सम्पादकीय

स्वच्छता की संस्कृति

Subhi
8 Dec 2021 1:48 AM GMT
स्वच्छता की संस्कृति
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आम जनजीवन में साफ-सफाई के संदेश लोगों को आकर्षित करते हैं, लेकिन इस मसले पर अपेक्षित संवेदनशीलता और जागरूकता का अभाव दिखता है। कई बार लोग स्वच्छता पर केंद्रित अभियानों में शामिल होते हैं

आम जनजीवन में साफ-सफाई के संदेश लोगों को आकर्षित करते हैं, लेकिन इस मसले पर अपेक्षित संवेदनशीलता और जागरूकता का अभाव दिखता है। कई बार लोग स्वच्छता पर केंद्रित अभियानों में शामिल होते हैं, बहुत प्रेरक बातें करते हैं, मगर निजी स्तर पर जब कुछ ठोस करने का मौका आता है तब या तो वे उदासीन रहते या फिर लापरवाही बरतते हैं। हालांकि स्वच्छता के लिए जागरूकता अभियानों का मतलब ही है कि समाज इस मामले में पर्याप्त गंभीर नहीं है।

एक सभ्य समाज में स्वच्छता जीवन-मूल्य होना चाहिए। इसलिए हमारे देश में साफ-सफाई को लेकर चलने वाले कार्यक्रम और जारी होने वाले संदेशों को उस मूल्य तक पहुंचने को एक प्रक्रिया कहा जा सकता है। अगर आम लोग अपने स्तर पर स्वच्छता अभियानों के मूल संदेश को समझ सकें तो शायद सांस्कृतिक स्तर पर भी इस मूल्य का विस्तार हो सकेगा, वरना इसकी अहमियत सिर्फ विज्ञापन तक सीमित रहेगी।
इस लिहाज से देखा जाए तो इंदौर में हुई ताजा पहल ने स्वच्छता और पर्यावरण के प्रति फिक्रमंद सभी संवेदनशील लोगों का ध्यान खींचा है। वहां माचल गांव में हुई एक शादी में 'शून्य कचरा' सिद्धांत के आधार पर पूरी व्यवस्था की गई। इस विवाह के युगल आइआइटी से पढ़ाई कर चुके हैं, उन्होंने तय किया था कि वे अपनी शादी के आयोजन में किसी भी स्तर पर कचरा जमा होने की गुंजाइश नहीं छोड़ेंगे। इसके लिए विवाह समारोह के दौरान ई-कार्ड बांटने, खाने-पीने के लिए बर्तन आदि से लेकर तमाम व्यवस्थाएं ऐसी की गईं, जिसमें किसी वस्तु को कचरा के रूप में जमा नहीं करना पड़ा।
दो दिन चले समारोह के दौरान सिर्फ चालीस किलो गीला कचरा निकला और इसका निपटान करके खाद में तब्दील करने की व्यवस्था भी विवाह स्थल पर ही की गई थी। जबकि आमतौर पर ऐसे एक समारोह में कई सौ किलो कचरा निकलता है। यानी साधारण-से दिखने वाले एक विचार ने महत्त्वपूर्ण प्रयोग का रूप ले लिया और खाने के सामान की बर्बादी को रोकने के साथ-साथ बाकी कचरे से भी बचने का एक बेहतर विकल्प मुहैया कराया गया।
वडंबना है कि हमारे यहां विवाह समारोह सहित ज्यादातर आयोजनों में शायद ही कभी इस पहलू पर विचार किया जाता है कि खाने-पीने की चीजें, उसमें इस्तेमाल होने वाली वस्तुएं कैसे कचरे में तब्दील होकर हमें और हमारे आसपास के माहौल या आबोहवा को प्रदूषित करती हैं। इसका असर केवल गंदगी फैलने या फिर पर्यावरण को नुकसान पहुंचने के तौर पर सामने नहीं आता, बल्कि इस समस्या की अनदेखी या इसे लेकर सहज होने की प्रवृत्ति ने हमारी रोजमर्रा की आदतों तक को दूषित कर दिया है, जिसमें हम हर स्तर पर कचरा फैलाने वाले सामान सहित बचे हुए खाद्य-पदार्थ जहां-तहां फेंक देने को एक आम गतिविधि के तौर पर देखते हैं। इस तरह की लापरवाही अगर हमारी आदतों में घुल जाती हैं, तो इसका दीर्घकालिक नुकसान हमारे समाज को उठाना पड़ता है।
अफसोस की बात है कि आज समारोहों में कचरा फैलाने के काम में पढ़े-लिखे और सलीकेदार दिखने वाले लोग ही ज्यादा लिप्त पाए जाते हैं। बहरहाल, इंदौर को पहले भी स्वच्छ शहर का तमगा हासिल करने वाले इलाके के तौर पर जाना जाता रहा है, मगर अब आम नागरिक के स्तर पर होने वाली ताजा पहलकदमी अगर एक चलन के रूप में विकसित होती है, तो निश्चित तौर पर यह एक नई स्वच्छता की संस्कृति का वाहक बनेगी।


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