सम्पादकीय

चीन की रणनीति से उपजे संकट

Subhi
16 Jun 2022 4:36 AM GMT
चीन की रणनीति से उपजे संकट
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सामरिक दृष्टि से अहम होने के कारण पूर्वी लद्दाख से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीन अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ाता हुआ शांति बनाए रखने के समझौतों की लगातार अनदेखी करता रहा है।

ब्रह्मदीप अलूने; सामरिक दृष्टि से अहम होने के कारण पूर्वी लद्दाख से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीन अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ाता हुआ शांति बनाए रखने के समझौतों की लगातार अनदेखी करता रहा है। चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा को विवादित मानता रहा है। उसने पूर्वी लद्दाख और अन्य इलाकों में बड़ी संख्या में सैनिकों और हथियारों के साथ मोर्चाबंदी कर ली है।

दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में स्पष्ट सीमा रेखा का सवाल उठा कर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के अस्तित्व को खारिज करने की चीनी रणनीति दशकों पुरानी है। एलएसी पर यथास्थिति बनाए रखने को लेकर भारत के कूटनीतिक नजरिए से अलग चीन सैन्य रणनीति पर चलता रहा है। 1962 के बाद भारत और चीन के बीच युद्ध भले न हुआ हो, लेकिन चीन की सैन्य महत्त्वाकांक्षा बढ़ती गई। चीन ने उच्च स्तर पर भारत से राजनयिक और आर्थिक संबंधों को मजबूत करने में दिलचस्पी तो दिखाई, लेकिन दूसरी ओर वह हिमालय की वादियों में सड़कें, रेल, हवाई पट्टियां, सैन्य बंकर और बुनियादी ढांचे को मजबूत कर भारत की सामरिक चुनौतियों को बढ़ाता रहा है।

हाल में अमेरिकी सेना के जनरल चार्ल्स ए फ्लिन ने लद्दाख में चीन की गतिविधियों पर जो चिंता जाहिर की, उसे खारिज इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि पूर्वी लद्दाख में चीन का सैन्य व्यवहार बेहद तनाव भरा रहा है। पिछले दो-तीन वर्षों में लद्दाख में भारत के रक्षा मंत्री की मौजूदगी और सेनाध्यक्ष का दुर्गम सैन्य स्थलों का निरीक्षण करना महज संयोग नहीं है। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियों को भारत ने अब राजनयिक और सैन्य स्तर पर स्वीकार भी किया है।

हिमालयी क्षेत्र में भारत का केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख सामरिक रूप से बेहद संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण है, जहां से चीन और पाकिस्तान पर नजर रखी जाती है। लद्दाख उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच में स्थित है। भारत लद्दाख की उस जमीन को वापस हासिल करने के लिए प्रतिबद्धता जताता रहा है जो इस समय चीन और पाकिस्तान के कब्जे में है। लद्दाख के अंतर्गत पाक अधिकृत गिलगित बालतिस्तान, चीन अधिकृत अक्साई चीन और शक्सगम घाटी का क्षेत्र शामिल है। 1963 में पाकिस्तान ने एक समझौते के तहत पांच हजार एक सौ अस्सी वर्ग किलोमीटर का जो शक्सगम घाटी क्षेत्र चीन को उपहार में दिया था, वह लद्दाख का ही हिस्सा है।

सामरिक दृष्टि से अहम होने के कारण पूर्वी लद्दाख से सटी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीन अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ाता हुआ शांति बनाए रखने के समझौतों की लगातार अनदेखी करता रहा है। चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा को विवादित मानता रहा है। उसने पूर्वी लद्दाख और अन्य इलाकों में बड़ी संख्या में सैनिकों और हथियारों के साथ मोर्चाबंदी कर ली है। इसी कारण गलवान घाटी, पैंगोंग त्सो और गोगरा हाट स्प्रिंग्स जैसे इलाकों में दोनों देशों की सेनाएं कई बार आमने-सामने आ गर्इं। भारत ने भी इन इलाकों में किसी भी हालात से निपटने के लिए सैनिकों की तादाद बढ़ा दी है। साथ ही इस इलाके में पुल, हवाई पट्टियां और सड़कें बनाने के काम में तेजी दिखाई है।

पूर्वी लद्दाख में सैन्यीकरण की जरूरत को चीन की असामान्य गतिविधियों ने पुख्ता किया है। चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की पश्चिमी कमान का मुख्यालय तिब्बत में स्थित है। चीनी सेना की यही कमान भारत के लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैली वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात है। पिछले कुछ वर्षों में इस कमान के उच्च सैन्य अधिकारी को बदलने में चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग ने अभूतपूर्व तेजी दिखाई।

पिछले साल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बिना किसी पूर्व घोषणा के तिब्बत की यात्रा करके सबको चौंका दिया था। इस यात्रा के दौरान वे न्यिंग्ची रेलवे स्टेशन गए थे जो अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगा है। जिनपिंग चीन के पहले बड़े नेता हैं जिन्होंने भारत और चीन की सीमा के पास बसे इस शहर का दौरा किया था। चीन इस समय अपने पूर्वी और पश्चिमी इलाकों को आपस में जोड़ने के लिए बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है। नेपाल से रिश्ते और प्रगाढ़ करने के लिए ल्हासा न्यिंग्ची-रेलमार्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। भारत की सीमा से लगती यह रेल योजना एक हजार सात सौ चालीस किलोमीटर की है। जाहिर है, भारत से लगी सीमा के इलाकों में चीन जिस तरह बुनियादी सुविधाएं विकसित कर रहा है, वे सामरिक रूप से बड़ी चुनौती हैं।

पिछले साल जून में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कतर आर्थिक मंच से साफ कहा था कि चीन के साथ एलएसी पर तनाव में दो मुद्दे अहम हैं। पहला सीमा पर सेना की लगातार आमने-सामने तैनाती और दूसरा यह कि चीन बड़ी संख्या में सेना की तैनाती नहीं करने के लिखित वादे पर कायम रहेगा या नहीं। इससे साफ होता है कि भारत और चीन के बीच अविश्वास की खाई बढ़ गई है।

दरअसल, चीन की सैन्य गतिविधियों को लेकर भारत का यह अविश्वास यथास्थिति को बदलने की चीन की कोशिशों से बढ़ा है। चीन ने पश्चिमी सैन्य कमान क्षेत्र में बुनियादी ढांचा काफी मजबूत कर लिया है। इससे भारत सतर्क है। पिछले साल फरवरी में दोनों देशों ने पैंगोंग त्सो के उत्तरी और दक्षिणी किनारे पर चरणबद्ध तरीके से तनाव कम करने की घोषणा की थी, लेकिन ऐसा जमीन पर होता नजर आया नहीं। गोगरा और हाट स्प्रिंग्स, डेमचोक और देपसांग जैसे इलाकों को लेकर चल रहा विवाद जारी है। इसका समाधान करने के लिए कई स्तर की बातचीत बेनतीजा रही है।

अमेरिकी साइबर सिक्योरिटी फर्म की उस रिपोर्ट को भी भारत ने स्वीकार किया है जिसमें चीन के हैकरों ने पिछले साल सितंबर में लद्दाख के पास बिजली वितरण केंद्रों पर कम से कम दो बार हमले की कोशिश की थी। चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी की शिंजियांग सैन्य कमान ने टैंक, दूर तक मार करने वाले राकेट लांचर और वायु रक्षा प्रणाली को भारत से लगी सीमा पर तैनात कर दिया है। इससे चीन के आक्रामक इरादों का पता चलता है।

भारत की सबसे बड़ी चुनौती सीमाओं पर अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति बहाल करना है। गौरतलब है कि एक मई 2020 को दोनों देशों के सैनिकों के बीच पैंगोंग त्सो झील के उत्तरी किनारे पर झड़प हुई थी। इसके बाद जून में गलवान घाटी में एक बार फिर दोनों देशों के सैनिकों में झड़प हुई। जिसमें भारत के चौबीस जवान शहीद हो गए थे। पैंगोंग झील सामरिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय सम्मान की दृष्टि से भारत के लिए अति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। 1962 तक भारतीय सेना पैंगोंग झील में फिंगर-8 तक गश्त किया करती थी।

भारत चीन युद्ध के बाद सेना की गश्त इस इलाके में अनियमित हो गई और यहीं से सुरक्षा का बड़ा संकट खड़ा हो गया। इस समय भारत की सेना फिंगर-4 तक गश्त के लिए जाती है। यहां चीन की सेना का भारी दबाव बना हुआ है। रणनीतिक तौर पर भी इस झील का काफी महत्त्व है क्योंकि यह झील चुशूल घाटी के रास्ते में आती है। चीन इस रास्ते का इस्तेमाल पर हमले के लिए कर सकता है। 1962 के युद्ध के दौरान यहीं से चीन ने भारत पर हमला किया था। भारत चीन के साथ तकरीबन साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी सीमा रेखा साझा करता है। चीन इस रेखा को तकरीबन दो हजार किलोमीटर की बताता है और भारत के कई इलाकों पर अवैधानिक दावा जताता रहता है।

भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भारत का रूस जैसे देश से अलग होकर अमेरिका के साथ पूर्ण सामरिक साझेदार बन जाना आसान तो नहीं है, लेकिन भारत चीन से मिलने वाली सुरक्षा चुनौतियों में अमेरिका की उपयोगिता को नजरअंदाज भी नहीं कर सकता। चीन की सैन्य और साम्राज्यवादी रणनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं हिंद प्रशांत क्षेत्र में वैश्विक सुरक्षा संकट बढ़ा रही हैं। ऐसे में भारत के यथार्थवादी हित अमेरिका के साथ ज्यादा सुरक्षित दिखाई पड़ते हैं।


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