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- नई करवट लेती दलित...
भूपेंद्र सिंह| बीते दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में घटित घटनाएं दलित राजनीतिक विमर्श में नए रुझान का संकेत करती हैं। इसमें एक प्रश्न यही उभरा है कि क्या अब दलितों को अस्मिता से अधिक आकांक्षाएं आकर्षित कर रही हैं? बिहार में दलित राजनीति की अगुआ मानी जाने वाली लोक जनशक्ति पार्टी में आंतरिक उठापटक चल रही है। वहीं उत्तर प्रदेश में रामअचल राजभर और लालजी वर्मा जैसे कई कई दलित नेताओं को मायावती ने पार्टी से निकाल दिया। यह महज एक इत्तेफाक है या इसके पीछे कोई 'अंडर करेंट' है? विगत 74 वर्षों में बाबू जगजीवनराम को छोड़ कोई दलित नेता राष्ट्रीय स्तर पर पनप नहीं पाया। उत्तर प्रदेश में मायावती और बिहार में रामविलास पासवान को आंशिक सफलता ही मिली। वैसे मायावती ने 2007 में प्रभावी 'सोशल इंजीनियरिंग' द्वारा समावेशी राजनीति की ओर कदम बढ़ाया और सभी वर्गों के वोट से प्रदेश में सरकार बनाई। हालांकि अपने प्रयोग को वह बहुत आगे नहीं ले जा सकीं और राष्ट्रीय राजनीति की राह में भटक गईं। वहीं पासवान स्वयं निर्वाचित होते रहे, पर बिहार में दलितों को लामबंद नहीं कर सके और पासी-समाज तक ही सीमित होकर रह गए। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कोई दलित नेता राष्ट्रीय राजनीति तो दूर अपने प्रदेश में ही पूरी तरह स्थापित क्यों नहीं हो पाता? इसके तीन कारण तो बिल्कुल स्पष्ट हैं।