सम्पादकीय

व्यवहार पर अंकुश

Gulabi
11 Jan 2022 11:55 AM GMT
व्यवहार पर अंकुश
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बहरहाल देश चौकसी के मूड में कुछ अहम फैसले ले रहा है, तो हिमाचल के लिए भी यह अनिवार्यता बढ़ चुकी है
divyahimachal.
कुछ सुरक्षा चक्र टूटा, कुछ चौकसी बढ़ी और फिर बचाव के चरित्र में आपदा प्रबंधन के नए दौर में बढ़ते कोविड के नए खतरे से जूझने के प्रयास शुरू हो गए। हिमाचल फिर उन्हीं कंदराओं में लौटने लगा, जहां बचाव का एक तात्कालिक इतिहास छिपा है। कोविड खतरे पर अति गंभीरता दिखाती हिमाचल सरकार ने अंततः मुख्यमंत्री के भी कई सार्वजनिक कार्यक्रमों पर विराम लगा दिया। स्कूल गणतंत्र दिवस तक छुट्टियों पर भेज दिए गए, तो 'फाइव डे वीक' की परिधि में सरकारी कार्यालय अपने सार्वजनिक व्यवहार पर अंकुश लगा रहे हैं। तकनीकी शिक्षा बोर्ड ने अपनी वार्षिक परीक्षाएं स्थगित की हैं, तो पुलिस भर्ती पर भी रोक लगा दी गई है। कोविड संक्रमण के बढ़ते मामलों से चिंतित देश के लिए यह सुरक्षा कवच पहनना जरूरी है और इस तरह हिमाचल के लिए भी चिंता का सबब बनकर 3148 कोरोना पॉजिटिव होने का आंकड़ा खड़ा है। रविवार को ही 361 लोग कोविड की चपेट में आ गए, जबकि अभी सैंपल लेने की गति निम्न स्तर पर है और सतर्कता के इंतजाम भी फिर से रिहर्सल कर रहे हैं। बहरहाल देश चौकसी के मूड में कुछ अहम फैसले ले रहा है, तो हिमाचल के लिए भी यह अनिवार्यता बढ़ चुकी है।
फैसलों को लेकर जनता की सौ फीसदी सहमति पर विवाद हो सकता है या यह भी प्रश्न उठ सकता है कि सरकार ने जागने में देर कर दी। यह इसलिए भी क्योंकि इसी हफ्ते नगरोटा बगवां के इंजीनियरिंग कालेज, कृषि विश्वविद्यालय व अन्य शिक्षण संस्थानों में कई छात्र कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं, जबकि मनाली विंटर कार्निवाल के बाद कई अधिकारी-कर्मचारी इसी चक्र में फंस गए। जाहिर है सार्वजनिक जमावड़े हमें अधिक रोगग्रस्त कर रहे हैं, तो सवाल मंडी रैली तक पहुंच जाते हैं या पर्यटन के रास्ते सजी महफिलों पर भी होंगे। बंदिशों के पक्ष और विरोध में सामाजिक धड़ेबंदी भी खड़ी हो जाती है। हमने प्रिंट और अपने सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर जनता से जब यह पूछा कि क्या हिमाचल में फिर से कोविड बंदिशें लगानी चाहिएं, तो 79.6 प्रतिशत लोगों ने स्पष्ट इनकार किया है। फेसबुक पर 196806 लोग पहुंचे और उनमें से पच्चीस हजार सीधे शरीक होते व 1100 कमेंट्स देते हुए जो कहते हैं उसका लुब्बेलुआब यही है कि गैर सरकारी क्षेत्र बंदिशों से आजिज है।
बंदिशों के औचित्य पर प्रश्न उठाने की मजबूरी व परेशानी हो सकती है, लेकिन महामारी का प्रकोप जब तक स्वास्थ्य विज्ञान से लड़ रहा है, हमें भी गाहे बगाहे इस युद्ध का सैनिक बनना पड़ेगा। सरकार के लिए एक सीमा तक फैसले लेने आसान हो सकते हैं, लेकिन बंदिशों का हर दौर तमाम प्रतिकूलता को झेलने सरीखा है। खास तौर पर जब सरकारी ढांचे के सामने निजी क्षेत्र लाचार व अक्षम दिखाई देता है, तो राज्य की वित्तीय व्यवस्था पर यह प्रश्न जरूर उठते हैं कि सरकार अपनी फिजूलखर्ची रोककर डूबते व्यापार का संबल बन सकती है। इस वर्ष त्योहारी सीजन से क्रिसमस-लोहड़ी आने तक यह महसूस होने लगा था कि भारी नुकसान में रहे धंधे और बाजार की करवटों में नए रक्त का संचार होगा, लेकिन अब धीरे-धीरे फिर से खतरनाक संकेत उभर रहे हैं। यह इसलिए भी कि वैक्सीनेशन की दोनों डोज लेने के बाद भी कोरोना सिर उठाकर धमका रहा है, तो जिंदा रहने के लिए सारे प्रतिबंध बर्दाश्त करने होंगे। फिर से मास्क पहनने, दो गज की दूरी व हाथों व कार्यस्थल को सैनेटाइज करके चलना होगा। सरकार को बंदिशें अमल में लाते हुए अपने व निजी क्षेत्र के वर्किंग वातावरण को सुरक्षित बनाने के अधिकतम उपाय करने होंगे। हर बंदिश की कीमत है, लेकिन सरकारों का झुकाव सार्वजनिक क्षेत्र तक ही अधिक रहता है, जबकि निजी क्षेत्र का भी पूरा समर्थन व रक्षा करनी होगी। पुनः लग रही बंदिशों के बीच इस बार सरकार को परिवहन क्षेत्र की तरह पर्यटन, होटल, औद्योगिक तथा समूचे व्यापार क्षेत्र को वित्तीय रूप से सहारा देने के रास्ते भी खोजने होंगे।
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