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- जुर्म बनाम जमानत
Written by जनसत्ता: जमानत जैसे मामलों में कम ही ऐसा होता है कि किसी उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय रद्द कर दे। मगर लखीमपुर खीरी मामले में आशीष मिश्रा की जमानत को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया। अदालत को फिर से उस पर सुनवाई करने और आशीष मिश्रा को एक हफ्ते के भीतर आत्मसमर्पण का आदेश दिया। यह इलाहाबाद हाइकोर्ट और उत्तर प्रदेश सरकार दोनों को असहज करने वाला फैसला है। आशीष मिश्रा की जमानत अर्जी इलाहाबाद हाइकोर्ट को वापस लौटाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कड़ी टिप्पणी भी दर्ज की है।
उन्होंने कहा है कि न्यायालय ने अप्रासंगिक तथ्यों को तो तवज्जो दी, मगर जिन पक्षों पर उसे गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था, वह नहीं दिया। पीड़ित पक्ष को नहीं सुना गया और प्राथमिकी को ही आधार बना कर निर्णय सुना दिया गया। गौरतलब है कि आशीष मिश्रा की जमानत स्वीकृत करते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा था कि उनसे समाज को कोई खतरा नहीं है और उन पर भरोसा किया जा सकता है कि वे देश छोड़ कर नहीं भागेंगे। उस फैसले पर स्वाभाविक ही चौतरफा प्रतिक्रिया हुई थी। विचित्र यह भी था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने उस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर नहीं की।
चूंकि यह मामला राजनीतिक रसूख वाले लोगों से जुड़ा था, इसलिए पहले ही दिन से आशंका जताई जा रही थी कि इसमें इंसाफ मिलना मुश्किल है। यह आशंका पहले ही दिन से सच भी साबित होती दिखने लगी थी। आशीष मिश्रा की गिरफ्तारी में प्रशासन लगातार ढीला रवैया अख्तियार किए हुए था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी फटकार लगाई, तब घटना के करीब एक हफ्ते बाद गिरफ्तारी हो सकी।
फिर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति गठित करने का आदेश दिया था। उसमें भी पुलिस का रवैया टालमटोल का दिखता रहा। तब फिर सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाते हुए कहा था कि प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज किए जाएं। जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि आशीष मिश्रा ने गफलत में नहीं, बल्कि इरादतन प्रदर्शनकारी किसानों पर गाड़ी चढ़ाई थी। उसी के हिसाब से प्राथमिकी में बदलाव करने को भी कहा था। इन सबके बावजूद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उदारवादी रुख अपनाते हुए चार महीने बाद ही जमानत दे दी, तो लोगों की हैरानी स्वाभाविक थी। उस फैसले को पीड़ित पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।
कहा जाता है कि न सिर्फ इंसाफ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। आशीष मिश्रा के मामले में यह दोनों नहीं दिखा। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान न लिया होता, तो शायद उत्तर प्रदेश पुलिस की व्याख्या के आधार पर यह मामला कब का रफा-दफा भी हो गया होता। अदालतें साक्ष्यों पर निर्भर होती हैं। साक्ष्य पुलिस और जांच एजेंसियों को जुटाने होते हैं। अगर वे सरकारों के प्रभाव में काम करेंगी, तो सही साक्ष्य की उम्मीद धुंधली ही बनी रहेगी। हालांकि आशीष मिश्रा के मामले में गैरजमानती मामला होने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे। मगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन पर गौर करना जरूरी नहीं समझा और न पीड़ित पक्ष को सुना। इसी से स्पष्ट था कि उसने अपने कर्तव्य का निर्वाह सही तरीके से नहीं किया। अब सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश को नजरअंदाज कर पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय लगातार इस मामले पर अपनी नजर बनाए हुए है।