सम्पादकीय

जाति गिनिए और जाति मिटाइए

Gulabi
25 Aug 2021 9:57 AM GMT
जाति गिनिए और जाति मिटाइए
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दस साल बाद जाति आधारित जनगणना की मांग फिर से तेजी से उठी है देखना है कि इस बार इस मांग का सरकार क्या करेगी?

अरुण कुमार त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार।

दस साल बाद जाति आधारित जनगणना की मांग फिर से तेजी से उठी है देखना है कि इस बार इस मांग का सरकार क्या करेगी? जाति आधारित जनगणना की मांग सत्तारूढ़ दल और गठबंधन के भीतर से भी उठ रही है और बाहर से भी. दलगत मतभेदों को दरकिनार करते हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व में दस पार्टियों के 11 सदस्यों ने प्रधानमंत्री से भेंट की और जाति आधारित जनगणना की मांग की है. इस प्रतिनिधिमंडल में नीतीश कुमार के प्रतिद्वंद्वी और राजद के नेता तेजस्वी यादव भी थे. समाजवादी पार्टी और बसपा जैसी पार्टियां तो लंबे समय से इसकी मांग करती रही हैं.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि उनकी पार्टी हमेशा से इसका समर्थन करती रही है. इससे पहले महाराष्ट्र की भाजपा नेता पंकजा मुंडे इस मांग को उठा चुकी हैं और मोदी मंत्रिमंडल के मंत्री व आरपीआई नेता रामदास आठवले ने भी 2011 में हुई जाति संबंधी जनगणना के आंकड़े जारी करने की मांग की थी. ताज्जुब की बात यह है कि लंबे समय से इस मांग को टालने वाली कांग्रेस भी इस बार संसद में 2021 की जनगणना में जातियों को गिनने की वकालत की, जिसका समर्थन शरद पवार ने भी किया. अब तो ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी इस मांग के समर्थन में आ गए हैं.
जाति आधारित जनगणना की मांग राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग 1 अप्रैल को उठा चुका है. इस बारे में आंध्र प्रदेश के जी. मल्लेश यादव ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर कर रखी है, जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने भारत के पंजीयन महानिदेशक और भारत सरकार को नोटिस भी जारी कर रखा है. इसलिए सवाल उठता है कि इतनी चौतरफा मांग के बाद जाति आधारित जनगणना कराए जाने में अड़चन कहां है? ऐसे समय जबकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का चुनाव नजदीक है और भारतीय जनता पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने में लगी है.
एनएडीए सरकार जाति आधारित जनगणना के लिए तैयार नहीं हो रही है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय राज्यसभा में ऐलान कर चुके हैं कि सरकार की नीति जाति आधारित जनगणना करने की नहीं है. न ही सरकार उन आंकड़ों को जारी करने जा रही है, जो 2011 में जनगणना के मुख्य कार्यक्रम से अलग संपन्न किए गए थे.
दबाव के बावजूद यूपीए में कुछ इस तरह पूरी हुई जनगणना
यहां यह बात ध्यान देने की है कि 2011 में जब यूपीए सरकार सत्ता में थी, तब भी लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, गोपीनाथ मुंडे और दूसरे पिछड़े नेताओं ने जाति आधारित जनगणना की मांग तेजी से उठाई थी. तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मामले पर काफी ना नुकुर के बाद सहयोगी दलों का दबाव देखते हुए इसे स्वीकार तो किया, लेकिन इसे जनगणना अधिनियम 1948 के तहत संपन्न कराने की बजाय ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी आवास और गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के तहत संपन्न करवाया. इस काम में 4893.60 करोड़ रुपए खर्च भी हुए.
लेकिन, 2012-13 के बीच संपन्न कराए गए इस सर्वे के आंकड़े जब तक अंतिम रूप से तैयार हों पाते, तब तक यूपीए सरकार विदा हो गई. बाद में आई एनडीए सरकार ने उन आंकड़ों को अंतिम रूप देने की जिम्मेदारी नीति आयोग को दी और वह तैयार भी हो गए. अऱविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में वे आंकड़े तैयार हो गए, लेकिन सरकार ने जाति आधारित आंकड़ों को छोड़कर बाकी सारे आंकड़े जारी कर दिए.
अब सवाल यही है कि अगर वे आंकड़े जारी हो गए तो क्या होगा? और अगर उन्हें नहीं जारी किया गया तो क्या होगा? इस बारे में एक मत यह कहता है कि अगर यह आंकड़े जारी हो गए तो देश में आग लग जाएगी? क्योंकि जो पार्टियां जातिगत जनगणना की मांग कर रही हैं, वे साथ में यह भी मांग कर रही हैं कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा बढ़ाई जाए.
समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने लोकसभा में भाषण के दौरान कहा भी कि अगर सरकार अपने सांसदों को बिठाने के लिए मौजूदा संसद भवन को अपर्याप्त पाती है और उनके लिए सेंट्रल विस्टा का निर्माण करा रही है, तो आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा बढ़ाने में दिक्कत क्या है? उन्होंने याद दिलाया कि समाजवादी नेता इस तरह की मांग करते रहे हैं कि समाजवादियों ने बांधी गांठ पिछड़ा पावै सौ में साठ. आरक्षण की सीमा बढ़ाने का समर्थन एनसीपी भी कर रही है. विरोध करने वालों को इससे समाज में टकराव बढ़ने की आशंका है.
क्‍यों खामोश है बीजेपी और आरएसएस
भारतीय जनता पार्टी और विशेष तौर पर आरक्षण के बारे में अपनी आपत्तियां रखने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस मांग पर खामोश है. हालांकि उसने कोई स्पष्ट मत प्रकट नहीं किया है, लेकिन इस बारे में सहमति भी नहीं दी है. उन्हें लगता है कि अगर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से आगे बढ़ाई गई तो उसका सवर्ण मतदाता नाराज हो जाएगा. क्योंकि वह मेरिट के आधार पर नौकरियां दिए जाने का समर्थक है. वह अपनी जाति की संख्या बताने की मांग भी नहीं उठा रहा है. क्योंकि उससे पता चल सकता है कि कितने प्रतिशत आबादी कितने संसाधनों और नौकरियों पर काबिज है.
दूसरी ओर जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाली पार्टियों को यकीन है कि जाति के आंकड़े आने के बाद धर्म और राष्ट्रवाद पर आधारित राजनीति में उनकी घटती दखल को नया मुद्दा मिलेगा और इस आक्सीजन से वे अपने को पुनर्जीवित कर सकेंगी. वहीं, नीतीश कुमार के साथ जिस तरह से 2015 के बाद राजद ने एकजुटता दिखाई है, वह अपने में भाजपा के लिए चौंकाने वाली बात है. इतना ही नहीं जाति जनगणना के लिए होने वाली यह इंद्रधनुषी एकता जिन पार्टियों को एकजुट कर रही है, वह सोनिया गांधी की विपक्षी एकता से ज्यादा प्रभावशाली है.
जीतन राम माझी का हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, भाकपा माले, सीपीआई, सीपीएम, वीआईपी, एआईएमआईएम जैसी पार्टयों के साथ भाजपा के नेता का भी इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल होना यह कह रहा है कि जाति और आरक्षण की राजनीति अब नए रूप में एकजुट हो रही है. वास्तव में इस राजनीति का औचित्य इस लिहाज से बन रहा है कि मौजूदा राजनीतिक दलों के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दा है नहीं. वे इसे गैर भाजपाई दलों के जनाधार और अस्तित्व से जोड़कर देख रहे हैं.
सेक्यूलर विचारधारा की निगाहें भी इस मुद्दे पर लगी हुई हैं. उन्हें लगता है कि अगर जाति जनगणना की जाती है और नए पुराने आंकड़े जारी होते हैं तो भारतीय समाज में नए किस्म की सामाजिक उथल पुथल होगी और उसमें से नई उदारवादी राजनीति निकल सकती है. वे इसे नई संभावना के रूप मे देख रहे हैं. उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं. अगर सरकार ने आंकड़े नहीं जारी किए तो वे उसे जारी करने की मांग करेंगे और अगर कर दिए तो उस पर राजनीति होगी.
जाति आधारित जनगणना के विरोध में दलील
जाति आधारित जनगणना के विरोध में लंबे समय से दलील दी जाती रही है कि एक तो जातियों को गिनने और उन आंकड़ों को तराशने में सरकारी मशीनरी सक्षम नहीं है. लोगों से जाति पूछना और फिर उसे कंप्यूटर में फीड करके उसका डाटा तैयार करने में बहुत सारे दोष आने की गुंजाइश है. फिर केंद्र के पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्यों के पास अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों की सूची है ही तो उससे काम चलाया जा सकता है. आखिरकार उन आंकड़ों का इस्तेमाल लोगों के विकास के लिए योजनाएं बनाने में ही तो करना है. वे योजनाएं बन भी रही हैं और काम भी हो रहा है.
दूसरी दलील यह है कि जातियों को गिनने से देश में जातिवाद बढ़ेगा और जाति आधारित समाज निर्माण में दिक्कतें आएंगी. यह दलील राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग भी दे रहे हैं कि बाबा साहेब आंबेडकर ने तो जाति के समूल नाश की बात की थी तो जातियों के गिनने से वह उद्देश्य भटक जाएगा. लेकिन जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों का तर्क है कि देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना तो की ही जाती है. साथ में अल्पसंख्यको की गिनती भी की जाती है. तो फिर अन्य पिछड़ा वर्ग की गिनती कर लेने में कौन सा आसमान फट जाएगा.
आखिरकार, उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण दिया ही जा रहा है, जो कि उनकी 52 प्रतिशत अनुमानित संख्या से बहुत कम है. क्योंकि मंडल आयोग ने यह अनुमान 1931 की जनगणना के आधार पर लगाया था. वह देश में जाति आधारित आखिरी जनगणना थी. जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों का कहना है कि सत्तारूढ़ दल और विशेषकर कांग्रेस और भाजपा जाति आधारित जनगणना का विरोध करते रहे हैं. वे इस बहाने अन्य पिछड़ी जातियों को यह कहकर लड़ाते रहे हैं कि यादवों की संख्या कम है तो कुर्मियों का ज्यादा है, कोयरी की ज्यादा है तो काछियों की कम है.
पिछड़ी जातियों को यह कहकर लड़ाया जाता है कि यादवों की संख्या कम है तो कुर्मियों का ज्यादा है, कोयरी की ज्यादा है तो काछियों की कम है. अगर जाति के सही आंकड़े आ गए तो यह खेल नहीं चल पाएगा. उनकी दूसरी दलील है कि केंद्र की सत्ता में रहने के कारण इन दलों के पास जाति आधारित आंकड़ें हैं और वे इसका चुनावी इस्तेमाल और अपना जनाधार बढ़ाने में कर रहे हैं. लेकिन, छोटे दलों के पास वे प्रामाणिक आंकड़े नहीं हैं, इसलिए वे अपने जनाधार में लड़ते रहते हैं.
हालांकि, मामला जिस मुकाम तक आ पहुंचा है उसमें लगता नहीं कि जाति संबधी आंकड़े ज्यादा दिनों तक रोके जा सकेंगे. भाजपा को भी अन्य पिछड़ा वर्ग के अपने आधार को कायम रखना है और कांग्रेस भी उसी में सेंध मारने की कोशिश करेगी. बाकी क्षेत्रीय दल और जनता दल परिवार की पार्टियां भी अपनी राजनीति उसी आधार पर तय करेंगी. इस तरह देश में आरक्षण की नई राजनीति की आहट सुनाई पड़ रही है. अगर कोई बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं खड़ा हुआ तो यह मामला आगे आ रहा है. विशेषकर कोरोना के आई आंर्थिक मंदी के चलते राजनीतिक दल जाति को सीढ़ी बनाकर सत्ता की राजनीति करेंगी. उसमें कोई बुराई भी नहीं है जबकि जाति इस देश की सच्चाई है.
जातियों को बनाए रखना है या उन्हें समाप्त करना है?
असली सवाल यह है कि क्या इस देश में हमेशा जातियों को बनाए रखना है या उन्हें समाप्त करना है. भले भाजपा और कांग्रेस पर देश की जाति की संरचना को बनाए रखने का आरोप लगाया जाए लेकिन ध्यान से देखा जाए तो ज्यादातर पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग के खेल में लगी हैं. वे डा आंबेडकर के जाति के समूल नाश और लोहिया के जाति तोड़ो के सपनों को पूरा करने में रुचि नहीं रखतीं. सोशल इंजीनियरिंग का मतलब है सामाजिक परिवर्तन को संभालने के लिए विकास और समाज के व्यवहार को नियमित करने के इरादे से केंद्रीय योजना का रूप निर्धारित किया जाए.
डा लोहिया ने कहा था कि राजनीति के दो रूप होते हैं. एक तो सत्ता की राजनीति होती है जिसे वोट पाने के लिए किया जाता है और सत्ता तक पहुंचा जाता है. दूसरी पैगंबरी राजनीति होती है जिसे समाज को बदलने के लिए किया जाता है. जब राजनीति अपने दूसरे दायित्व को त्याग देती है तो वह क्षुद्र हो जाती है. अब यह तो समय ही बताएगा कि जाति आधारित जनगणना की इस खींचतान में भारत की राजनीति कहां जाती है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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