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हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में सक्रिय आठ राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगा दिया
पुष्यमित्र , लेखक एवं पत्रकार।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में सक्रिय आठ राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगा दिया. वजह यह थी कि राजनीति में अपराधीकरण को सीमित करने के लिए उसके द्वारा तैयार निर्देशों का इन दलों ने पालन नहीं किया था. देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना करने वाली पार्टियों में हर विचारधारा और पक्षधरता को मानने वाले राजनीतिक दल शामिल थे. मगर, कोर्ट द्वारा आर्थिक दंड लगाने के बाद भी इस विषय को लेकर बहुत कम चर्चा हो रही है. दंड भी इतना अधिक नहीं है कि इन दलों की सेहत पर कोई खास असर पड़े. ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि क्या अदालती जुर्माने भर से राजनीति का अपराधीकरण रुक जायेगा. या फिर इसके लिए समाज को, वोटरों को ही जागरूक होना पड़ेगा.
दरअसल, 13 फरवरी, 2020 को अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई राजनीतिक दल किसी ऐसे व्यक्ति को चुनावी टिकट देता है, जिस पर पहले से आपराधिक मामले हैं, तो उसे 48 घंटे के अंदर इस जानकारी को मीडिया के जरिए सामने लाना पड़ेगा कि उक्त व्यक्ति पर कौन-कौन से आपराधिक मुकदमे हैं और आखिर पार्टी क्यों आपराधिक मुकदमों का आरोपी रहने के बावजूद उस व्यक्ति को टिकट दिया. मगर, बिहार विधानसभा चुनाव में ज्यादातर दलों ने ऐसी सूचना या तो अखबारों में नहीं छपवाई, अगर छपवाई भी तो उसने प्रमुख अखबारों के बदले छोटे और कम प्रसार वाले अखबारों को इस काम के लिए चुना.
बसपा मिला संहेद का लाभ, सुप्रीम कोर्ट ने इन दलों को पाया दोषी
सुप्रीम कोर्ट ने नौ प्रमुख दलों को इस अपराध का दोषी पाया और बसपा को संदेह का लाभ देते हुए, शेष सभी दलों पर आर्थिक दंड लगा दिया. इन दलों में भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां भी हैं, जदयू, लोजपा और राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी और भाकपा-माकपा जैसे दल भी हैं, जो वाम सिद्धांतों के पैरोकार हैं. इन सभी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए यह सूचना छिपाने की कोशिश की.यह राजनीति के लिहाज से बड़ी खबर थी, मगर इस खबर को लेकर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, हुई नहीं. राजनीतिक दलों का इस मसले पर मौन रह जाना तो समझ आता है, क्योंकि इस फैसले में लगभग सभी दल दोषी पाये गये थे. एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और पॉलिटिकल माइलेज लेने की संभावना कम थी. मगर आम वोटर क्यों इस फैसले को लेकर निरुत्साहित हैं, यह बड़ा सवाल है.
हालांकि यह कोई अनसुलझा सवाल नहीं है, क्योंकि उदाहरण बताते हैं कि राजनीति में अपराधीकरण को लेकर आम वोटर कभी बहुत चिंतित नहीं होता. सच तो यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की चुनाव जीतने की संभावना हमेशा अधिक होती है, इसलिए पार्टियां तमाम सिद्धांतों को धता बताकर ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे देती है.
दो चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या एक तिहाई
अब अगर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव की ही बात की जाए, तो उस चुनाव में मैदान में उतरे प्रत्याशियों में से 32 फीसदी ऐसे थे, जिनपर कोई न कोई आपराधिक मुकदमा था. यह जानकारी तब चुनावी शुचिता का अभियान चलाने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआऱ) ने दी थी. यह संख्या 2015 में हुए पिछले बिहार विधानसभा चुनाव से दो फीसदी अधिक थी, पिछले चुनाव में 30 फीसदी प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे. मतलब यह कि दोनों चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या कुल उम्मीदवारों का लगभग एक तिहाई थी. मगर जब चुनावी नतीजे आये, तो यह आंकड़ा उलट गया.
अब अगर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव की ही बात की जाए, तो उस चुनाव में मैदान में उतरे प्रत्याशियों में से 32 फीसदी ऐसे थे, जिनपर कोई न कोई आपराधिक मुकदमा था. यह जानकारी तब चुनावी शुचिता का अभियान चलाने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआऱ) ने दी थी. यह संख्या 2015 में हुए पिछले बिहार विधानसभा चुनाव से दो फीसदी अधिक थी, पिछले चुनाव में 30 फीसदी प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे. मतलब यह कि दोनों चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या कुल उम्मीदवारों का लगभग एक तिहाई थी. मगर जब चुनावी नतीजे आये, तो यह आंकड़ा उलट गया.
चुनाव जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या कुल विधायकों का दो तिहाई हो गई. एडीआर ने फिर से आंकड़ा दिया कि विधायक चुने जाने वाले 68 फीसदी उम्मीदवारों पर कोई न कोई आपराधिक मुकदमा है. मतलब साफ था कि वोटरों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को अधिक तरजीह दी. उन्हें खारिज करने के बदले प्राथमिकता दी गई. लोगों ने उन्हें उन उम्मीदवारों के मुकाबले चुना जो साफ चरित्र वाले थे. यही वह वजह है कि तमाम बातों के बावजूद राजनीतिक दलों को ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देना ज्यादा सेफ लगता है.
ऐसा भी नहीं है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले ये उम्मीदवार जो बाद में प्रतिनिधि चुने जाते हैं, जनता के किसी भलाई के लिए चलाये गये आंदोलन की वजह से, राजनीतिक कारणों से मुकदमों में फंसे होते हैं. इन लोगों पर हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे गंभीर आरोप हैं, ऐसे आरोप हैं कि इन्हें सामान्य तौर पर समाज से दूर रखने की सिफारिश होनी चाहिए. मगर इसके बदले कि समाज, वोटर ऐसे लोगों को खारिज करे, उन्हें चुनकर विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचा देता है.
उम्मीदवारों के अपराधों की सूची भर अखबारों में छपवा देने से ही क्या होगा?
अगर ऐसा है तो इन उम्मीदवारों के अपराधों की सूची भर अखबारों में छपवा देने से ही क्या होगा? ऐसा करने के पीछे सुप्रीम कोर्ट की मंशा तो यही है कि लोगों को पता चले कि उनके उम्मीदवार किन गतिविधियों में संलग्न हैं. मगर यह छप भी जाये तो क्या फर्क पड़ेगा? जब वोटर ही ऐसे उम्मीदवारों को तरजीह देते हैं तो इनके अपराधों की सूची होर्डिंग में भी लगा देने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं. क्योंकि वोटरों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता.
असल दोष हमारी सामूहिक सोच का है, जो अपना प्रतिनिधि चुनते वक्त यह ध्यान नहीं देती कि उसकी छवि कैसी है, आम लोगों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कितनी है, वह इमानदार है या बेइमान. वोटर अभी भी जाति और मजहब के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुन रहे हैं. अपनी जाति-धर्म और सोच के उम्मीदवारों के सौ खून माफ कर दे रहे हैं. उन्हें अच्छा प्रतिनिधि नहीं, कथित तौर पर अपना आदमी चाहिए जो उसकी बिरादरी का हो औऱ बिरादरी के लिए सच्चे-झूठे काम करने में हिचकता न हो. भले वह चुनाव जीतने के बाद अपनी ही बिरादरी के लोगों को पहचानना भूल जाये. मगर वोटरों की निष्ठा अमूमन बदलती नहीं. जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, अखबार में अपराधों की सूची छपवा देने से भी शायद ही कोई बदलाव आयेगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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