सम्पादकीय

Covid-19: जमींदार की तरह अहंकार जता रहे हैं विकसित देश

Rani Sahu
4 May 2022 5:57 PM GMT
Covid-19: जमींदार की तरह अहंकार जता रहे हैं विकसित देश
x
भारत सहित कुछ अन्य देशों के महागठबंधन ने कोरोना उपचार से संबंधित सभी बौद्धिक संपदाओं को स्थगित करने के प्रस्ताव दिया है

शिरीष खरे

भारत सहित कुछ अन्य देशों के महागठबंधन ने कोरोना उपचार से संबंधित सभी बौद्धिक संपदाओं को स्थगित करने के प्रस्ताव दिया है. सवाल है कि कितना अनिवार्य है यह प्रस्ताव और इसे लेकर क्यों उलझन में पड़ गए दुनिया के अमीर देश.
बात दो सदी पुरानी है. फ्रांस में भयंकर अकाल पड़ा. भोजन जैसी बुनियादी जरुरत को लेकर वहां की आम जनता के बीच हाहाकार मच गया. फ्रांस की क्रांति से पहले फ्रांस की आखिरी रानी मारी आंत्वानेत के पास जाकर एक अधिकारी ने बताया कि लोगों को खाने के लिए रोटी नहीं मिलती है. रानी ने जवाब दिया तो उन्हें केक खाने दो.
यह प्रसंग आज भी प्रयोग में लाया जाता है. ताजा संदर्भ कोरोना जैसी महामारी के बीच अमीर और गरीब देशों के बीच बंटी आज की दुनिया के बारे में है. अमीर दुनिया के देश अपनी दुनिया में रहते हुए कितने अंधे हैं, जो गरीबी से लेकर कोविड-19 जैसे संकट से अनजान बने हुए हैं. कायदे से कोरोना जैसे वैश्विक संकट के समय इससे निपटने के लिए पूरी दुनिया को एकजुट और एक समान हो जाना था. लेकिन, जो हुआ और जो हो रहा है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अमीर और गरीब देश कभी भी इस संकट को एक नजर से नहीं देख सकते. एक ओर, उच्च आय वाले देशों में लोगों को बूस्टर खुराक मिलना जारी है. वहीं, कई गरीब देशों में बहुत सारे लोगों को अभी तक कोरोना प्रतिरोधी पहला टीका नहीं लगा है. इन गरीब देशों के लोगों के प्रति अमीर देशों का रवैया मारी आंत्वानेत जैसा ही है.
हम एक ऐसे समय में है, जहां भारत में कोरोना अपना झोला उठाकर भागने की स्थिति में दिख रहा है, लेकिन इसके ठीक विपरीत पड़ोसी देश चीन से खबर है कि वहां कोरोना की चौथी लहर की आशंका सिर के बल लटकी हुई है. इस हालत में विश्व व्यापार संगठन की भूमिका और कोरोना उपचार के मामले में हुए कुछ घटनाक्रमों के बारे में भारत जैसे देशों के प्रस्ताव को रेखांकित करना चाहिए.
भारत, विश्व व्यापार संगठन और वह प्रस्ताव
बात अक्टूबर 2020 की है, जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी की पहली लहर की चपेट में थी. ऐसी स्थिति में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन को कोरोना संबंधी सभी प्रकार की दवाओं, टीकों, उपकरणों और परीक्षणों से जुड़ी हुई बौद्धिक संपदाओं को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया. सैद्धांतिक रूप से विश्व व्यापार संगठन अंततः इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया. लेकिन, डेढ़ वर्ष बाद भी इस प्रस्ताव का लागू न होना दर्शाता है कि शायद उसने ऐसा तब भारत, दक्षिण अफ्रीका और अन्य देशों को चुप कराने के लिए किया होगा
दरअसल, यह प्रस्ताव महामारी में विशेष तरह की विषम परिस्थिति निर्मित हो जाने की स्थिति में दिया गया था. हुआ यह था कि कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान कई देशों में टीकों और दवाओं की कमी का एक मुख्य कारण दवा कंपनियों का दवाओं पर बौद्धिक संपदा अधिकार का होना बताया गया.
लिहाजा, भारत सहित कुछ देशों के महागठबंधन ने जो प्रस्ताव दिया उसका आशय है- कोरोना से संबंधित दवाओं और टीकों के अलावा मास्क व वेंटिलेटर जैसे उपकरण तथा नैदानिक परीक्षणों को तमाम कॉपीराइट, पेटेंट या बौद्धिक संपदा से बाहर रखना. ऐसा करने पर कोरोना उपचार से जुड़ी किसी भी तकनीक या प्रौद्योगिकी पर किसी का एकाधिकार नहीं होगा. दूसरे शब्दों में दुनिया के किसी भी देश की कोई भी दवा कंपनी इन उत्पादों का उत्पादन और बिक्री करने के लिए स्वतंत्र होगी.
मात्रा और कीमतों में होगा सुधार
इस प्रस्ताव के लागू होना पर दो लाभ हासिल होंगे. एक यह कि उत्पादों की मात्रा में कोई कमी नहीं होगी और इस प्रकार की सभी वस्तुएं बहुतायत में उपलब्ध होंगी. दूसरा, बौद्धिक संपदा अधिकारों के निरस्त होने से बाजार में प्रतिस्पर्धा पैदा नहीं होगी. इससे कीमतें कम होंगी. दोनों का लाभ आखिरी में गरीब जनता को होगा.
दरअसल, गरीब देशों के नजरिए से इस प्रस्ताव को वैश्विक स्तर पर एक संकल्प के तौर पर स्वीकार किया जाना चाहिए था. यही वजह रही कि भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन से इसे लेकर एक भावनात्मक अपील की. प्रस्ताव के शब्दों पर गौर करें, "सस्ते और बड़ी मात्रा में टीके और अन्य सामान उपलब्ध कराना मानवता की परीक्षा है. यह तो समय ही बताएगा कि विश्व व्यापार संगठन इस परीक्षा को पास करता है या नहीं. इतिहास की निगाहें अब इस परीक्षा पर टिकी हैं."
भारत ने इस प्रस्ताव के बारे में कहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की कुछ पहल सराहनीय हैं, लेकिन जो निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं हैं. हालांकि, इनके कारण कुछ सबसे गरीब देशों में टीकों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है. मगर, ये गतिविधियां सबसे गरीब देशों में टीकाकरण अभियान की शक्ल नहीं ले पा रही हैं. यही वजह है कि वर्ष 2021 के अंत तक दुनिया के सबसे गरीब लोगों के टीकाकरण का सपना पूरा नहीं हो सका है. इसलिए, विश्व व्यापार संगठन को अब बौद्धिक संपदा अधिकारों को समाप्त करना चाहिए. इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है.
2022 में प्रस्ताव की प्रासंगिकता
क्या अक्टूबर, 2020 में इस प्रस्ताव को बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले देश भारत द्वारा दी गईं दलीलें प्रासंगिक हैं? काफी हद तक हां. कारण यह है कि अप्रैल, 2022 के खत्म होने के बाद दुनिया की शत-प्रतिशत आबादी का टीकाकरण करने का सपना पूरा नहीं हुआ है. विश्व व्यापार संगठन के अनुसार, अभी तक दुनिया की 57 प्रतिशत आबादी को ही टीका लगाया जा सका है. हालांकि, विकसित देशों में 73 प्रतिशत आबादी को टीके की दोनों खुराकें मिल चुकी हैं, लेकिन वहां भी गरीबों की एक बड़ी आबादी टीकाकरण की प्रक्रिया से अब तक बाहर ही है. विकसित देशों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले 100 में से 48 को ही वैक्सीन लगी है, जबकि कम आय वाले देशों में 100 में से केवल 11 लोगों को ही वैक्सीन की दोनों खुराक मिली है. जाहिर है कि इस स्थिति में सभी के लिए वैक्सीन प्राप्त करने के लिए बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को निरस्त करना आवश्यक है.
हमने सुना है कि युद्ध में मुख्य योद्धाओं को सेनाओं द्वारा घेरा जाता है, ताकि वे पराजित न हों. इसी तर्ज पर कोरोना महामारी के समय में भी अमीर देशों के स्वास्थ्य कारोबारियों का संरक्षण किया जा रहा है, ताकि दवाओं पर वे अपने एकाधिकार और उससे होने वाले भारी मुनाफे को सुरक्षित रख सकें. जानकार बताते हैं कि दवा कंपनियां एक समान भूलभुलैया बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के बौद्धिक संपदा अधिकारों का उपयोग करती हैं. गरीब देश इस चक्रव्यूह को तोड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, जिससे उनके लोगों को सस्ती दवाएं मिल सकें. लेकिन, यह तो एक तरह से शिकार की पद्धति है. यदि शिकारी से शिकार करने का कौशल छीन लिया जाएगा तो उनका वर्चस्व ही टूट जाएगा. इसलिए, भारत सहित अन्य देशों के महागठबंधन के प्रस्ताव को लागू कराना आसान नहीं है.
विश्व व्यापार संगठन ने मौजूदा स्थिति पर कोरोना उपचार से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है. हालांकि, कयास लगाए जा रहे हैं कि टीके और अन्य रासायनिक दवाओं पर लागू बौद्धिक संपदा अधिकार निरस्त हो सकती है, लेकिन डायग्नोस्टिक टेस्ट और उपकरण पर यह लागू रहेगा. जानकारों की राय है कि इस स्थिति में यह इससे गरीब देशों को ज्यादा राहत नहीं मिलेगी.
कोरोना जैसी आपदा के दौर में भी विकसित देश किसी जमींदार की तरह अहंकार जता रहे हैं. इनके लिए हसन कमाल ने वर्ष 1983 में फिल्म 'मजदूर' में एक गीत लिखा था: "हम मेहनतकश इस दुनिया से, जब अपना हिस्सा मांगेंगे." इसी गीत की अगली पंक्तियां हैं:
"दौलत की अंधेरी रातों ने, मेहनत का सूरज छिपा लिया."
सवाल है कि भारत सहित अन्य देश जब अमीर देशों से अपनी मेहनतकश गरीब दुनिया के लिए अपना हक मांग रहे हैं तो क्या उन्हें उनका सवेरा हासिल होगा!


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story