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- अपराधी का मानस
Written by जनसत्ता: कहते हैं, कोई जन्मजात अपराधी नहीं होता। कुछ परिस्थितियों के चलते अपराधी बन जाते हैं, कुछ सोहबत के चलते, तो कुछ मनोविकारों के चलते। मगर जब अपराधी की सजा तय होती है, तो साक्ष्यों पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। अपराध की प्रकृति और उसकी गंभीरता के मद्देनजर सजा का निर्धारण किया जाता है। जघन्य अपराधों में कठोरतम सजा के रूप में फांसी का प्रावधान है।
इसलिए हमारे यहां सजा-ए-मौत के मामले भी बहुत आते हैं। फिर निचली अदालतों के उन फैसलों को उच्च और उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाती है। अंतिम रूप से राष्ट्रपति से जीवनदान पाने की गुहार लगाने का विकल्प भी है। हालांकि हमारे यहां फांसी की सजा समाप्त करने की मांग भी लंबे समय से उठती रही है, क्योंकि इस सजा के बाद व्यक्ति के सुधरने या अच्छा नागरिक बनने की संभावना समाप्त हो जाती है।
दुनिया के बहुत सारे देशों में फांसी की सजा का प्रावधान समाप्त किया जा चुका है। इन्हीं सब बिंदुओं के मद्देनजर अब सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि मौत की सजा पाए व्यक्तियों का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन भी अवश्य किया जाए। इसके लिए चिकित्सा संस्थानों के सुयोग्य मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों की टीम गठित की जाए। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश से मौत की सजा के मामलों में दंड तय करने और अपराध विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन के कुछ बेहतर नतीजों की उम्मीद बनती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के उच्च न्यायालयों द्वारा सुनाई गई मौत की सजा के विरुद्ध दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया है। किसी को मौत की सजा देना सभ्य समाज की निशानी नहीं माना जाता। यह बर्बर समाज की कार्रवाई मानी जाती है। इसीलिए दुनिया के बहुत सारे देशों में ऐसी सजा का प्रावधान समाप्त कर दिया गया है।
जघन्य अपराध करने वालों के मानस का अध्ययन कर समझने का प्रयास किया जाता है कि आखिर उस व्यक्ति ने किन परिस्थितियों के चलते ऐसा कदम उठाया। मगर हमारे यहां ऐसे अध्ययन का अनिवार्य प्रावधान नहीं है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अनिवार्य कर दिया है। अपराध दरअसल, मानसिक विकृतियों, मानसिक उथल-पुथल का ही नतीजा होता है।
अक्सर देखा जाता है कि अपराध करने के बाद अपराधी पश्चात्ताप करता है, उसे अपने किए पर पछतावा होता है। मगर कई पेशेवर कहे जाने वाले अपराधियों का मानस कुछ जटिल होता है। हालांकि अपराधशास्त्र में अपराध करने वालों के मानस का अध्ययन ही किया जाता है और हर परिस्थिति में बदलती आपराधिक प्रवृत्ति पर बारीक नजर रखी जाती है। मगर न्याय प्रक्रिया में इन बिंदुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता।
अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ऐसे अपराधियों का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाएगा, तो न सिर्फ उनके अपराधी बनने, उनकी आपराधिक मानसिकता के बारे में ठीक-ठीक पता लगने की संभावना बनेगी, बल्कि इस तरह के अपराधियों की चिकित्सा संबंधी नए सूत्र भी मिल सकेंगे। इससे मनोचिकित्सा विज्ञान को नए अध्ययनों का लाभ मिल सकेगा। फिर समाज में बढ़ती आपराधिक घटनाओं को रोकने के उपायों पर भी नए ढंग से विचार करने के रास्ते खुलेंगे। अभी तक केवल दंड के भय से अपराध को रोकने का प्रयास किया जाता रहा है, शायद अब अपराधी को सुधारने के रास्ते भी खुलें। स्कूली पाठ्यक्रमों में पाठ्यक्रम तय करते समय भी इन अध्ययनों से कुछ मदद मिल सकती है, ताकि विद्यार्थी जीवन से ही आपराधिक मानस बनने को रोका जा सके।