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- नेताओं के बंधुआ नहीं...
भूपेंद्र सिंह| क्या दलित राजनीति बदलाव के मुहाने पर खड़ी है? क्या कांशीराम का बहुजन समाज को सत्ता में स्थापित करने का राजनीतिक प्रयोग फेल हो गया है? क्या दलित समाज अस्मिता की राजनीति के सैचुरेशन प्वाइंट पर पहुंच गया है या फिर सामाजिक न्याय की राजनीति से निकलकर आकांक्षा की राजनीति की ओर जा रहा है? उत्तर प्रदेश में दलित समाज के एक बड़े वर्ग, खासतौर से गैर जाटव दलितों का मायावती की बसपा से हटकर भाजपा की ओर जाना इसी बदलाव का संकेत है, लेकिन ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिल रहा है, क्योंकि इस बारे में कोई गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं हुआ है। सारे अनुमान, निष्कर्ष चुनाव नतीजों के आधार पर निकाले जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश ने पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक दलितीकरण की जो प्रक्रिया देखी है, वह किसी और राज्य ने नहीं देखी। दूसरे राज्यों में राजनीति के मंडलीकरण ने दलितों के राजनीतिक उन्नयन को रोक दिया। मायावती प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। बड़ी दलित आबादी वाले पंजाब और बंगाल तो इस मामले में उत्तर प्रदेश से बहुत पीछे हैं। इन दोनों राज्यों में तो दलित नेता के हाथ सत्ता की बागडोर छोड़िए, पार्टी संगठन और सरकार में हिस्सेदारी भी नहीं मिली।