सम्पादकीय

आलोचना की जरूरत

Subhi
6 Nov 2022 5:11 AM GMT
आलोचना की जरूरत
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एक पाठक भी इन्हीं कारणों से साहित्य के पास आता है। मगर किसी रचना और उसके पाठ के ‘अच्छा’ होने की वजह होती है ‘सम्यक आलोचनात्मक दृष्टि’। इस अर्थ में हर लेखक और पाठक ‘एक आलोचक’ भी होता है।

विनोद शाही: एक पाठक भी इन्हीं कारणों से साहित्य के पास आता है। मगर किसी रचना और उसके पाठ के 'अच्छा' होने की वजह होती है 'सम्यक आलोचनात्मक दृष्टि'। इस अर्थ में हर लेखक और पाठक 'एक आलोचक' भी होता है। वह भी चुनाव करता है। आलोचना इस चुनाव में लेखक और पाठक दोनों की मदद करती है। आलोचना अपना काम ठीक से न कर रही हो, तो अच्छा लिखने और पढ़ने की निरापद जमीन को खोजना कठिन हो जाता है। आलोचना रुचियों का संस्कार करती और साहित्य की संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है। आलोचना न हो, तो साहित्य में वह सब जो बेशकीमती है, उसे खोजना और संभालना कठिन हो जाएगा।

साहित्य में आलोचक की भूमिका लेखक, पाठक को सीधे तौर पर दिखाई नहीं देती, तो हम उससे इनकार करने लगते हैं। जो वस्तु जितनी जटिल होती है, हम उसके सहज रूप में उतना ही सीमित हो जाते हैं। यह सुविधावादी मानसिकता का अंतर्विरोध है। आलोचक साहित्य के स्वरूप के विधान से लेकर उसे समझने के प्रतिमानों को खोजने तक के गुरुतर काम में पसीना बहाता है।

दरअसल, वही होता है जो उसकी परंपरा और संस्कृति का निर्माण करके यह मुमकिन करता है कि कोई कुछ अच्छा लिख सके और किसी को कुछ अच्छा पढ़ने को मिल सके। अच्छी कृतियों को इसी आधार पर पुरस्कृत करना भी उसी आलोचना कर्म का एक पक्ष है।

आलोचना को सबसे बड़ी चुनौती मिलती है, अनुकरण की मानसिकता से। मानव समाज नैसर्गिक रूप में दो तरह की प्रवृत्तियों से परिचालित होते हैं। इन्हें हम कौतूहल और मर्यादा कह सकते हैं। एक ओर जिज्ञासा होती है, तो दूसरी ओर अनुशासन। एक ओर सत्य की खोज होती है और दूसरी ओर पाए गए सत्य को संभालने की जरूरत। इस तरह नवीनता और अनुकरण की प्रवृत्तियां एक-दूसरे के पूरक की तरह काम करती हैं। लेकिन इन दोनों के बीच तालमेल और संतुलन का प्राय: अभाव दिखाई देता है।

खासकर उन समाजों में, जिन्हें हम सांस्कृतिक दृष्टि से बूढ़े समाज कह सकते हैं। जैसे हमारा देश भारत है। ऐसे देशों में परंपरा के इतने पवित्र और अनुकरणीय रूप संस्कार-बद्ध हो जाते हैं कि नएपन और मौलिक खोज के लिए गुंजाइश ही नहीं बचती। इसकी परिणति एक ऐसे समाज के रूप में होती है, जिसे हम 'भक्त समाज' कह सकते हैं।

साहित्य, मनुष्य के रचनात्मक होने की भूख से जन्म लेता है। रचनात्मक होने का मतलब है, परंपरा, मर्यादा, अनुशासन और अनुकरण जैसी बातों की अहमियत को स्वीकार करने के बावजूद, किसी रूप में नया होने का प्रयास। इसके लिए बुनियादी शर्त है, ऐसी आलोचनात्मक दृष्टि, जो परंपरा और मर्यादा के अनुकरणीय रूपों पर सवाल उठा सके।

बता सके कि मानवीय सत्य तक पहुंचने के रास्ते में रुकावट पैदा करने वाले तत्त्व कौन से हैं। जो हमें दूसरों का भक्त होने से अधिक, खुद पर यकीन करने की ओर ले जाएं। जो चीजें हमें बांधती हों, उन्हें चुनौती दे सकें और आजाद होने और विकास के वैकल्पिक रास्ते तलाशने में हमारी सहायता कर सकें।

सम्यक आलोचनात्मक दृष्टि का संबंध रचनात्मक विवेक से होता है। साहित्य की ऊंचाई उस पर निर्भर है। पर आलोचना के बुनियादी सरोकार का रास्ता रोकने के लिए अनुकरणीय बना दी गई कृतियां अक्सर आकर खड़ी हो जाती हैं। रामचंद्र शुक्ल ने जब रामचरित मानस का भक्तिभाव से युक्त महिमामंडन किया, तो उस आलोचनात्मक दृष्टि पर जयशंकर प्रसाद ने सवाल खड़ा किया।

उन्होंने पूछा कि मानस का महत्त्व उसकी 'साहित्यिकता' के कारण है, या उसके 'एक धर्मग्रंथ मान लिए जाने' के कारण? इसलिए कई दफा आलोचना की अपनी पूर्व-स्थापनाएं भी उसके विकास के रास्ते के लिए चुनौती हो सकती हैं।

अज्ञेय की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि हमारे दौर की सबसे बड़ी चुनौती है, 'एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण'। यह एक सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया है। उसका रास्ता रोकने के लिए अपसंस्कृति की राजनीति नए-नए रूपों वाले 'भक्त राष्ट्रों का निर्माण' करती रहती है। यह स्थिति हमारे समय में इतने उग्र रूप में मौजूद है कि आलोचना का दायित्व पहले से कहीं अधिक गहन हो गया है।

इसलिए हमें 'आलोचकों के राष्ट्र' की नहीं, एक 'जीवंत आलोचक राष्ट्र' की जरूरत है। यह काम आलोचकों के साथ-साथ, लेखकों और पाठकों की समवेत पूरक भूमिका की मांग करता है। यानी हमें आलोचक से अधिक अलोचनात्मक दृष्टि के सम्यक होने को महत्त्व देना सीखना और उसमें सबको अपनी बराबर भूमिका दर्ज कराने के लिए आगे आना होगा।

रामचंद्र शुक्ल की तरह ही नामवर सिंह ने 'दूसरी परंपरा की खोज' में, 'मर्यादा मूलक लोकमंगल' से मिलता-जुलता, 'साहित्यिक शिष्टता' का मुद्दा उठाया। 'शिष्टता' एक सभ्यता मूलक पैमाना है। भाषा में मर्यादा के निर्वाह से इसका सीधा संबंध है। नामवर सिंह ने 'संस्कृति की प्राथमिकता' वाली विचारधारा में, कलावाद के भी नुमाया हो जाने को देखा है।

वहां वे उसके 'संतुलन' और 'समरसता' वाले पहलुओं पर प्रहार करते हुए, इस तरह की 'शिष्टता' को अभिजात संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। जैसे आइए रिचर्डस द्वारा व्यक्त सौंदर्य के तत्वों में से एक है- 'मनोवृत्तियों की समरसता'।

इन सब बातों का संबंध 'भाषा में शिष्टता' के साथ है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि खुद नामवर सिंह इसके पक्ष में पूरी तरह खड़े दिखाई नहीं देते। पर बात जब सम्यक आलोचना दृष्टि के विकास की उठती है, तो ऐसी स्थापनाओं से बचना जरूरी लगता है।

दरअसल, हिंदी आलोचना तुलसी और कबीर में द्विभाजित है। खुद नामवर सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि 'बुद्धि से वे कबीर के साथ हैं, पर जहां तक हृदय की बात है, वह तो तुलसी में ही रहता है।' तुलसी के साहित्य की जांच-परख करनी हो, तो शिष्टता और स्पष्टता को पैमाना बनाया जा सकता है। पर कबीर को देखेंगे तो वहां 'अशिष्ट होने की हद तक अक्खड़ता' मिलेगी।

जहां तक अपने समय के साहित्य की जांच-परख के 'औजार' खोजने का सवाल है, हम पहले से भी कहीं अधिक जटिल परिदृश्य के रूबरू हैं। अब शिष्टता जैसे 'मूल्यबोधक' और स्पष्टता जैसे 'अर्थ मीमांसीय' प्रतिमान हमारे काम के नहीं रह गए हैं। इनकी जगह अब हम 'सापेक्षता' और 'बहुलता' वाली अर्थमीमांसा की ओर आ रहे हैं। बहुत से अर्थों की एक साथ मौजूदगी एक तरफ!

अर्थों के सह-अस्तित्व' की तरह व्याख्यायित होगी, तो दूसरी तरफ 'निश्चयात्मक और अनिश्चयात्मक अर्थों के बीच द्वंद्व' को देखने की ओर ले जाएगी। अब हम 'भाषा-पाठों को समग्रता' में देखना आरंभ कर सकते हैं और उसके लिए 'अंतर्पाठीय आलोचना पद्धति' को अपनाने की बाबत सोच सकते हैं।

इससे यह समझ पाना कठिन नहीं कि साहित्य और आलोचना में विवेकपूर्ण आपसदारी क्यों अपरिहार्य है। इसके बिना, अगर आलोचना, साहित्य में मौजूद अपनी जमीन खो देती है, तो साहित्य अपनी ही जमीन पर चलने के लिए जरूरी, दिशाबोध से वंचित हो सकता है।

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