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जीईपी के माध्यम से ही हम अपनी प्रकृति की चिंता करेंगे, और पृथ्वी को बचा पाएंगे।
पिछली सदी में जब सबसे बड़ी चुनौती पूरे देश और दुनिया को रोजगार देने से जुड़ी हुई थी, तब दुनिया की प्राथमिकता नए-नए रोजगार खड़ा करने की थी। भारत ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया नए रोजगार के सृजन के लिए चिंतित थी, चाहे अमेरिका हो, या ऑस्ट्रेलिया या अन्य देश। इन सभी देशों में रोजगार को सबसे बड़े संकट के रूप में देखा जा रहा था। अपने देश में भी आजादी के बाद से आज तक रोजगार ही सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है।
इसी के चलते औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ और इस क्रांति ने दुनिया में कई कीर्तिमान भी स्थापित किए। विकास को एक नई दिशा मिली और चारों तरफ विकास की बयार बहने लगी। यह एक ऐसी बयार थी, जिसने नए-नए रोजगार तो खड़े किए, लेकिन इसने प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का रास्ता भी दिखा दिया। हम इस तरह की होड़ में लग गए कि कैसे ज्यादा से ज्यादा और बेहतर रोजगार पैदा कर सकते हैं। इसके पीछे हमने तकनीकी और विज्ञान को झोंक दिया, जिनसे यह चमत्कार संभव था।
इस आर्थिक क्रांति ने दुनिया भर में अपनी पैठ बनाई, और भारत भी उन देशों में था। विकास की इन सारी यात्राओं ने, जो लगभग 200 साल की हो चुकी है, विभिन्न उद्योगों को जन्म दिया। इनमें ज्यादातर उद्योग वे थे, जो विलासिता की वस्तुओं को परोसते थे और उनकी खरीदारी ने एक नए बाजार को जन्म दिया। दुनिया भर में इसी को स्टैंडर्ड ऑफ लाइफ भी मान लिया गया, जिससे जीवन को सुविधापूर्ण तरीके से चलाया जा सके।
फिर जीडीपी का भी जन्म हुआ, क्योंकि इसी पैमाने पर यह नापा जाने लगा कि कौन-सा देश कहां खड़ा है। यह चिंता संयुक्त राष्ट्र की भी थी कि किस तरह से किसी देश की प्रगति को आंका जाए और कैसे दुनिया के अन्य कार्यों के लिए आर्थिक सहायता जुटाई जा सके। जब जीडीपी का जन्म हुआ, तो यह दुनिया भर का ऐसा उपकरण बन गया, जिससे किसी देश की प्रगति को नापा जाने लगा। अब एक तरफ जहां बढ़ती-घटती जीडीपी देश-दुनिया की धड़कनों को निर्धारित करने लगी, वहीं दूसरी तरफ जीवन के बड़े मूल्य, जिनसे सब कुछ संभव था, तिरस्कृत होने लगे
इस जीडीपी में हवा, मिट्टी, जंगल, पानी के तमाम हालात का कभी कोई ब्योरा सामने नहीं आता था। दुनिया भर में आज प्रकृति और पर्यावरण के बड़े संकटों की बात हो रही है, लेकिन इसके लिए न तो कोई संजीदगी दिखती है, न ही कोई साफ रास्ता। हर साल किसी न किसी मुद्दे पर पृथ्वी दिवस पर बहस होती है। इस वर्ष यह बहस पृथ्वी व उसमें निवेश को लेकर शुरू की गई है। आज तक पृथ्वी पर रहते हुए हमने कुछ इस तरह के निवेश पर ज्यादा चिंता की, जिसमें सरकार व उद्यमी हर तरीके से उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए, जीवन को बेहतर बनाने के लिए बड़े निवेश की चर्चा करते हैं।
लेकिन इस बात की चिंता कहीं नहीं दिखाई देती है कि हम किस तरीके से अपनी पृथ्वी को बेहतर बना सकते हैं। यह सवाल अब इसलिए खड़ा हो गया है कि दुनिया में दो बड़े संकट सबको दिखाई दे रहे हैं। एक प्राण वायु का और दूसरा पानी का। ये दोनों ही संकट पृथ्वी के बढ़ते तापमान से जुड़े हुए हैं। आने वाले समय में अगर इन पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया गया, तो शायद ये हमारे जीवन के लिए सबसे बड़ा श्राप का कारण भी बनेंगे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट भी यह बता रही है कि दुनिया में अब कहीं भी बेहतर दर्जे की प्राण वायु नहीं बची। हालिया एयर क्वालिटी इंडेक्स ने यह बताने की कोशिश की है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में वायु प्रदूषित हो चुकी है और कोई ऐसा शहर नहीं बचा है, जो वायु प्रदूषण न झेलता हो। इसकी सबसे ज्यादा गाज बच्चों पर गिर रही है। अपने देश का हाल तो और भी बुरा है। दुनिया के 50 शहरों में से 35 शहर तो भारत के ही हैं, जो सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली ने तो इसमें अपना परचम लहरा दिया है। पिछले कई वर्षों से दिल्ली सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में गिनी जाती है। पानी का संकट तो इस हद तक पहुंच चुका है कि यह कई आपदाओं से लेकर आफतों का कारण बनने वाला है। एक तरफ जहां नदियां, तालाब, कुएं सूख गए हैं, वहीं दूसरी तरफ बाढ़ का प्रकोप जन-धन के भारी नुकसान का कारण बनता है। ये सारे संकेत पृथ्वी के बढ़ते तापमान से जोड़े जा सकते हैं। इसी वर्ष को देख लीजिए, जिस तरीके से मार्च-अप्रैल तपा है, यह पर्यावरणीय संकट का संकेत है।
इसे सबको समझ लेना चाहिए। नीतिकारों को यह पीड़ा नहीं दिखाई देती, क्योंकि वे इस आफत से बचे हुए हैं। उन्हें न पानी का संकट सताता है और न ही बढ़ते तापमान से समस्या होती है, क्योंकि उनके पास कमरे के तापमान को नियंत्रित करने की सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। हम आज पृथ्वी पर निवेश की बात कर रहे हैं। सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि दुनिया ने इस संकट से बचने के लिए क्या किया है।
पृथ्वी को बचाने के लिए विभिन्न देशों ने क्या योगदान किया है, इसका कोई मापदंड नहीं है। ऐसे में जीडीपी जैसे एक नए पर्यावरण केंद्रित सूचक को लेकर चर्चा होनी चाहिए। दुनिया को एक बात समझनी चाहिए कि जिस तरीके से किसी देश की आर्थिकी को मापा जाता है, ठीक वैसा ही सूचक पर्यावरण उत्पाद (ग्रास इकोसिस्टम प्रोडक्ट-जीईपी) का भी होना चाहिए। इससे यह भी समझ में आएगा कि सरकारों और समाज ने पृथ्वी को बचाने के लिए क्या निवेश किया।
ऐसी ही एक अनूठी पहल उत्तराखंड ने की है, और राज्य शीघ्र ही अपनी आर्थिकी के साथ सकल पर्यावरण उत्पाद का आकलन भी पेश करेगा, ताकि बता सके कि इस वर्ष राज्य सरकार ने हवा, मिट्टी, पानी, जंगल को बचाने के लिए कितना निवेश किया। जब तक हम वैज्ञानिक आधार पर ऐसे सूचकों को प्रोत्साहित नहीं करेंगे या आगे नहीं बढ़ाएंगे, हम हमेशा अधर में ही लटके रहेंगे। जीईपी के माध्यम से ही हम अपनी प्रकृति की चिंता करेंगे, और पृथ्वी को बचा पाएंगे।
सोर्स: अमर उजाला
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