सम्पादकीय

मेरे घर आया देश-2

Gulabi
23 Aug 2021 5:11 AM GMT
मेरे घर आया देश-2
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देश पीठ पर घाव लिए अपना दर्द बताता रहा, लेकिन अपनी-अपनी जीत के दावों में राजनीतिक दल उसे पुन: हांकते हुए मुझसे कहीं दूर ले जा रहे थे

divyahimachal .

देश पीठ पर घाव लिए अपना दर्द बताता रहा, लेकिन अपनी-अपनी जीत के दावों में राजनीतिक दल उसे पुन: हांकते हुए मुझसे कहीं दूर ले जा रहे थे। मुझे लगा मैंने नाहक देश से अपेक्षाएं पाल रखी थीं, यहां तो वह उलटे नागरिक से ही शरण मांग रहा है। यह अजीब सी विदाई थी। अगले पांच सालों तक मैं देश को ढूंढने में लगा दूंगा। मुझसे देश को छीनते हुए हर पार्टी की विचारधारा लगभग एक जैसी प्रतीत हो रही थी यानी जो इसे पूरी तरह कब्जे में रख लेगी, सफल मानी जाएगी। अब देश के साथ नागरिक नहीं विचारधारा ओढ़े भक्त चल रहे थे। उन्होंने देश के रिसते घावों के ऊपर राष्ट्रवाद की चादर इस तरह फैला दी कि मानो देश अब भक्ति भाव का नया नजारा बन गया हो। देश चादर के भीतर खुद से रगड़ खा रहा था और लोग खुश हो रहे थे कि पहली बार देश को चलाने में उनकी चादर सफल हो रही है। इससे पहले ऐसा नहीं था। लोगों को आगे बढ़ाने के लिए सरकारें काम करती थीं, लेकिन अब सरकार के काम करने के लिए देश मजदूरी कर रहा है।

देश की मजदूरी खुद देश कर रहा है, इसलिए सरकार को बही-खाते दुरुस्त करने की जरूरत नहीं थी। देश मजदूरी में इतना खो गया कि अब बात-बात पर ताली बजाकर सूचित करता है कि दिहाड़ी में कितने घंटे हो गए। देश को मालूम हो चुका है कि अब तक क्यों उसकी वजह से सरकारें असफल रहीं, बल्कि इस बार वह दिल से चाहने लगा है कि चाहे वह मजदूरी गिनते हुए थक जाए, लेकिन सरकार को थकने नहीं देगा। देश को ठोकरें खा-खा कर मालूम हो गया कि वह नहीं, हर बार नेता ही श्रेष्ठ होता है, इसलिए देश दिहाड़ी में खुद को साबित नहीं कर पा रहा है, जबकि नेता सदन की कार्यवाही रोककर भी तनख्वाह बढ़ा पा रहा है। देश हैरान है कि उसके मुद्दों पर सारी ही पार्टियां सिर-धड़ की बाजी लगा रही हैं, बल्कि इतना युद्ध तो महाभारत में भी नहीं हुआ। उसे बताया जा रहा था कि सारी राजनीति देश को विश्व गुरु बना कर ही पीछे हटेगी, इसलिए वह कांप रहा था कि कहीं वाकई 'विश्व गुरु' बन गया तो इस चादर से बाहर कैसे निकलेगा।

देश को अपनी जातीय मूंछों और धार्मिक दाढ़ी पर तो भरोसा था कि इससे 'विश्व गुरु' बना जा सकता है, लेकिन पेगासस जासूसी से डर था कहीं विश्व को यह पता न चल जाए कि उसकी बात तो संसद को भी पता नहीं चलती। संसद से भयभीत देश इसलिए भाग रहा है कि पेगासस के जासूस वहां तक मोबाइल टावर खड़े कर रहे हैं। अचानक उसके पास वर्षों से स्थापित नेताओं की मूर्तियां पहुंच जाती हैं। नेहरू-गांधी की मूर्तियां चाहती थीं कि वे अपना मुंह देश की चादर में छुपा लें। अहमदाबाद के स्टेडियम में पहुंचकर देश कोशिश करता रहा कि पुराने बुत हटा कर नए लगवा दे, लेकिन अचानक सामने पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति नीचे सरक आई। देश ने गौरवान्वित होकर उससे पूछा, 'तुम तो पटेल की मूर्ति हो। तुम्हारी ऊंचाई से मैं 'विश्व गुरु' लगता हूं तो क्यों यहां से नीचे उतरना चाहती हो।' मूर्ति अपनी आंखें भरती हुई बोली, 'दरअसल मेरे भीतर साजिशी, देशद्रोही और मवाली किसानों का लोहा जमा है, जो अब पिघल रहा है। उजड़ते खेतों की चिडिय़ां हर रोज मुझसे दाना मांगती हैं, अत: मैं उससे बचना चाहता हूं।' देश पर जासूसी की नजर ने बता दिया कि वह बिगड़ रहा है। सत्ता को शक हो गया, तो देश को ही पकड़ कर मूर्ति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। सत्ता अब देश को नया नाम देना चाहती है और उसे 'विश्व गुरु' कह कर बुलाया जाने लगा। देश अपने भीतर के 'हिंदोस्तान' व 'भारत' के मुकाबले 'इंडिया' से लड़ते-लड़ते थक चुका था, लिहाजा उसने अब मूर्ति का रूप धारण कर खुद को 'विश्व गुरु' कहलाना पसंद कर लिया है।

निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
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