सम्पादकीय

जुर्म और सजा

Subhi
13 July 2022 5:43 AM GMT
जुर्म और सजा
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हमारे देश में बहुत सारे ऐसे लोग जेलों में बंद हैं, जिन पर जमानती जुर्म की धाराएं लगी हैं, पर मुकदमा दायर करने वाली इकाइयों के एतराज की वजह से उन्हें जमानत नहीं मिल पाती।

Written by जनसत्ता: हमारे देश में बहुत सारे ऐसे लोग जेलों में बंद हैं, जिन पर जमानती जुर्म की धाराएं लगी हैं, पर मुकदमा दायर करने वाली इकाइयों के एतराज की वजह से उन्हें जमानत नहीं मिल पाती। बहुत सारे विधि विशेषज्ञ और मानवाधिकार कार्यकर्ता लंबे समय से मांग करते रहे हैं कि ऐसे लोगों को तुरंत जमानत दे दी जानी चाहिए, जिनसे न तो समाज को कोई खतरा है, न उनके जेल से बाहर निकलने के बाद फिर से कोई अपराध करने की आशंका, न देश छोड़ कर भाग जाने का भय। जिन लोगों पर गैरजमानती धाराएं लगी हैं, उनके बारे में भी सदाशयतापूर्वक विचार करने की उम्मीद की जाती है।

मगर स्थिति यह है कि बहुत सारे मामूली जुर्म की धाराओं में भी अनेक लोग गैरजमानती धाराओं में बंद लोगों की तरह व्यवहार होता है। इस तरह अनेक ऐसे लोग हैं, जो अपने मुकदमे की पैरवी भी ठीक से नहीं कर पाते और संबंधित जुर्म के लिए तय सजा से अधिक समय वे जेलों में गुजार देते हैं। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सीबीआई द्वारा दायर एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालयों को जमानत संबंधी याचिकाओं के जल्द निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए। जिन जमानत संबंधी याचिकाओं पर एतराज हो, उनका निपटारा भी दस हफ्ते के भीतर हो जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश से स्वाभाविक ही लोगों में एक उम्मीद जगी है। दरअसल, लोगों को जमानत न मिल पाने और विचाराधीन कैदी के रूप में लंबे समय तक रखे जाने से न सिर्फ जेलों पर बोझ बढ़ता है। अनेक जेलों में इसी वजह से क्षमता से कई गुना अधिक कैदी बंद हैं। इससे वहां कैदियों को न तो माकूल मानवीय सुविधाएं मिल पाती हैं और न सुरक्षा के इंतजाम सुचारु हो पाते हैं। फिर उनके मानवाधिकारों का हनन होता है।

अनेक कैदी वर्षों जेल में बंद रहने के बाद आखिरकार निर्दोष घोषित कर छोड़ दिए जाते हैं। इस तरह उनके ऊपर समाज में जो कलंक लगता है, जीवन भर उसे ढोते रहना पड़ता है वह अलग, उनके जीवन के कई कीमती वर्ष बर्बाद चले जाते हैं। इस विषय पर लंबे समय से बहस होती रही है, मगर अदालतें अब तक इसका कोई समाधान नहीं निकाल पाई हैं। देखना है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश पर इस दिशा में क्या रास्ता निकल पाता है।

दरअसल, अरपराध की कुछ ऐसी धाराएं हैं, जिनमें जमानत देने से अदालतें हिचकती हैं। मसलन, पिछले कुछ वर्षों में मामूली अपराध में भी बहुत सारे लोगों के खिलाफ राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हैं। उनमें जमानत का प्रावधान नहीं है और उनकी जांच आदि में इतना समय जाया हो जाता है कि आरोपी को बेवजह जेल में दिन बिताने पड़ते हैं। इसी के मद्देनजर प्रधान न्यायाधीश ने अदालतों पर मुकदमों के बढ़ते बोझ के संदर्भ में तल्ख टिप्पणी की थी कि सरकार खुद सबसे बड़ी मुदमेबाज है।

इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्देश पर भी तब तक किसी सकारात्मक पहल की उम्मीद नजर नहीं आती जब तक सरकारें खुद इस तरह के मुदमे लोगों पर लादने से बाज न आएं, जिनमें जमानत देना अदालतों के लिए मुश्किल हो। छिपी बात नहीं है कि हर सरकार अपने विरोधियों को सबक सिखाने या दबाने के लिए ऐसी धाराओं का इस्तेमाल करती है, जिसमें उन्हें जेल में डालना मजबूरी होती है। मगर इसमें सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर तो जमानत के प्रावधान बनाना मुश्किल नहीं।


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