सम्पादकीय

मनमानी पर लगाम

Subhi
4 Jun 2022 4:50 AM GMT
मनमानी पर लगाम
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होटलों और रेस्तरांओं में उपभोक्ताओं से वसूले जाने वाले मनमाने सेवा शुल्क विवाद पर सरकार ने मजबूत कानूनी तंत्र बना कर उसे लागू करवाने का जो फैसला किया है, वह उचित और सराहनीय कदम है।

Written by जनसत्ता; होटलों और रेस्तरांओं में उपभोक्ताओं से वसूले जाने वाले मनमाने सेवा शुल्क विवाद पर सरकार ने मजबूत कानूनी तंत्र बना कर उसे लागू करवाने का जो फैसला किया है, वह उचित और सराहनीय कदम है। ऐसा इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि यह विवाद लंबे समय से चला आ रहा है और अब तक इस मामले में कोई ऐसा स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं बना जो इस मसले से जुड़े विवादों का समाधान पेश करता हो।

पर अब सरकार ने साफ कर दिया है कि होटलों और रेस्तरांओं में उपभोक्ताओं से सेवा शुल्क के नाम पर जो मनमानी रकम वसूली जाती है, वह गैरकानूनी और गलत है। इसलिए अब ऐसा कानूनी ढांचा तैयार किया जाएगा जो सेवा शुल्क और इससे जुड़े विवादों का हल देगा और संबंधित कानूनी प्रावधानों को सख्ती से लागू भी करवाएगा। हालांकि होटल और रेस्तरां संगठन अभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि सेवा शुल्क वसूलना गैरकानूनी है।

दरअसल, यह विवाद इतना लंबा खिंचना ही नहीं चाहिए था। कायदे से तो जब यह मामला पहली बार सामने आया था, तभी सरकार को इस पर गंभीर रुख अख्तियार करते हुए इसे गैरकानूनी घोषित करना चाहिए था और कड़े निर्देश जारी करने चाहिए थे कि ग्राहकों से सेवा शुल्क न वसूला जाए, वरना ऐसा करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। अब भी तो सरकार ने सेवा शुल्क वसूलने को साफ-साफ शब्दों में गैरकानूनी करार दिया। हैरानी की बात यह है कि जब-जब भी यह मामला उठा, सरकार यह तो कहती रही कि सेवा शुल्क वसूलने का कोई कानूनी आधार नहीं है, लेकिन उसने कभी इसे खारिज भी नहीं किया।

ऐसे में न केवल भ्रम की स्थिति बनी रही, बल्कि होटल और रेस्तरां मालिकों को भी शह मिलती रही और वे ग्राहकों से सेवा शुल्क के नाम पर खासा पैसा वसूलते रहे। पर सेवा शुल्क वसूलने वाले होटलों और रेस्तराओं पर कभी कोई ऐसी कार्रवाई की पहल नहीं हुई जिससे यह अवैध वसूली रुक पाती। इसलिए अब उम्मीद की जानी चाहिए कि उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय जल्द नया कानूनी तंत्र तैयार कर इस समस्या से निपटेगा।

भारत में पिछले दो दशकों में होटल और रेस्तरां उद्योग तेजी से बढ़ा है। खासतौर से शहरी संस्कृति में बाहर खाना खाने और मंगाने का चलन भी तेजी से बढ़ा है। देश में पांच लाख से ज्यादा रेस्तरां हैं जो अपने-अपने संगठनों से जुड़े हैं। इससे यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि होटलों में खानपान के लिए जाने वालों को किस तरह से लूटा जा रहा है।

होटलों-रेस्तरांओं में दरअसल जो भुगतान किया जाता है, उसमें उत्पाद का मूल्य और सरकार की ओर लगाए गए वैट और केंद्रीय शुल्क ही होते हैं, जो कानूनी रूप से वैध हैं। इसमें सेवा शुल्क कहीं नहीं है। यह सेवा प्रदाताओं ने अपनी मर्जी से तय कर रखा है और बिल में लगा दिया जाता है। जबकि सेवा शुल्क की बुनियादी अवधारणा यह है कि ग्राहक अगर अपनी खुशी से सेवक को 'टिप' के तौर पर कुछ देना चाहे तो दे दे, पर इसके लिए होटल या सेवक उसे बाध्य नहीं कर सकता।

जबकि अक्सर होता यही है कि भुगतान करते वक्त ग्राहक आपत्ति करते हैं और विवाद खड़ा हो जाता है। ऐसे में ग्राहक शर्म-लिहाज की वजह से पैसा देकर पिंड छुड़ाना ही बेहतर समझते हैं। इससे होटल मालिकों का दुस्साहस बढ़ता जाता है। अब सरकार को सख्त कदम उठाने की जरूरत है। ऐसे विवादों में बिना सख्ती के उपभोक्ता हितों की रक्षा संभव नहीं है।


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