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अटल श्रेष्ठ शहर योजना के तहत तहरीर यह भी कि हिमाचल के शहरीकरण की तस्वीर क्या है
By: divyahimachal
अटल श्रेष्ठ शहर योजना के तहत तहरीर यह भी कि हिमाचल के शहरीकरण की तस्वीर क्या है, लेकिन फैलते शहरों की किस्मत सुधारने की जरूरत जिस सीमा रेखा पर अकसर विवाद पैदा करती, उसे संबोधित करने की आवश्यकता भी खड़ी हो रही है। बहरहाल शहरी मूल्यांकन में पिछले दो साल एक श्रेष्ठ फेहरिस्त तैयार हुई है जिसमें नाहन व कुल्लू क्रमश: एक-एक करोड़ के पुरस्कार से लाभान्वित हुए, तो जिक्र चौपाल और अर्की का भी होगा जहां नगर पंचायत के दायरे में उल्लेखनीय उपलब्धियों ने 75-75 लाख का शगुन दिया है। इस तरह दो साल के तमाम पुरस्कारों में नाहन, मनाली, कुल्लू, ऊना व बद्दी आए, जबकि चौपाल, गगरेट, कोटखाई, अर्की, सुन्नी व नारकंडा जैसे छोटे कस्बे भी शरीक हो रहे हैं। अवार्ड का अपना अर्थ और इसके परिप्रेक्ष्य में कई मानदंडों का उल्लेख आता है, लेकिन जो शहर पिछड़ रहे हैं, उनके ऊपर चिंतन की जरूरत है। शहरी विकास की दृष्टि से हिमाचल ने सत्तर के दशक से एक नई खोज शुरू की, जहां नौकरीपेशा जमात, विस्थापित लोगों, बच्चों की शिक्षा, बेहतर जिंदगी, रोजगार की उम्मीद व व्यापार की नई संभावनाओं के कारण कुछ शहर फूलते गए। इसमें टूरिज्म की संभावनाओं और ट्राइबल आबादी का पलायन भी देखा गया।
उदाहरण के लिए मनाली और सोलन जैसे शहरों में लाहुल-स्पीति, किन्नौर व गिरिपार जैसे दुरूह क्षेत्रों की अधिकतर ट्राइबल आबादी का पुनर्वास हुआ। दूसरी ओर चंबा की गद्दी आबादी का कांगड़ा के छोटे-बड़े शहरों की ओर तीव्रता से हुए कूच ने शहरीकरण की उपमाएं बदल दी। सोलन, हमीरपुर व धर्मशाला जैसे शहर शिक्षार्थियों के लिए एक डेस्टिनेशन बन गए, तो पर्यटन ने किन्नौर की सांगला बैली तक का शहरीकरण करना शुरू कर दिया। इसी बदलाव में श्रद्धा की नगरियों के सीमा क्षेत्र फैल रहे हैं। हमारा मानना है कि हिमाचल में न तो शहरीकरण को वास्तव में नए हिमाचल की जरूरतों और न ही नागरिक जीवनशैली की अपेक्षाओं में पढ़ा गया। नतीजतन कुल्लू या नाहन को भले ही प्रथम पुरस्कार मिल जाए, लेकिन क्या वहां के बाशिंदे अपने शहर को अव्वल मान सकते हैं। आश्चर्य तो यह कि नागरिक समाज इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर रहा कि वही शहरीकरण के प्रति उतावला है और इसके एवज में उसे अतिरिक्त सुविधाओं का वित्तीय बोझ उठाना पड़ेगा। दूसरी ओर सरकार के द्वारा शहरी योजनाओं का कोई ऐसा खाका तैयार नहीं हुआ, जो हर शहर की पूर्ण रूप से व्याख्या कर दे। सोलन और पालमपुर के विकास में एक समानता नहीं होगी। दोनों की संभावनाएं, भौगोलिक पृष्ठभूमि तथा भविष्य का स्कोप अलग-अलग है। इसके लिए जरूरी है कि तमाम शहरों का वर्गीकरण किया जाए। एक बड़े शहर के केंद्र बिंदु में कई अन्य छोटे शहरों, कस्बों व गांवों को जोडक़र विकास योजना का बड़ा प्रारूप तैयार किया जाए।
सभी शहरों की आबादी क्षमता व विस्तार के स्कोप का निर्धारण किया जाए। हिमाचल का शहरीकरण अब तो जमीन की खरीद-फरोख्त तथा बिना किसी दिशा के भवन निर्माण की गतिविधि बन रहा है, जबकि आवासीय मांग ने शिमला जैसे शहर का नूर लूट लिया और कमोबेश यही प्रक्रिया अन्य शहरों की रूहानियत को लूट रही है। अगर पैराग्लाइडिंग के सर्वश्रेष्ठ स्थल के रूप में बीड़-बिलिंग को विकसित होना है, तो उसकी योजना है कहां। वहां चंद सालों में व्यापारिक होड़ ने भविष्य की चांदी लूट ली है। यही कू्ररता तमाम धार्मिक व पर्यटन शहरों के विकास में देखी जा रही है। क्या हम शिमला के ही प्रारूप में देखें, तो चंद शहरों में वाहन रहित माल रोड नहीं चाहिएं। रिज जैसे मैदानों का विस्तार करते हुए नागरिक व सैलानी चहल कदमी नहीं चाहिए। मंडी की इंदिरा मार्किट की तरह हर शहर में आधुनिक बाजार, तो शिमला के गेयटी थियेटर की तरह सभागार चाहिए। दक्षिण भारतीय मंदिरों की तर्ज पर अगर प्रमुख आधा दर्जन के करीब धार्मिक स्थल विकसित हो जाएं, तो ये प्रदेश के आर्थिक हालात बदल सकते हैं। प्रदेश के शहरीकरण को अगर आर्थिक विकास के नजरिए देखेंगे, तो अवश्य ही दो-तीन उपग्रह शहर, कुछ निवेश केंद्र, कुछ औद्योगिक केंद्र तथा ट्रांसपोर्ट नगर भविष्य की महत्त्वाकांक्षा को व्यवस्थित कर पाएंगे।
Rani Sahu
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