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कोरोना वायरस के कहर के बीच तमाम दवा कंपनियों की कमाई बढ़ गई है
संजय श्रीवास्तव। कोरोना वायरस के कहर के बीच तमाम दवा कंपनियों की कमाई बढ़ गई है। यह भी तब जब आज तक सही मायने में कोरोना की कोई दवा बाजार में नहीं है। कोरोना के बेहतर निदान यानी जांच और इसका संक्रमण फैलने से रोकने वाले, इम्युनिटी बढ़ाने वाले अवयवों का बाजार इस दवा बिजनेस के मुनाफे को बढा रहा है। अस्पतालों की फार्मेसी, सामान्य केमिस्ट और ऑनलाइन दवा विक्रेताओं के अलावा सरकारी खरीद सब मिलकर इस आपदा में चांदी काट रहे हैं। मुनाफे का महान मौका ताड़कर करीब दो दर्जन दिग्गज दवा कंपनियां इस मुनाफे की मारामारी में कूद पड़ी हैं। फलत: यूरोप, अमेरिका और चीन से अगले दो महीने भीतर कोरोना की 35 नई दवाओं की आमद के आसार हैं।
एक दवा कंपनी का दावा है कि उसकी दवा महज 24 घंटे में कोरोना से निजात दिला देगी। दवाओं की यह बाढ़ कोरोना को बहा पाए या नहीं पर दवा कंपनियां लाभ से आप्लावित हो जाएंगी, यह तो तय है। इस मामले में भारतीय कंपनियां भी पीछे नहीं रहेंगी। रूसी स्पुतनिक के बाद अब देश में जल्द ही तीन और वैक्सीन बिकने लगेगी। कुल छह वैक्सीन ले सकेंगे लोग। संभव है जायडस कैडिला की बनाई दवा पेगीलेटेड इंटरफेरॉन अल्फा-2बी जल्द ही कोरोना की इटोलीजुमैब, रिटोनाविर और लोपिनाविर, डॉक्सीसाइक्लिन के साथ आइवरमेक्टिन का कॉम्बीनेशन, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और फेवीपिरविर तथा रेमडेसिविर जैसी उन दवाओं में शामिल हो जाए जो देश में कोरोना के इलाज में इस्तेमाल हो रही हैं
देश में मिलने वाली ग्लेनमार्क फार्मा कंपनी की दवा फैबिफ्लू भी ऐसी ही दवा है, जो कभी फ्लू के इलाज में काम आती थी, अब कोरोना का इलाज कर रही है। दरअसल यह र्चिचत रेमडेसिविर की ही तरह का मल्टी स्पेक्ट्रम एंटीवायरल है और फेवीपीराविर का उन्नत संस्करण है जो इस ब्रांड नाम से बिकती है। चूंकि दवा का कोई रैडमाइज्ड कंट्रोल ट्रायल नहीं हुआ है, जो अत्यावश्यक है, इसलिए इसे महज आपात और सीमित इस्तेमाल की अनुमति है। पर इसको कौन देख रहा है। मरीजों के रिश्तेदार विवश होकर और हड़बड़ी में इन्हें खरीद रहे हैं। कंपनियां भी जानती हैं कि ये कोरोना की दवा नहीं है। इलाज की संभावना का तो बस दावा। यह एक तरह से आपदा में अवसर है, भयादोहन है। देश में जिस तरह कोरोना की जबरदस्त लहर आई है, उसी अनुपात में दवा उद्योग में भी मुनाफा काटने की सुनामी आई हुई है।
हालांकि चिकित्सकीय विशेषज्ञ हो अथवा मेडिसिन या वायरोलॉजिस्ट सभी का कहना है कि कोरोना की अभी कोई दवाई नहीं है। ये सभी दवाइयां वैकल्पिक हैं। तमाम दूसरे रोगों की दवाइयां कोरोना के नाम पर दी जा रही हैं। आपात स्थिति में इन्हें आजमाने में कोई बुराई नहीं। ये दवाइयां कोरोना मरीजों के लिए कई बार लाभप्रद भी साबित हुई हैं। भले इलाज के मामले में न हों पर बचाव के मामले में इनका सहयोग मिला है। लेकिन फिर भी ज्यादातर कोरोना दवाएं ललटप्पू ही हैं। बब यह कि इस आपदा में बड़ा अवसर तलाशकर इस अफरातफरी के आलम में दवा उद्योग अंधाधुंध मुनाफा कूटने में लगा है। फार्मा कंपनियां औनेपौने ट्रायल आयोजित कर उन्हीं दवाओं को अलग ब्रांड के नाम से बना दे रही हैं और भारत के अलावा तमाम गरीब देशों में बेच दे रही हैं। सबसे बड़ा आड़ आपातकालीन प्रयोग को मंजूरी है, इसकी आड़ लेकर बहुत सी कंपनियां यह प्रचारित करके कि फलां बड़े देश में इसको मंजूरी मिली हुई है, बिक रही हैं। भारत, अमेरिका और ब्रिटेन समेत तमाम देशों की सरकारों ने इस मामले में उन दवाओं की स्वीकृति में पर्याप्त ढील दी जिसके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि वह कोरोना से लड़ने में मददगार है।
यकीन मानिये कि कई दवाओं को तो सौ से भी कम मरीजों पर परीक्षण किया गया और इसकी सफलता प्रतिशत ठीक-ठाक बताकर इसके लिए आवेदन किया और सरकारों ने आपातकाल में इस्तेमाल के नाम पर इजाजत दे दी। आपातकाल में इस्तेमाल मतलब मरीज या उसके रिश्तेदार से इस दवा के प्रयोग की सहमति है। आखिरी उपाय देखकर मरीज और उसके रिश्तेदार राजी हो जाते हैं। ऐसे में दवा के प्रतिकूल प्रभाव की जिम्मेदारी किसी की नहीं रह जाती। मरीज इस दवा के बाद भी न बचे तो उसकी किस्मत। इसके लिए न तो दवा कंपनी दोषी है, न सरकार, न चिकित्सक, न अस्पताल।
सरकार को लगता है कि उसने ज्यादा से ज्यादा दवाओं की मंजूरी देकर जनहित और कोरोना संक्रमितों के हित में लोकप्रिय काम किया, पर सच तो यह है कि इस हित का अधिकांश हिस्सा दवा कारोबारियों की जेब में जा रहा है। पिछले साल कुछ विज्ञान पत्रिकाओं में छपा कि भारत में दो अवैध दवाओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से कोरोना के इलाज में हो रहा है। इसके समर्थन में कई विदेशी विज्ञानी भी आए, लेकिन हुआ कुछ नहीं। दरअसल बदहवास रिश्तेदार, तीमारदार कोरोना की अबूझ सी दवा के बारे में कुछ नहीं जानते और सरकारों को क्या पड़ी है कि वे इसे रोकें। ज्यादातर दवाएं संदेह के लाभ में बरी हैं, क्योंकि पर्याप्त आंकड़ा ही नहीं है। न तो कोई प्रमाण है और न कोई संतुष्टि कारक आंकड़ा। दवा उद्योग तो खैर रोकना ही नहीं चाहेगा, उसके लिए तो भयादोहन का यह बेहतर मौका है।
[वरिष्ठ पत्रकार]
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