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दुनियाभर में भू-क्षरण और मरुस्थलीकरण बड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों के तौर पर उभर कर आए हैं। सामान्यत: मरुस्थलीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शुष्क भूमि अपनी उत्पादकता खोती जाती है और मिट्टी बंजर हो जाती है। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया में जमीन की पौधों को सहारा देने की शक्ति क्षीण हो जाती है और इसका सीधा प्रभाव मिट्टी के अन्न उपजाने की क्षमता पर पड़ता है।
इससे लोगों की आजीविका तो प्रभावित होती ही है, साथ ही साथ खाद्य पदार्थों का गहराता संकट लोगों को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर देता है। यह चिंताजनक इसलिए भी है कि मरुस्थलीकरण जल प्रबंधन प्रणाली और कार्बन के भंडारण पर भी विपरीत प्रभाव डालता है। हालांकि यह बात दीगर है कि मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया लंबे समय में घटित होती है, परंतु चिंताजनक बात यह है कि इसकी रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही है, जो पर्यावरणविदों को परेशान कर रही है।
इसरो द्वारा हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मरुस्थलीकरण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जल क्षरण है। करीब 10.98 फीसद क्षेत्र में मरुस्थलीकरण जल क्षरण की वजह से होता है। इसके बाद वनस्पति क्षरण का नंबर आता है। वनस्पति क्षरण के कारण 9.91 फीसद क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील हो चुका है। इसके अलावा वायु क्षरण, लवणता में कमी, मानव निर्मित बसावट क्षेत्र में और अन्य कारणों जैसे जल भराव, अत्यधिक पाला पड़ना, बंजर और चट्टानी भूमि आदि वजहें भी बढ़ते रेगिस्तान के लिए जिम्मेदार तत्व हैं।
खेती योग्य जमीन को बंजर भूमि बनाने में मानवीय कारक भी कम नहीं रहे। बढ़ती आबादी के लिए आवास उपलब्ध कराने और अवैध खनन के चलते हर साल हजारों हेक्टेयर भूमि बंजर हो रही है। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक हर साल करीब एक करोड़ बीस लाख हेक्टेयर जमीन मानव निर्मित कारणों से रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। दुनिया की कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग एक चौथाई हिस्सा अत्यधिक बंजर हो चुका है। शुष्क भूमि में वर्षा बहुत कम और अनियमित होती है।
खासकर विकासशील देशों में ऐसे स्थान मरुस्थलीकरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। एशिया और अफ्रीका की लगभग चालीस फीसद आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है जहां जमीन रेगिस्तान में बदलती जा रही है। दुनिया की लगभग साठ फीसद आबादी एशिया में है। इसमें से भी सत्तर फीसद लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भूमि और उससे जुड़ी पारिस्थितिकी तंत्र की व्यवस्थाओं पर निर्भर हैं। इसलिए प्रभावित लोगों के हिसाब से देखा जाए तो एशिया महाद्वीप भू-क्षरण, मरुस्थलीकरण और सूखे से सबसे ज्यादा त्रस्त है।
एशिया महाद्वीप में उत्तर-पूर्वी गोलार्द्ध में स्थित भारत क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है। जनसंख्या के हिसाब से भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लिहाजा भारत के लिए स्थितियां विशेष रूप से अधिक चिंताजनक हैं क्योंकि यहां दुनिया की कुल आबादी की 17.6 फीसद आबादी रहती है। दुनिया के कुल भू-भाग के महज 2.4 फीसद वाले इस देश पर करोड़ों कुपोषित लोगों के साथ ही वैश्विक भुखमरी के एक चौथाई हिस्से का बोझ भी है।
इसरो की भू-क्षरण रपट बताती है कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब तीस फीसद हिस्सा भू-क्षरण की चपेट में है। भू-क्षरण देश की कुल भूमि के सत्तर फीसद हिस्से में फैले शुष्क भूमि वाले क्षेत्र में से करीब नौ करोड़ हेक्टेयर जमीन पर अपना जाल बिछा चुका है। यह भारत के कुल भू-भाग का करीब एक चौथाई हिस्सा है।
अमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र के सर्वेक्षण के अनुसार साल 2003-2005 और 2011-2013 के बीच महज आठ वर्षों में ही भू-क्षरण की प्रक्रिया में पंद्रह लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। तुलनात्मक तौर पर यूरोपीय संघ की तरफ से तैयार किए गए विश्व मरुस्थल मानचित्र के आंकड़ों से पता चलता है कि दुनिया भर में पिछली सदी में पचास के दशक के बाद से शुष्क भूमि में लगभग 0.35 फीसद बढ़ोतरी हुई है।