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Written by जनसत्ता: कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल के शिक्षा मंत्री और उनकी एक मित्र के घर से जिस तरह से भारी पैमाने पर धन बरामद किया गया, उससे स्पष्ट हो गया कि क्यों लोग अलग-अलग पार्टियों से विधायक या मंत्री बनना चाहते हैं। इस स्याह मामले में एक पहलू यह रहा कि लगभग 269 अयोग्य उम्मीदवारों को राजकीय सेवा में प्राथमिक अध्यापक बना दिया गया।
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ममता बनर्जी सरकार की इस मुद्दे को लेकर आलोचना सही ठहराई जा सकती है। पर क्या दूसरी सत्ताधारी पार्टियां इस कुप्रवृत्ति से मुक्त हैं? ऐसे मामलों में क्या रिश्वत देने वाले के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए? अक्सर देखा गया है कि नेताओं और मंत्रियों को तो खूब कोसा जाता है, भला-बुरा कहा जाता है, पर उन अयोग्य उम्मीदवारों के बारे में कुछ नहीं कहा जाता जो पैसा देकर नौकरी हासिल करते हैं।
कायदे से सरकार को ऐसे उम्मीदवारों को अविलंब नौकरी से निकाल देना चाहिए, क्योंकि ये शिक्षक, बच्चों के भविष्य को सिर्फ अंधकारमय ही बना सकते हैं। ऐसे शिक्षकों से राष्ट्र निर्माण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। एक शिक्षक जिसे समाज एक आदर्श के रूप में देखता है, उससे आशा की जाती है कि वह समाज का मार्गदर्शक बनेगा, जब वह खुद ही पथभ्रष्ट हो जाए तो शिक्षा का भविष्य कैसा होगा, अनुमान लगाया जा सकता है।
लोकतांत्रिक परिवेश में आमजन का विकास सरकार का प्राथमिक कार्तव्य होता है। यही वजह है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सरकारें जनता के विकास के लिए समय-समय पर योजनाओं और परियोजनाओं को विकास का आधार बनाती है। लेकिन यहां एक कड़ी ऐसी होती हैं जो इन योजनाओं से लोगों को जोड़कर इसके उद्देश्य को तो पूरा करती ही है, इसे सार्थक भी बनाती है। यह कड़ी है योजनाओं का प्रचार और प्रसार जो विज्ञापनों के जरिए किया जाता है।
दरअसल, लोगों को योजनाओं और उसके हर एक पहलू से उन्हें अवगत करवाना विज्ञापनों के जरिए किया जाता है, जो अलग-अलग जनसंचार माध्यमों से होते हुए लोगों तक पहुंचता है। यहां गौरतलब है कि सरकार योजनाओं का विज्ञापन हजारों-लाखों रुपए देकर करती है। हर साल कई सौ करोड़ रुपए अकेले प्रचार में खर्च हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, एक खबर के मुताबिक, हाल ही में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने पिछले पांच सालों में भारत सरकार द्वारा विज्ञापनों का खर्च मीडिया से साझा किया जो लगभग 3,339 करोड़ रुपए था।
सवाल है कि क्या सरकार को इतना धन इश्तिहारों में खर्च करना चाहिए? यहां इसका सही उत्तर इस पर निर्भर करता है कि कहीं विज्ञापनों पर पर्याप्त धन से अधिक तो नहीं खर्च हो रहा है क्योंकि अगर विज्ञापनों पर पर्याप्त धन से ज्यादा खर्चा होता है तो यह अनुचित व्यय कहलाता है यहां सरकार को इस बात पर गौर करने की जरूरत होनी चाहिए, क्योंकि यही धन किसी और कार्यों में इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
पिछले पांच सालों में ऐसे कई विज्ञापन सरकार द्वारा दिए गए हैं, जिन पर पर्याप्त से ज्यादा धन इस्तेमाल किया गया है। इसलिए विज्ञापनों पर उतना ही खर्च किया जाए, जितना उचित है। योजनाओं का प्रचार करना आवश्यक कार्य है, लेकिन यहां प्रचार- प्रसार में सही तरीके से निवेश करना बेहद जरूरी है। निखिल रस्तोगी, बरेली, यूपी