सम्पादकीय

रिवाज बदलेंगे, चरित्र नहीं

Rani Sahu
19 July 2022 7:11 AM GMT
रिवाज बदलेंगे, चरित्र नहीं
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उन्होंने ठान लिया है कि वह इस बार रिवाज़ बदल कर ही रहेंगे। भले चरित्र और स्याह हो जाए

By: divyahimachal

उन्होंने ठान लिया है कि वह इस बार रिवाज़ बदल कर ही रहेंगे। भले चरित्र और स्याह हो जाए। चरित्र बदलना यूँ भी बड़े झंझट का काम होता है। अपना हो चाहे सरकारी। जन्मों तक प्रयास करने के बाद भी नहीं बदलता। विश्वामित्र और दुर्वासा जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक हार जाते हैं। सामाजिक रिवाज़ बदलना भी कठिन है। कड़े क़ानूनों के बावजूद दहेज प्रथा आज भी जारी है। देश की सभी गृहणियों को प्रधान मंत्री द्वारा उज्जवला घोषित किए जाने के बावजूद आज भी स्टोव फट रहे हैं। लेकिन सरकारी रिवाज़ बदलना आसान है। इसके लिए एक प्राय: नोटीफिकेशन की ज़रूरत होती है। अगर वहाँ भी काम न बने तो इस निमित्त केबिनेट की एक विशेष मीटिंग बुलाई जा सकती है। वैसे भी विश्वगुरु देश में शास्त्रानुसार राजा को भगवान का रूप माना जाता है। किसी के भगवान होते ही उसके सात ख़ून माफ हो जाते हैं। वह सभी नियमों और क़ानूनों से ऊपर हो जाता है। उनके लिए सिस्टम ठहर जाता है। युग चाहे कोई भी हो। भगवान कभी अपना चरित्र नहीं बदलते। इसलिए उन्होंने ठान लिया है कि वह केवल रिवाज़ ही बदलेंगे। वैसे भी लोग नासमझ हैं। जो हर पाँच साल बाद सरकार बदल देते हैं। लेकिन लोक को लोकतंत्र का फील देने के लिए समय-समय पर चुनाव होना भी ज़रूरी है। लोगों के साथ-साथ नेताओं को भी काम मिल जाता है। अब पाँच सालों तक विकास की कितनी गंगाएं बहाई जा सकती हैं। इसलिए हर चुनावों से दो साल पहले ही राजनीतिक रूप से चुनावों की तैयारी शुरू करने से सत्ता के साथ विपक्ष को भी काम मिल जाता है। एक-दूसरे पर आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछारों से लोक को सत्ता और विपक्ष के चरित्र की महानता का बोध होता है और लोग भी उसी अनुपात में अपना चरित्र माँजना शुरू कर देते हैं। पर हर पाँच साल बाद सरकार बदलने से प्रदेश का बड़ा अहित होता है। चुनावों में ख़र्च होने वाले सरकारी और निजी काले धन के बाद सरकार बदलने से राज्य पर बेकार में कज़ऱ् का बोझ बढ़ जाता है। तमाम तरह के केमिकल छिडक़ने के बावजूद पुरानी गाडिय़ों और फर्ऩीचर से पुराने आकाओं की गंध नहीं मिटती। लिहाज़ा मुख्य मंत्री समेत सभी मंत्रियों के लिए नई गाडिय़ाँ और फर्ऩीचर खऱीदने पड़ते हैं। आवासों और दफ़्तरों के रंगरोगन का ख़र्चा बढ़ जाता है। नई सरकार को अपनों को सरकारी गंगा में डुबकी लगवाने के लिए नए घाटों का निर्माण करवाना पड़ता है। लोगों की नजऱ बचा कर रात के अँधेरे में अधिसूचनाएं जारी कर गधों को घोड़ा और घोड़ों को गधा बनाना पड़ता है।
चुनाव आयोग द्वारा ख़र्चे गए सरकारी धन की भरपाई तो सरकारी परिसंपत्तियों को गिरवी रख कर बाज़ार से कज़ऱ् लेकर या नए कर लगाने से पूरी हो जाती है, लेकिन जनसेवकों द्वारा ख़र्चे गए काले धन की भरपाई के लिए उन्हें नए सिरे से प्रयास करने पड़ते हैं। इसलिए इस बार वह पूरा प्रयास कर रहे हैं कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए राज्य में हर पाँच साल बाद होने वाले चुनावों को चाहे वह न रोक पाएं, लेकिन नासमझ लोगों द्वारा हर बार सरकार बदलने के रिवाज़ को बदल कर ही दम लेंगे। भले ही सत्ताधीशों की सच्चरित्रता, अथक मेहनत और सेवा परायणता तथा सरकार के स्वच्छ, पारदर्शी, निष्पक्ष और ईमानदार प्रशासन से प्रसन्न और ख़ुशहाल लोग, दोनों को बदलने का मन बना चुके हों और तमाम सर्वेक्षण भी उनके विरुद्ध हों, पर उस डबल इंजन की सरकार का क्या लाभ जो अपनी ही पार्टी की जाम बोगियों को चुनावों के पहाड़ पर नई सरकार के स्टेशन रूपी पहाड़ पर न चढ़ा न सकें। आखिर उत्तम प्रदेश और असम का अनुभव किस काम आएगा। यहाँ तो ईवीएम को ठिकाने लगाने के लिए सरकारी अधिकारियों और नगर निगमों की कूड़े की गाडिय़ों की ज़रूरत भी नहीं। पहाड़ों की ढाँक काफी हैं। जहाँ तमाम पुरानी सरकारी दवाइयाँ, फाइलें और निर्माण कचरे को ठिकाने लगाया जाता है, वहाँ ईवीएम भी सही।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं


Rani Sahu

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