- कोयला, पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल के बेहिसाब उपयोग से वायुमंडल को प्रदूषित करना और तापमान बढ़ाने वाली गैसों का अंधाधुंध उत्सर्जन, सबको पता है। मगर कम सुर्खियों और चर्चाओं में रहे 'क्लाउड सीडिंग' और दूसरी जलवायु नियंत्रण तकनीकों के प्रभावों और परिणामों पर भी गंभीर वैज्ञानिक मंथन करना होगा। कृत्रिम बारिश, बर्फबारी नियंत्रण, तापमान नियंत्रण के प्रयासों के परिणामों को भी जानना होगा।

वायुमंडल का तापमान बढ़ाने के लिए पहले ही औद्योगीकरण और शहरीकरण काफी हद तक जिम्मेदार हैं, जिससे ग्रीन हाउस गैसों का संतुलन प्रभावित हो गया है। वर्ल्ड मेट्रोलाजिकल आर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर के छप्पन देश 'क्लाउड सीडिंग' का प्रयोग कर रहे हैं, मगर फायदे-नुकसान पर चुप्पी साधे हुए हैं। इस बारे में यदा-कदा ही कुछ सामने आता है, पर दावे के साथ कोई कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है कि ऐसे प्रयोग प्रकृति के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह! अपने-अपने तर्क जरूर देकर खुद ही तसल्ली कर लेते हैं। मगर हाल ही में जिस तरह के प्रकृति के प्रकोप एकाएक सामने आए हैं, उनकी वजहों को ढूंढ़ना ही होगा।

ऐसा क्यों हो रहा है, इसके पीछे कौन से वैज्ञानिक प्रयोग हैं या प्राकृतिक वजहें ही हैं, जिस पर ज्यादा चर्चाएं या बैठकें नहीं हुर्इं। भले यह मानने का कोई आधार नहीं है, लेकिन क्या पड़ोस में 'क्लाउड सीडिंग' के जरिए की गई रासायनिक क्रियाओं के दुष्परिणामों का असर तो नहीं? हो सकता है, देर-सबेर सच सामने आए, लेकिन जिस तरीके से मौसम को नियंत्रित करने की कोशिशों के दौरान पास-पड़ोस में असामन्य परिवर्तन या प्रभाव दिख रहा है उसका जवाब तो जरूरी है।

क्या 'क्लाउड सीडिंग' के दौरान बादलों पर सिल्वर आयोडाइड और दूसरे रसायनों के छिड़काव और प्रयोगों से कोई रासायनिक क्रिया हुई, जो वायुमंडल में ही एक पाकेट बन कर आसमान में अदृश्य गैसों के रूप में इकट्ठी होती रही, जिसका हमें पता ही नहीं चला? ये अदृश्य 'गैस पाकेट' मौसमी हवाओं के रुख के साथ चल पड़े और लगातार चलते-चलते प्राकृतिक क्रियाओं के सामने अपना असर खोते गए, जिससे रासायनिक क्रियाओं से बनी सघनता और जटिलता ढीली पड़ने लगी। जहां-जहां ऐसे पाकेट बेहद कमजोर हुए, वहां एकाएक और तेज बारिश के रूप में फूट पड़े! यह केवल कयास या शंकाएं हैं, लेकिन आधारहीन नहीं हैं।

जलवायु नियंत्रण को लेकर एक अलग तरह की चिंता भी दिख रही है। क्या भविष्य में इसका दुरुपयोग सत्ता की खातिर युद्ध की विभीषिका के रूप में भी किया जा सकता है? दुश्मन देश की निगाहें जिस देश या सत्ता को अस्थिर करने पर हों, वहां पर ऐसे नियंत्रणों से बेतरतीब तबाही करके भी एक तरह से विजय हासिल की जा सकती है। अगर ऐसा हुआ और जिसको लेकर जरूर कभी-कभार चिंताएं झलकनीं शुरू हो गर्इं हैं, तो यह अलग ही तरह के युद्ध का भयानक दौर होगा। इसका प्रभावित क्षेत्र के आम जनजीवन पर असर तो पड़ेगा ही, प्रकृति के साथ भी बहुत बड़ी बेरहमी होगी, जिसकी भरपाई लगभग नामुमकिन-सी होगी।

बेशक, अत्यधिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जिसका वैश्विक तापमान पर सीधा असर पड़ा है। वहीं 'क्लाउड सीडिंग' या सर्दी, गर्मी, बारिश, बर्फ पर ऐसे गैर-प्राकृतिक तरीकों से नियंत्रण और मनमाफिक क्रियाकलापों से जलवायु चक्र भटकता, टूटता और प्रभावित होता है। यह भी गैर-प्राकृतिक प्रयोगों का दुष्परिणाम है।

प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन से पहले ही प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है, ऊपर से जलवायु नियंत्रण के लिए रासायनिक प्रयोगों ने आग में घी का काम तो नहीं कर दिया? आखिर क्यों जलवायु परिवर्तन को लेकर ढिंढोरा पीटने वाले दुनिया भर के चिंतक, राजनेता, शासक और शोध संस्थान चुप हैं या जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं?

कहीं इस चुप्पी या अनदेखी के पीछे दुनिया को अपनी समृद्धि के रुतबे से काबू करने की कोशिश तो नहीं? अगर ऐसा हुआ तो एक दिन प्रकृति जलवायु से अपना नियंत्रण खोकर उन हाथों की कठपुतली बन जाएगी, जो ताकतवर बन कर दुनिया को अपनी उंगली पर नचाने का ख्वाब पाले हुए हैं। भूलकर भी ये दिन न देखना पड़े, वरना समूची मानवता और प्रकृति के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता।


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